| उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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      रुप्पन बाबू की आँखें वीर-पूजा की भावना से चमक उठीं। पर बात यहीं रुक गई।
      शोर का आखिरी दौर चल निकला था और लोग आसमान फाड़ने के उद्देश्य से बजरंग बली
      की जय बोलने लगे थे। रंगनाथ ने कहा, “लगता है, कोई चोर पकड़ा गया।"
      
      रुप्पन बाबू ने कहा, “नहीं, मैं गँजहा लोगों को खूब जानता हूँ। चोरों को गाँव
      से बाहर खदेड़ दिया होगा, चोरों ने खुद इन्हें गाँव के बाहर नहीं खदेड़ा, यही
      क्या कम है ? इसी खुशी में जय-जयकार लगायी जा रही है।"
      
      चाँदनी में लोग दो-दो, चार-चार के गुट बनाकर किचमिच-किचमिच करते हुए सड़क और
      दूसरे रास्तों से आ-जा रहे थे। रुप्पन बाबू ने मुँडेर के पास खड़े होकर देखा।
      एक गुट ने नीचे से कहा, “जागते रहना रुप्पन बाबू ! रात-भर होशियारी से रहना।"
      
      रुप्पन बाबू घृणा के साथ वहीं से बोले, “जाओ, बहुत नक्शेबाजी न झाड़ो।"
      
      रंगनाथ की समझ में नहीं आया कि इतनी अच्छी सलाह का रुप्पन बाबू इस तरह क्यों
      तिरस्कार कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद यही सलाह गाँव के कोने-कोने में गूंजने
      लगी, "जागते रहो, जागते रहो।"
      
      शोर अब रह-रहकर हो रहा था। चारों ओर सीटियाँ भी सुनायी देने लगी थीं।
      रंगनाथ ने कहा, "ये सीटियाँ कैसी हैं ?"
      रुप्पन बाबू बोले, “क्या पुलिस शहर में गश्त नहीं लगाती ?"
      “ओह ! तो पुलिस भी अब मौके पर आ गई है!"
      “जी हाँ ! पुलिस ने ही तो गाँववालों की मदद से डाकुओं का मुकाबला किया है।
      पुलिसवालों ही ने तो उन्हें यहाँ से मार भगाया है।"
      रंगनाथ आश्चर्य से रुप्पन बाबू को देखने लगा, “डाकू ?"
      "कौन ?"
      "हाँ-हाँ, डाकू नहीं तो और क्या ? चाँदनी रात में कभी चोर भी आते हैं ? ये
      डाकू तो थे ही।"
      			
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