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राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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वैद्यजी और चार-पाँच आदमी अन्दर आ गए। एक ने इत्मीनान की बडी लम्बी साँस खींची जो खत्म होते-होते एक सिसकी में बदल गई। दूसरा तख्त पर बैठ गया और उसने इतने जोर से जम्हाई ली कि पहले तो वह जम्हाई रही, पर आखिर में सीटी पर आकर खत्म हुई। वैद्यजी ने भी तकिये के सहारे बैठकर अपनी टोपी और कुरता इस अन्दाज से तख्त के दूसरे छोर पर फेंका जैसे कोई बड़ा गवैया एक लम्बी तान लगा चुकने के बाद सम पर आ गया हो। यह स्पष्ट हो गया कि सभी लोग कोई बड़ा काम करके थकान उतारने की स्थिति में आ गए हैं। सनीचर बोला, “महाराज, बहुत थकान आ गई हो तो एक बार फिर छनवा दूं।"

वैद्यजी कुछ नहीं बोले। यूनियन के एक डायरेक्टर ने कहा, “दुवारा तो वहीं यूनियन में छन चुकी है। बढ़िया माल । दूधिया। अब घर चलने का नम्बर है।"

वैद्यजी कुछ देर पूर्ववत् चुप बैठे हुए दूसरों की बातें सुनते रहे। यह आदत उन्होंने तभी से डाल ली थी जब से उन्हें विश्वास हो गया था कि जो खुद कम खाता है, दूसरों को ज्यादा खिलाता है; खुद कम बोलता है, दूसरों को ज्यादा बोलने देता है; वही खुद कम बेवकूफ़ बनता है, दूसरे को ज्यादा बेवकूफ़ बनाता है। फिर वे अचानक बोले, “रंगनाथ, तुम्हारी क्या राय है ?"

जिस तरह बिना बात बताये हुए वैद्यजी ने राय माँगी थी, उसी तरह बिना बात समझे हुए रंगनाथ ने कहा, “जी, जो होता है, अच्छा ही होता है।"

वैद्यजी मूंछों-ही-मूंछों में मुस्कराए। बोले, “तुमने बहुत उचित कहा। बद्री प्रस्ताव के विरुद्ध था, पर बाद में वह भी चुप हो गया। प्रस्ताव एकमत से पास हो गया। जो हुआ, अच्छा ही हुआ !"

रंगनाथ को बाद में ध्यान आया कि वह अपनी राय यों ही लुटा चुका है। उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा, “क्या प्रस्ताव किया आप लोगों ने ?"

"हम लोगों ने प्रस्ताव किया है कि सुपरवाइजर ने जो हमारी आठ हजार रुपये की हानि की है, उसकी पूर्ति के लिए सरकार अनुदान दे।'' रंगनाथ इस तर्क से लड़खड़ा गया। बोला, “सरकार से क्या मतलव ? गबन आपकी यूनियन के सुपरवाइजर ने किया और उसका हरजाना सरकार दे ?'

"तो कौन देगा ? सुपरवाइजर तो अलक्षित हो चुका है। हमने पुलिस में सूचना दे दी है। आगे सरकार का दायित्व है। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। होता, तो सुपरवाइजर को पकड़कर उससे गेहूँ का मूल्य वसूल लेते। अब जो करना है, सरकार करे। या तो सरकार सुपरवाइजर को बन्दी बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करे या कुछ और करे। जो भी हो, यदि सरकार चाहती है कि हमारी यूनियन जीवित रहे और उसके द्वारा जनता का कल्याण होता रहे तो उसे ही यह हरजाना भरना पड़ेगा। अन्यथा यह यूनियन बैठ जाएगी। हमने अपना काम कर दिया, आगे का काम सरकार का है। उसकी अकर्मण्यता भी हम जानते हैं।"

वैद्यजी इतनी तर्कसंगत बातें कर रहे थे कि रंगनाथ का दिमाग चकरा गया। वे 'शासन की अकर्मण्यता', 'जनता का कल्याण,' ‘दायित्व' आदि शब्द बार-बार अपनी बात में ला रहे थे। रंगनाथ को यक़ीन हो गया कि नये जमाने में लोग जैसी भाषा समझते हैं, उसके मामा पुरानी पीढ़ी के होकर भी वैसी ही भाषा बोलना जानते हैं।

बद्री पहलवान छोटे से बातचीत करके वापस आ गए थे। बोले, “रामाधीन के यहाँ डाका तो नहीं पड़ा, पर इधर-उधर चोरियाँ होने की खबरें आयी हैं।"

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