गीता प्रेस, गोरखपुर >> जित देखूँ तित तू जित देखूँ तित तूस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है जित देखूँ तित तू....
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक में श्रद्घेय श्रीस्वामीजी महाराज के द्वारा रचित नौ
लेखों का संग्रह है। ये लेख भगवत्प्रेमी साधकों के लिये बहुत काम के हैं
और सुगमता पूर्वक भगवत्प्राप्ति कराने में बहुत सहायक हैं।
पुस्तक में कुछ बातों की पुनरावृत्ति भी हो सकती है। परन्तु समझाने की दृष्टि से इस प्रकार की पुनरावृत्ति होना दोष नहीं है। उपनिषद में भी ‘तत्त्वमसि- इस उपदेशकी नौ बार पुनरावृत्ति हुई है। इसलिये ब्रह्मसूत्र में आया है- ‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्’ (4।1।1।)। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के उव्वटभाष्यमें आया है-
‘संस्कारोज्जवलनार्थं हितं च पथ्यं च पुनः पुनरुपदिश्यमानं न दोषाय भवतीति’ (1। 21) अर्थात् संस्कारों को उद्बुद्ध करने के उदेश्य से हित तथा पथ्य की बात का बार-बार उपदेश करने में कोई दोष नहीं है।
पुस्तक में सभी बातें सब जगह नहीं लिखी जा सकतीं। अतः पाठकको किसी जगह कोई कमी दिखायी दे तो पूरी पुस्तक पढ़ने से दूसरी जगह उसका समाधान मिल सकता है। फिर भी कोई कमी या भूल दिखायी दे तो पाठक सूचित करने की कृपा करें। पाठकों से नम्र निवेदन है कि वे भगवत्प्राप्तिके उदेश्य से इस पुस्तक को मनोयोगपूर्वक पढ़ें, समझे और लाभ उठायें।
पुस्तक में कुछ बातों की पुनरावृत्ति भी हो सकती है। परन्तु समझाने की दृष्टि से इस प्रकार की पुनरावृत्ति होना दोष नहीं है। उपनिषद में भी ‘तत्त्वमसि- इस उपदेशकी नौ बार पुनरावृत्ति हुई है। इसलिये ब्रह्मसूत्र में आया है- ‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्’ (4।1।1।)। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के उव्वटभाष्यमें आया है-
‘संस्कारोज्जवलनार्थं हितं च पथ्यं च पुनः पुनरुपदिश्यमानं न दोषाय भवतीति’ (1। 21) अर्थात् संस्कारों को उद्बुद्ध करने के उदेश्य से हित तथा पथ्य की बात का बार-बार उपदेश करने में कोई दोष नहीं है।
पुस्तक में सभी बातें सब जगह नहीं लिखी जा सकतीं। अतः पाठकको किसी जगह कोई कमी दिखायी दे तो पूरी पुस्तक पढ़ने से दूसरी जगह उसका समाधान मिल सकता है। फिर भी कोई कमी या भूल दिखायी दे तो पाठक सूचित करने की कृपा करें। पाठकों से नम्र निवेदन है कि वे भगवत्प्राप्तिके उदेश्य से इस पुस्तक को मनोयोगपूर्वक पढ़ें, समझे और लाभ उठायें।
अक्षय तृतीया
वि ० सं० 2051
वि ० सं० 2051
प्रकाशक
जित देखूँ तित तू
‘वासुदेवः सर्वम्’ ‘सब कुछ भगवान् ही
हैं’-यह
गीता का मुख्य सिद्धान्त है। गीता ने इसी को महत्त्व दिया हैं। जड़
–चेतन, स्थावर-जंगम, उद्वज्ज-जरायुग-अण्डज, चौरासी लाख योनियाँ,
चौदह भुवन, अनन्त ब्रह्माण्ड सब कुछ भगवान् ही हैं। इस भाव के कई श्लोंक
गीतामें आये हैं; जैसे-
‘येन सर्वमिदं ततम्’ (2। 17, 8। 22, 18। 46)
‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चदस्ति’ (7 । 7)
‘वासुदेवः सर्वम्’ (7 । 19)
‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (9 । 4)
‘सदसच्चाहमर्जुन’ (9 । 19)
‘अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ (10 ।20)
‘सर्गाणामादिरन्तश्र्च मध्यं चैवाहमर्जुन’ (10 ।32)
‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’ (10 ।39)
‘बहिरन्तश्र्च भूतानामचरं चरममेव च’ (13 । 15)
