गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँराजेन्द्र कुमार धवन
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बच्चों के लिए प्रेरक कहानियाँ जिनकी शिक्षा समय के परे है।
प्राक्कथन
बालक हो, युवा हो अथवा वृद्ध हो, सबकी कहानियाँ सुनने में स्वाभाविक रुचि
रहती है। समाज के उत्थान और पतन में कहानियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती
हैं। सन्तों के मुख से निःसृत कहानियाँ जहाँ समाज में अमृत
(सद्गुण-सदाचार)—की गंगा बहाती हैं, वहीं सांसारिक उपन्यास, सिनेमा,
टेलीविजन आदि के द्वारा प्रसारित कहानियाँ समाज में विष
(दुर्गुण-दुराचार)—की सरिता बहाती हैं। बालक की प्रथम गुरु माँ भी
कहानियों के माध्यम से ही उसके कोमल हृदय में अच्छे संस्कार जाग्रत
करती है, जो उसके भावी जीवन को उन्नत बनाने में सहायक होते हैं।
पारमार्थिक विषय को सरलता से समझने में भी कहानियाँ बहुत सहायक होती हैं। पौराणिक कहानियाँ (कथाओं)-का भी यही तात्पर्य है कि पारमार्थिक विषय सरलता से समझ में आ जाय। कठिन-से–कठिन परमार्थिक बातों को भी कहानियों के सहारे सुगमतापूर्वक समझकर जीवन में उतारा जा सकता है। कहानियों के द्वारा मित्र सम्मित अथवा कान्तासम्मित उपदेश होता है। जो मनुष्य को स्वभावतः प्रिय होता है। इसलिए परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज अपने प्रवचनों में मार्मिक विषय को समझाने के उद्देश्य से अनेक कहानियाँ कहा करते हैं, जो आबालवृद्ध सभी श्रोताओं के हृदय पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। उनमें से बत्तीस कहानियों का संकलन पहले ‘आदर्श कहानियाँ’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। अब तीस कहानियों का संकलन प्रस्तुत पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, पाठकगण इन रोचक एवं ज्ञानप्रद कहानियों को पसन्द करेंगे और इनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करेंगे।
पारमार्थिक विषय को सरलता से समझने में भी कहानियाँ बहुत सहायक होती हैं। पौराणिक कहानियाँ (कथाओं)-का भी यही तात्पर्य है कि पारमार्थिक विषय सरलता से समझ में आ जाय। कठिन-से–कठिन परमार्थिक बातों को भी कहानियों के सहारे सुगमतापूर्वक समझकर जीवन में उतारा जा सकता है। कहानियों के द्वारा मित्र सम्मित अथवा कान्तासम्मित उपदेश होता है। जो मनुष्य को स्वभावतः प्रिय होता है। इसलिए परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज अपने प्रवचनों में मार्मिक विषय को समझाने के उद्देश्य से अनेक कहानियाँ कहा करते हैं, जो आबालवृद्ध सभी श्रोताओं के हृदय पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। उनमें से बत्तीस कहानियों का संकलन पहले ‘आदर्श कहानियाँ’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। अब तीस कहानियों का संकलन प्रस्तुत पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, पाठकगण इन रोचक एवं ज्ञानप्रद कहानियों को पसन्द करेंगे और इनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करेंगे।
विनीत
राजेन्द्रकुमार धवन
राजेन्द्रकुमार धवन
1.
