उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर कुछ दुकानें, तहसील, थाना, ताड़ीघर, विकास-खंड का
दफ़्तर, शराबखाना, कॉलिज-सड़क से निकल जानेवाले को लगभग इतना ही दिखायी देता
था। कुछ दूर आगे एक घनी अमराई में बनी हुई एक कच्ची कोठरी भी पड़ती थी। उसकी
पीठ सड़क की ओर थी; उसका दरवाजा, जिसमें किवाड़ नहीं थे, जंगल की ओर था।
बरसात के दिनों में हलवाहे पेड़ों के नीचे से हटकर इस कोठरी में जुआ खेलते,
बाक़ी दिनों वह खाली पड़ी रहती। जब वह खाली रहती, तब भी लोग उसे खाली नहीं
रहने देते थे और नर-नारीगण मौक़ा देखकर उसका मनपसन्द इस्तेमाल करते थे।
शिवपालगंज में इस कोठरी के लिए जो नाम दिया गया था, वह हेनरी मिलर को भी
चौंका देने के लिए काफ़ी था। उसमें ठण्डा पानी मिलाकर कॉलिज के एक मास्टर ने
उसका नाम प्रेम-भवन रख दिया था। घूरों और प्रेम-भवन के बीच पड़नेवाले सड़क के
इस हिस्से को शिवपालगंज का किनारा-भर मिलता था। ठेठ शिवपालगंज दूसरी ओर सड़क
छोड़कर था। असली शिवपालगंज वैद्यजी की बैठक में था।
बैठक तक पहुँचने के लिए गलियारे में उतरना पड़ता था। उसके दोनों किनारों पर
छप्पर के बेतरतीब ऊबड़-खाबड़ मकान थे। उनके बाहरी चबूतरे बढ़ा लिये गए थे और
वे गलियारे पर हावी थे। उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा
के आस-पास जहाँ भी खाली जमीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ जमीन घेर लेनी
चाहिए।
अचानक यह गलियारा एक मैदान में खो जाता था। उसमें नीम के तीन-चार पेड़ लगे
थे। जिस तरह वे पनप रहे थे, उससे साबित होता था कि वे वन-महोत्सबों के पहले
लगाए गए हैं, वे किसी नेता या अफ़सर के छूने से बच गए हैं और उन्हें
वृक्षारोपण और कैमरा-क्लिकन की रस्मों से बख्श दिया गया है।
इस हरे-भरे इलाके में एक मकान ने मैदान की एक पूरी-की-पूरी दिशा को कुछ इस
तरह घेर लिया था कि उधर से आगे जाना मुश्किल था। मकान वैद्यजी का था। उसका
अगला हिस्सा पक्का और देहाती हिसाब से काफ़ी रोवदार था, पीछे की तरफ़ दीवारें
कच्ची थीं और उसके पीछे, शुवहा होता था, घूरे पड़े होंगे। झिलमिलाते हवाई
अड्डों और लकलकाते होटलों की मार्फत जैसा 'सिम्बालिक माडर्नाइजेशन' इस देश
में हो रहा है, उसका असर इस मकान की वास्तुकला में भी उतर आया था और उससे
सावित होता था कि दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक काम करनेवाली देसी बुद्धि सब
जगह एक-सी है।
मकान का अगला हिस्सा, जिसमें चबूतरा, बरामदा और एक बड़ा कमरा था, बैठक के नाम
से मशहूर था। ईंट-गारा ढोनेवाला मजदूर भी जानता था कि बैठक का मतलब ईंट और
गारे की बनी हुई इमारत-भर नहीं है। नं. 10 डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस,
क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं, ताकतों के नाम हैं।
थाने से लौटकर रुप्पन बाबू ने दरबारे-आम, यानी बरामदे में भीड़ लगी देखी;
उनके क़दम तेज हो गए, धोती फड़फड़ाने लगी। बैठक में आते ही उन्हें पता चला कि
उनके ममेरे भाई रंगनाथ शहर से ट्रक पर आए हैं; रास्ते में ड्राइवर ने उनसे दो
रुपये ऐंठ लिये हैं।
एक दुबला-पतला आदमी गन्दी बनियान और धारीदार अण्डरवियर पहने बैठा था। नवम्बर
का महीना था और शाम को काफ़ी ठण्डक हो चली थी, पर वह बनियान में काफ़ी खुश
नजर आ रहा था। उसका नाम मंगल था, पर लोग उसे सनीचर कहते थे। उसके बाल पकने
लगे थे और आगे के दाँत गिर गए थे। उसका पेशा वैद्यजी की बैठक पर बैठे रहना
था। वह ज्यादातर अण्डरवियर ही पहनता था। उसे आज बनियान पहने हुए देखकर रुप्पन
बाबू समझ गए कि सनीचर 'फ़ार्मल' होना चाहता है। उसने रुप्पन वाबू को एक साँस
में रंगनाथ की मुसीबत बता दी और अपनी नंगी जाँघों पर तबले के कुछ मुश्किल बोल
निकालते हुए ललककर कहा, “बद्री भैया होते तो मजा आता।"
रुप्पन वाबू रंगनाथ से छूटते ही बोले, “तुमने अच्छा ही किया रंगनाथ दादा। दो
रुपिया देकर झगड़ा साफ़ किया। जरा-जरा-सी बात पर खून-खराबा करना ठीक नहीं।"
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