गीता में जो विभूतियाँ बनाती गयी हैं, उनका तात्पर्य भी यही है कि एक भगवान के सिवाय कुछ नहीं है*। जितनी भी विभूतियाँ हैं, वे सब भगवान् के ऐश्वर्य हैं। ब्रह्म भी भगवान् की एक ‘विभूति’ हैं, ऐश्वर्य है। इसलिये भगवान ने कहा है- ‘ब्रह्मणों हि प्रतिष्ठाहम्’
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* गीता में भगवान् ने कारणरूप से सत्रह विभूतियाँ (7 । 8-12), कार्य-कारणरूप से सैंतीस विभूतियाँ (9 । 16 -19), भावरूप से बीस विभूतियां (10 ।4-5), व्यक्तिरूप से पचीस विभूतियाँ(10 ।6) मुख्य रूप से तथा अधिपतिरूप से इक्यासी विभूतियाँ (10 । 20-38), साररूपसे एक विभूति (10 ।39) और प्रभाव रूप से तेरह विभूतियां (15 । 12 -15) बनायी हैं।
(14 27) अर्थात् मैं ब्रह्मका आधार हूँ। असत् की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। असत् परिवर्तनशील है और सत् अपरिवर्वतनशील है। ये सत् और असत दोनों ही भगवान् की विभतियाँ हैं- ‘सदसच्चाहमर्जन’ (9 19) ।
गीता में भगवान् ने ब्रह्मको भी ‘माम्’ (अपना स्वरूप) कहा है- ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्’ (8 । 13), देवताओं को भी ‘माम्’ कहा है- ‘.येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव....’ (9 । 23), इन्द्र को भी ‘माम्’ कहा है- ‘त्रैविद्या मां सोमपाः’ (9 । 20), उत्तम गतिको भी ’माम्’ कहा है- ‘मामेवानुत्तमां गतिम्’ (7। 18), क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) – को भी ‘माम्’ कहा जाता है- ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ (13 । 2), सबके शरीर में रहने वाले अन्तर्यामीको भी ‘माम्’ कहा है- ‘मामात्मपरदेहेषु’ (16 18), सम्पूर्ण प्राणियोंके बीजों को भी ’माम्’ कहा है- ‘बीजं मां सर्वभूतानाम् ’ (7 । 10 ) आदि।
तात्पर्य है कि सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान का ही समग्ररूप है अर्थात् सब भगवान् की ही विभूतियां है, उसका ही ऐश्वर्य है ये सब-की-सब विभूतियाँ अव्यय (अविनाशी) हैं। इसलिये गीताने समग्ररूप अर्थात् विराटरूपको भी अव्यय कहा है- ‘योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम’ (19 ।4), ‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’ (19 । 18), निर्गुण- निराकार को भी अव्यय कहा है- ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च’ (14 27), ‘सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते’ (18 । 20) सगुण –साकार को भी अव्यय कहा है - ‘तस्य कर्तारमपि मां विद्धय्कर्तारम्व्ययम्’ (4 । 13 )’ परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्’ (7 24), ‘मूढ़ोऽयंनाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्’ (7 । 25), ‘यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः’ (15 17), परम पदको भी अव्यय कहा है- ‘पदमव्ययम्’ (15 । 5, 18 । 56), योग को भी अव्यय कहा जाता है- ‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’ (4 । 1), विज्ञान सहित ज्ञानको भी अव्यय कहा है- ‘सुसुखं कर्तुमव्ययम्’ (9 । 2)।
सब कुछ भगवान् ही हैं-इसका अनुभव करनेवाले बक्त को भगवानने अत्यन्त दुर्लभ महात्मा कहा है-
‘येन सर्वमिदं ततम्’ (2। 17, 8। 22, 18। 46)
‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चदस्ति’ (7 । 7)
‘वासुदेवः सर्वम्’ (7 । 19)
‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (9 । 4)
‘सदसच्चाहमर्जुन’ (9 । 19)