बुद्धिमान बंजारा
एक बनजारा था। वह बैलों पर मेट (मुल्तानी मिट्टी) लादकर दिल्ली की तरफ आ
रहा था। रास्ते में कई गाँवों से गुजरते समय उसकी बहुत-सी मेट बिक गयी।
बैलों की पीठ पर लदे बोरे आधे तो खाली हो गये और आधे भरे रह गये। अब वे
बैलों की पीठ पर टिकें कैसे ? क्योंकि भार एक तरफ हो गया ! नौकरों ने पूछा
कि क्या करें ? बनजारा बोला—‘अरे ! सोचते क्या हो,
बोरों के
एक तरफ रेत (बालू) भर लो। यह राजस्थानी जमीन है, यहाँ रेत बहुत
है।’
नौकरों ने वैसा ही किया। बैलों की पीठ पर एक तरफ आधे बोरे में मेट हो गयी
और दूसरी तरफ आधे बोरे में रेत हो गयी।
दिल्ली से एक सज्जन उधर आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में से एक तरफ झरते हुए देखी तो बोले कि बोरों में एक तरफ रेत क्यों भरी है ? नौकरों ने कहा—‘सन्तुलन करने के लिये।’ वे सज्जन बोले—‘अरे ! यह तुम क्या मूर्खता करते हो ? तुम्हारा मालिक और तुम एक से ही हो। बैलों पर मुफ्त में ही भार ढोकर उनको मार रहे है ! मेट के आधे-आधे दो बोरों को एक ही जगह बाँध दो तो कम-से-कम आधे बैल तो बिना भार के खुले चलेंगे।’ नौकरों ने कहा कि आपकी बात तो ठीक जँचती है, पर हम वही करेंगे, जो हमारा मालिक कहेगा। आप जाकर हमारे मालिक से यह बात कहो और उनसे हमें हुक्म दिलवाओ। वह मालिक (बनजारे)—से मिला और उससे बात कही। बनजारे ने पूछा कि आप कहाँ के हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? उसने कहा कि मैं भिवानी का रहने वाला हूँ रुपये कमाने के लिये दिल्ली गया था। कुछ दिन वहाँ रहा, फिर बीमार हो गया। जो थोड़े रुपये कमाये थे, वे खर्च हो गये। व्यापार में घाटा लग गया। पास में कुछ रहा नहीं तो विचार किया कि घर चलना चाहिये। उसकी बात सुनकर बनजारा नौकरों से बोला कि इनकी सम्मति मत लो। अपने जैसे चलते हैं, वैसे ही चलो। इनकी बुद्धि तो अच्छी दीखती है, पर उसका नतीजा ठीक नहीं निकलता तो ये धनवान हो जाते। हमारी बुद्धि भले ही ठीक न दिखे, पर उसका नतीजा ठीक होता है। मैंने कभी अपने काम में घाटा नहीं खाया।
बनजारा अपने बैलों को लेकर दिल्ली पहुँचा। वहाँ उसने जमीन खरीदकर मेट और रेत दोनों का अलग-अलग ढेर लगा दिया और नौकरों से कहा कि बैलों को जंगल में ले जाओ और जहाँ चारा-पानी हो, वहाँ उनको रखो। यहाँ उनको चारा खिलायेंगे तो नफा कैसे कमायेंगे ? मेट बिकनी शुरु हो गयी। उधर दिल्ली का बादशाह हो गया। वैद्य ने सलाह दी कि अगर बादशाह राजस्थान के धोरे (रेत के टीले)—पर रहें तो उनका शरीर ठीक हो सकता है। रेत में शरीर को नीरोग करने की शक्ति होती है। अतः बादशाह को राजस्थान भेजो।
‘राजस्थान क्यों भेजें ? वहाँ की रेत यहीं मँगा लो !’
‘ठीक बात है। रोत लाने के लिये ऊँट को भेजो।’
‘ऊँच क्यों भेजें ? यहीं बाजार में रेत मिल जायगी।’
‘बाजर में कैसे मिल जायगी ?’
‘अरे ! दिल्ली का बाजार है, यहाँ सब कुछ मिलता है ! मैंने एक जगह रेत का ढेर लगा हुआ देखा है।’
‘अच्छा ! तो फिर जल्दी रेत मँगवा लो।’
बादशाह के आदमी बंजारे के पास गये और उससे पूछा कि रेत क्या भाव है ? बनजारा बोला कि चाहे मेट खरीदो, चाहे रेत खरीदो, एक ही भाव है। दोनों बैलों पर बराबर तुलकर आये हैं। बादशाह के आदमियों ने वह सारी रेत खरीद ली। अगर बनजारा दिल्ली से आये उस सज्जन की बात मानता तो ये मुफ्त के रुपये कैसे मिलते ? इससे सिद्ध हुआ कि बनजारे की बुद्धि ठीक काम करती थी।
इस कहानी से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जिन्होंने अपनी वास्तविक उन्नति कर ली है जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको तत्त्व का अनुभव हो चुका है, जिन्होंने दुःख, सन्ताप, अशान्ति आदि को मिटा दिया है, ऐसे सन्त-महात्माओं की बात मान लेनी चाहिये; क्योंकि उनकी बुद्धि का नतीजा अच्छा हुआ है। जैसे, किसी ने व्यापार में बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेंगे तो हमें भी लाभ होगा। उनको लाभ हुआ है तो हमें भी लाभ क्यों नहीं होगा ? ऐसे ही हम सन्त-महात्माओं की बात मानेंगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा। उनकी बात समझ में न आये तो भी मान लेनी चाहिये। हमने आजतक अपनी समझ से काम किया तो कितना लाभ लिया है ? अपनी बुद्धि से अब तक हमने कितनी उन्नति की है ?
