उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रंगनाथ कम्बल ओढ़े छत की ओर देखता हुआ लेटा रहा। दरवाजा खुला था और बाहर
चाँदनी फैली थी। थोड़ी देर उसने सोफिया लारेन और एलिजाबेथ का ध्यान किया, पर
कुछ क्षण वाद ही इसे चरित्रहीनता की अलामत मानकर वह अपने शहर के धोवी की
लड़की के बारे में सोचने लगा जो धुलाई के कपड़ों से अपने लिए पोशाक निकालते
वक्त पिछले दिनों विना वाँह के ब्लाउजों को ज्यादा तरजीह देने लगी थी। कुछ
देर में इस परिस्थिति को भी कुछ घटिया समझकर फ़िल्मी अभिनेत्रियों पर उसने
दोवारा ध्यान लगाया और इस बार राष्ट्रीयता और देश-प्रेम के नाम पर लिज टेलर
आदि को भुलाकर वहीदा रहमान और सायरा बानू का सहारा पकड़ा। दो-चार मिनट बाद ही
वह इस नतीजे पर पहुँचने लगा कि हर बात में विलायत से प्रेरणा लेना ठीक नहीं
है और ठीक से मन लग जाए तो देश-प्रेम में भी बड़ा मजा है। अचानक उसे नींद-सी
आने लगी और बहुत कोशिश करने पर भी सायरा वानू के समूचे जिस्म के सामने उसके
ध्यान का रकबा छोटा पड़ने लगा। उसमें कुछ शेर और भालू छलाँगें लगाने लगे।
उसने एक बार पूरी कोशिश से सायरा बानू को धड़ से पकड़कर घसीटना चाहा, पर वह
हाथ से बाहर फिसल गई और उसी सौदे में शेर और भालू भी बाहर निकल गए। तभी उसके
दिमाग में खन्ना मास्टर की बनती-बिगड़ती हुई तस्वीर दो-एक बार लुपलुपायी और
एक शब्द गूंजने लगा, 'इन्सानियत !' 'इन्सानियत !'
पहले लगा, कोई यह शब्द फुसफुसा रहा है। फिर जान पड़ा, इसे कोई मंच पर बड़ी
गम्भीर आवाज में पुकार रहा है। उसके बाद ही ऐसा जान पड़ा, कहीं दंगा हो रहा
है और चारों ओर से लोग चीख रहे हैं, 'इन्सानियत ! इन्सानियत ! इन्सानियत !!!'
वह जाग पड़ा और जागते ही शोर सुनायी दिया, “चोर ! चोर ! चोर ! जाने न पाए !
पकड़ लो ! चोर ! चोर ! चोर !"
एकाध क्षणों के बाद पूरी बात 'चोर ! चोर ! चोर !' पर आकर टूट रही थी, जैसे
ग्रामोफोन की सुई रिकॉर्ड में इसी नुक्ते पर फंस गई हो। उसने देखा, शोर गाँव
में दूसरी तरफ़ हो रहा था। बद्री पहलवान चारपाई से कूदकर पहले ही नीचे खड़े
हो गए हैं।
वह भी उठ बैठा। बद्री ने कहा, “छोटे कहता ही था। चोरों का एक गिरोह आसपास घूम
रहा है। लगता है, गाँव में भी आ गए।'
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