‘अहमादिश्र्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ (10 ।20)
‘सर्गाणामादिरन्तश्र्च मध्यं चैवाहमर्जुन’ (10 ।32)
‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’ (10 ।39)
‘बहिरन्तश्र्च भूतानामचरं चरममेव च’ (13 । 15)
गीता में जो विभूतियाँ बनाती गयी हैं, उनका तात्पर्य भी यही है कि एक भगवान के सिवाय कुछ नहीं है*। जितनी भी विभूतियाँ हैं, वे सब भगवान् के ऐश्वर्य हैं। ब्रह्म भी भगवान् की एक ‘विभूति’ हैं, ऐश्वर्य है। इसलिये भगवान ने कहा है- ‘ब्रह्मणों हि प्रतिष्ठाहम्’
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* गीता में भगवान् ने कारणरूप से सत्रह विभूतियाँ (7 । 8-12), कार्य-कारणरूप से सैंतीस विभूतियाँ (9 । 16 -19), भावरूप से बीस विभूतियां (10 ।4-5), व्यक्तिरूप से पचीस विभूतियाँ(10 ।6) मुख्य रूप से तथा अधिपतिरूप से इक्यासी विभूतियाँ (10 । 20-38), साररूपसे एक विभूति (10 ।39) और प्रभाव रूप से तेरह विभूतियां (15 । 12 -15) बनायी हैं।
(14 27) अर्थात् मैं ब्रह्मका आधार हूँ। असत् की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। असत् परिवर्तनशील है और सत् अपरिवर्वतनशील है। ये सत् और असत दोनों ही भगवान् की विभतियाँ हैं- ‘सदसच्चाहमर्जन’ (9 19) ।
गीता में भगवान् ने ब्रह्मको भी ‘माम्’ (अपना स्वरूप) कहा है- ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्’ (8 । 13), देवताओं को भी ‘माम्’ कहा है- ‘.येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव....’ (9 । 23), इन्द्र को भी ‘माम्’ कहा है- ‘त्रैविद्या मां सोमपाः’ (9 । 20), उत्तम गतिको भी ’माम्’ कहा है- ‘मामेवानुत्तमां गतिम्’ (7। 18), क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) – को भी ‘माम्’ कहा जाता है- ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ (13 । 2), सबके शरीर में रहने वाले अन्तर्यामीको भी ‘माम्’ कहा है- ‘मामात्मपरदेहेषु’ (16 18), सम्पूर्ण प्राणियोंके बीजों को भी ’माम्’ कहा है- ‘बीजं मां सर्वभूतानाम् ’ (7 । 10 ) आदि।
तात्पर्य है कि सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान का ही समग्ररूप है अर्थात् सब भगवान् की ही विभूतियां है, उसका ही ऐश्वर्य है ये सब-की-सब विभूतियाँ अव्यय (अविनाशी) हैं। इसलिये गीताने समग्ररूप अर्थात् विराटरूपको भी अव्यय कहा है- ‘योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम’ (19 ।4), ‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’ (19 । 18), निर्गुण- निराकार को भी अव्यय कहा है- ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च’ (14 27), ‘सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते’ (18 । 20) सगुण –साकार को भी अव्यय कहा है - ‘तस्य कर्तारमपि मां विद्धय्कर्तारम्व्ययम्’ (4 । 13 )’ परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्’ (7 24), ‘मूढ़ोऽयंनाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्’ (7 । 25), ‘यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः’ (15 17), परम पदको भी अव्यय कहा है- ‘पदमव्ययम्’ (15 । 5, 18 । 56), योग को भी अव्यय कहा जाता है- ‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’ (4 । 1), विज्ञान सहित ज्ञानको भी अव्यय कहा है- ‘सुसुखं कर्तुमव्ययम्’ (9 । 2)।
सब कुछ भगवान् ही हैं-इसका अनुभव करनेवाले बक्त को भगवानने अत्यन्त दुर्लभ महात्मा कहा है-