दिल्ली से एक सज्जन उधर आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में से एक तरफ झरते हुए देखी तो बोले कि बोरों में एक तरफ रेत क्यों भरी है ? नौकरों ने कहा—‘सन्तुलन करने के लिये।’ वे सज्जन बोले—‘अरे ! यह तुम क्या मूर्खता करते हो ? तुम्हारा मालिक और तुम एक से ही हो। बैलों पर मुफ्त में ही भार ढोकर उनको मार रहे है ! मेट के आधे-आधे दो बोरों को एक ही जगह बाँध दो तो कम-से-कम आधे बैल तो बिना भार के खुले चलेंगे।’ नौकरों ने कहा कि आपकी बात तो ठीक जँचती है, पर हम वही करेंगे, जो हमारा मालिक कहेगा। आप जाकर हमारे मालिक से यह बात कहो और उनसे हमें हुक्म दिलवाओ। वह मालिक (बनजारे)—से मिला और उससे बात कही। बनजारे ने पूछा कि आप कहाँ के हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? उसने कहा कि मैं भिवानी का रहने वाला हूँ रुपये कमाने के लिये दिल्ली गया था। कुछ दिन वहाँ रहा, फिर बीमार हो गया। जो थोड़े रुपये कमाये थे, वे खर्च हो गये। व्यापार में घाटा लग गया। पास में कुछ रहा नहीं तो विचार किया कि घर चलना चाहिये। उसकी बात सुनकर बनजारा नौकरों से बोला कि इनकी सम्मति मत लो। अपने जैसे चलते हैं, वैसे ही चलो। इनकी बुद्धि तो अच्छी दीखती है, पर उसका नतीजा ठीक नहीं निकलता तो ये धनवान हो जाते। हमारी बुद्धि भले ही ठीक न दिखे, पर उसका नतीजा ठीक होता है। मैंने कभी अपने काम में घाटा नहीं खाया।
बनजारा अपने बैलों को लेकर दिल्ली पहुँचा। वहाँ उसने जमीन खरीदकर मेट और रेत दोनों का अलग-अलग ढेर लगा दिया और नौकरों से कहा कि बैलों को जंगल में ले जाओ और जहाँ चारा-पानी हो, वहाँ उनको रखो। यहाँ उनको चारा खिलायेंगे तो नफा कैसे कमायेंगे ? मेट बिकनी शुरु हो गयी। उधर दिल्ली का बादशाह हो गया। वैद्य ने सलाह दी कि अगर बादशाह राजस्थान के धोरे (रेत के टीले)—पर रहें तो उनका शरीर ठीक हो सकता है। रेत में शरीर को नीरोग करने की शक्ति होती है। अतः बादशाह को राजस्थान भेजो।
‘राजस्थान क्यों भेजें ? वहाँ की रेत यहीं मँगा लो !’
‘ठीक बात है। रोत लाने के लिये ऊँट को भेजो।’
‘ऊँच क्यों भेजें ? यहीं बाजार में रेत मिल जायगी।’
‘बाजर में कैसे मिल जायगी ?’