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
(गीता 7 । 19)
यहाँ ‘वासुदेवः’ शब्द पुँल्लिङ्गमें आया है; अतः यहाँ
वासुदेवः सर्वः’ कहा जाना चाहिये था। परन्तु यहाँ
‘सर्वः’ न कहकर ‘सर्वम्’ कहा गया
है, जो
नपुंसकलिङ्गमें हैं। अगर तीनों लिङ्गों (सर्वः सर्वा, सर्वम्)- का एकशेष
किया जाय तो नपुंसकलिङ्ग (सर्वम) ही एकशेष रहता है।
नपूंसकलिग्ङके अन्तर्गत तीनों लिङग आ जाते हैं। अतः
‘सर्वम्’ शब्दों में स्त्री-पुरुष और नपुंसक-सबका
समाहार हो
जाता है। गीतामें जगत जीव और परमात्मा-इन तीनों के लिये पुँल्लिङ्ग,
स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग- इन तीनों ही लिङ्गों का प्रयोग हुआ है*।
इसमें यह तात्पर्य निकलता है कि जगत्, जीव और परमात्मा –ये
तीनों ही
‘सर्वम्’ शब्द के अन्तर्गत हैं। अतः तीनों लिङ्गों से
कहीं
जानेवाली सब-की-सब वस्तुएँ, व्यक्ति, परिस्थिति आदि परमात्मा ही हैं-
‘वासुदेवः सर्वम्।’ इसमें
‘सर्वम्’ तो असत् है और
‘वासुदेवः’ सत् है। असत् का भाव विद्यामान नहीं है और
सत् का
अभाव विद्यमान नहीं है-
नासतो विद्यते भावों नाभावों विद्यते सतः।
(गीता 2 । 16)
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*द्रष्टव्य- ‘गीता-दर्पण’ में लेख-संख्या 99- ‘गीता में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृतिकी अलिङ्गता।’
तात्पर्य है कि सत्-ही-सत् है, असत् है ही नहीं। वासुदेव- ही-वासुदेव है, ‘ सर्वम्’ है ही नहीं। सतका होनापना स्वतः सिद्ध है और असतका न होनापना स्वतः सिद्ध है। सत् चित् आनन्द तथा अद्वैतका भाव-ही-अभाव है और असत् जड दुख तथा द्वैतका अभाव-ही-अभाव है। जब असत् की सत्ता ही नहीं है तो फिर सत्-ही-सत् रहा-यही ‘वासुदेवः सर्वम्’ है।
विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत् और असत्-दोनों का विचार होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे ? असत् को मानें तो विवेक है और असत् को न मानें तो विश्वास है। विवेक में सत्-असतका विभाग है, वि्श्वास में विभाग है ही नहीं विश्वास में केवल सत्- ही-सत् अर्थात परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।
असत् की सत्ता मानने से ही संयोग और वियोग हैं। असत् को सत्ता न दे तो न संयोग है, न वियोग हैं, प्रयुक्त ‘योग’ (नित्ययोग) है।
*द्रष्टव्य- ‘गीता-दर्पण’ में लेख-संख्या 99- ‘गीता में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृतिकी अलिङ्गता।’
तात्पर्य है कि सत्-ही-सत् है, असत् है ही नहीं। वासुदेव- ही-वासुदेव है, ‘ सर्वम्’ है ही नहीं। सतका होनापना स्वतः सिद्ध है और असतका न होनापना स्वतः सिद्ध है। सत् चित् आनन्द तथा अद्वैतका भाव-ही-अभाव है और असत् जड दुख तथा द्वैतका अभाव-ही-अभाव है। जब असत् की सत्ता ही नहीं है तो फिर सत्-ही-सत् रहा-यही ‘वासुदेवः सर्वम्’ है।
विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत् और असत्-दोनों का विचार होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे ? असत् को मानें तो विवेक है और असत् को न मानें तो विश्वास है। विवेक में सत्-असतका विभाग है, वि्श्वास में विभाग है ही नहीं विश्वास में केवल सत्- ही-सत् अर्थात परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।
असत् की सत्ता मानने से ही संयोग और वियोग हैं। असत् को सत्ता न दे तो न संयोग है, न वियोग हैं, प्रयुक्त ‘योग’ (नित्ययोग) है।
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