‘अरे ! दिल्ली का बाजार है, यहाँ सब कुछ मिलता है ! मैंने एक जगह रेत का ढेर लगा हुआ देखा है।’
‘अच्छा ! तो फिर जल्दी रेत मँगवा लो।’
बादशाह के आदमी बंजारे के पास गये और उससे पूछा कि रेत क्या भाव है ? बनजारा बोला कि चाहे मेट खरीदो, चाहे रेत खरीदो, एक ही भाव है। दोनों बैलों पर बराबर तुलकर आये हैं। बादशाह के आदमियों ने वह सारी रेत खरीद ली। अगर बनजारा दिल्ली से आये उस सज्जन की बात मानता तो ये मुफ्त के रुपये कैसे मिलते ? इससे सिद्ध हुआ कि बनजारे की बुद्धि ठीक काम करती थी।
इस कहानी से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जिन्होंने अपनी वास्तविक उन्नति कर ली है जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको तत्त्व का अनुभव हो चुका है, जिन्होंने दुःख, सन्ताप, अशान्ति आदि को मिटा दिया है, ऐसे सन्त-महात्माओं की बात मान लेनी चाहिये; क्योंकि उनकी बुद्धि का नतीजा अच्छा हुआ है। जैसे, किसी ने व्यापार में बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेंगे तो हमें भी लाभ होगा। उनको लाभ हुआ है तो हमें भी लाभ क्यों नहीं होगा ? ऐसे ही हम सन्त-महात्माओं की बात मानेंगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा। उनकी बात समझ में न आये तो भी मान लेनी चाहिये। हमने आजतक अपनी समझ से काम किया तो कितना लाभ लिया है ? अपनी बुद्धि से अब तक हमने कितनी उन्नति की है ?
2.ठण्डी रोटी
एक लड़का था। माँ ने उसका विवाह कर दिया। परन्तु वह कुछ समझता नहीं था।
माँ जब भी उसको रोटी परोसती थी, तब वह कहती कि बेटा, ठण्डी रोटी खा लो।
लड़के की समझ में नही आया कि माँ ऐसा क्यों कहती है। फिर भी वह चुप रहा।
एक दिन माँ किसी काम से बाहर गयी तो जाते समय अपनी बहू (उस लड़के
की-स्त्री)—को कह गयी कि जब लड़का आये तो उसको रोटी परोस देना।
रोटी
परोसकर कह देना कि ठण्डी रोटी खा लो। उसने अपने पति से वैसा ही कह दिया तो
वह चिढ़ गया कि माँ तो कहती ही है, यह भी कहना सीख गयी ! वह अपनी स्त्री
से बोला कि बता, रोटी ठण्डी कैसे हुई ? रोटी भी गरम है, दाल-साग भी गरम
है, फिर तू ठण्डी रोटी कैसे कहती है ? वह बोली कि यह तो आपकी माँ जाने।
आपकी माँ ने मेरे को कहा था, इसलिये मैंने कह दिया।
वह बोला कि मैं रोटी नहीं खाऊँगा। माँ तो कहती ही थी, तू भी सीख गयी !
माँ घर आयी तो उसने बहू से पूछा कि क्या लड़के ने भोजन कर लिया ? वह बोली कि उन्होंने तो भोजन किया ही नहीं, उलटा नाराज हो गये ! माँ ने लड़के से पूछा तो वह बोला कि माँ, तू रोजाना कहती थी कि ठण्डी रोटी खा ले और मैं सह लेता था, अब यह भी कहना सीख गयी ! रोटी तो गरम होती है, तू बता कि रोटी ठण्डी कैसे है ? माँ ने पूछा कि ठण्डी रोटी किसको कहते हैं ? वह बोला-सुबह बनायी हुई रोटी शाम को ठण्डी होती है।
वह बोला कि मैं रोटी नहीं खाऊँगा। माँ तो कहती ही थी, तू भी सीख गयी !
माँ घर आयी तो उसने बहू से पूछा कि क्या लड़के ने भोजन कर लिया ? वह बोली कि उन्होंने तो भोजन किया ही नहीं, उलटा नाराज हो गये ! माँ ने लड़के से पूछा तो वह बोला कि माँ, तू रोजाना कहती थी कि ठण्डी रोटी खा ले और मैं सह लेता था, अब यह भी कहना सीख गयी ! रोटी तो गरम होती है, तू बता कि रोटी ठण्डी कैसे है ? माँ ने पूछा कि ठण्डी रोटी किसको कहते हैं ? वह बोला-सुबह बनायी हुई रोटी शाम को ठण्डी होती है।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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