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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सुख-शान्ति का मार्ग

सुख-शान्ति का मार्ग

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 954
आईएसबीएन :81-293-0537-2

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प्रस्तुत है सुख-शान्ति का मार्ग.....

Sukh Shanti Ka Marag a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - सुख-शान्ति का मार्ग - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


नम्र निवेदन


‘सुख शान्ति का मार्ग’- पुस्तक हमारे परमश्रद्धेय नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दारके के कुछ व्यक्तिगत पत्रों का संग्रह है। ये पत्र ‘कामके पत्र’ शीर्षक से समय-समय पर कल्याण में प्रकाशित हुए हैं।

‘कल्याण के माध्यम से श्री भाईजी का परिचय एक सच्चे पथ-प्रदर्शक के रूप में प्राप्त कर जिज्ञासुओं, साधकों, भक्तों आदि के पत्र उनके पास प्रतिदिन आने लगे जिसमें कोई अध्यात्म-साधना का रहस्य जानना चाहता, कोई कर्मकाण्डके किसी अंग विशेष से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त करनेकी इच्छा प्रकट करता, कोई अपने दैनिक व्यवसायसे सम्बन्धित किसी समस्याके विषय में मार्ग-दर्शन माँगता। श्रीभाईजी उन पत्रों को धीरज के साथ पढ़ते और सबका समाधान अधिकतर व्यक्तिगत पत्रोत्तरके रूप में करते तथा कभी-कभी पत्र-लेखक महोदय के नाम-पता न लिखनेपर, किंतु विषय की आवश्यकता का अनुभव कर उसका उत्तर ‘कल्याण’ में प्रकाशित कर देते, जिससे पत्र लेखक महानुभाव तो लाभान्वित होते ही, ‘कल्याण’ के पाठक भी उससे शिक्षा ग्रहण करते।

धीरे-धीरे श्रीभाईजीके जीवन, व्यवहार, लेखनी आदिका  पाठक-पाठिकाओंके हृदय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे अत्यन्त वैयक्तिक तथा पारिवारिक समस्याओं को भी पत्रों के माध्यम से उनके समक्ष रखकर उपयुक्त मार्ग-दर्शनकी अपेक्षा करने लगे। श्रीभाईजीपर उनकी इतनी अगाध श्रद्धा और अखण्ड विश्वास हो गया कि वे अपनी अत्यन्त गोपनीय बातें भी उनके समक्ष रखने में किसी प्रकार का संकोच-सम्भ्रम अनुभव नहीं करते-ऐसी बातें जिन्हें अन्य किसी भी सांसारिक अथवा आध्यात्मिक सम्बन्धी के सामने रखना उनके लिये सम्भव नहीं था। ऐसे पत्रों में चरित्र-विषयक  स्खलन, संदेह, गृह-कलह, ज्ञात-अज्ञात रूप में हुए पापों की स्वीकृति, निराशा, सफलता, ग्लानि आदि से छुटकारा पाने के लिये आत्महत्या की तैयारी का उल्लेख आदि गम्भीर प्रश्न रहते थे। श्रीभाईजी ऐसे पत्रों का बड़ी ही गम्भीरता एवं सावधानी से उत्तर देते थे और उनके पत्रों का जादूका सा-प्रभाव होता था।

श्रीभाईजी के पत्रोंसे हजारों-हजारों व्यक्ति भगवान की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने जीवनके परम लक्ष्य भगवान् या भगवानके प्रेम की प्राप्ति महत्त्व को समझा और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किस प्रकार सुगमता से बढ़ा जा सकता है, इसकी शिक्षा ग्रहण की हजारों-हजारों निराश व्यक्तियों ने आशा, उत्साह, स्फूर्ति, नवीन चेतना आदि प्राप्त की और उत्साहहीनता, निराशा, विनाश के गर्त में गिरकर अपना सर्वस्व नष्ट करने की कुचेष्टा से वे विरत हुए। आपस के मनोमालिन्य को धोकर परस्पर प्रेम की प्रतिष्ठा करने की प्रेरणा कितने परिवारों को, कितने स्वजनों को, कितने मित्रों को प्राप्त हुई है- इसका हिसाब लगाना असम्भव है। मानव-स्वभाव की दुर्बलताओं से घिरे रह कर सन्मार्ग से फिसलते हुए कितने-कितने साधक, गृहस्थ नवयुवक भगवान की सौहार्दमयी पतति-पावनता का परिचय प्राप्त कर पाप-पंकसे निकलकर सत्तगुणकी ओर अग्रसर हुए और उन्नति के शिखरपर पहुँचे हैं।

जीवनकी ऐसी कौन-सी गुत्थी, समस्या, पहेली, उलझन, है, जिसका समाधान जिज्ञासुओं को उनके पत्रोंद्वारा प्राप्त न हुआ हो। इस प्रकार व्यवहार और परमार्थ से सम्बन्ध रखने वाले कितने ही प्रमुख प्रश्नों का, जो प्रत्येक साधक व्यक्तियों के जीवनको झकझोरते रहते हैं और उसे अशान्ति की अग्नि में  जलाते रहते हैं। समाधान शास्त्र तथा निजी अनुभव के आधारपर बड़ी सरल हृदयग्राही भाषामें इन पत्रोंमें हुआ है।

श्रीभाईजीका जीवन वैविध्यपूर्ण था। वे आदर्श पिता थे। आदर्श पुत्र थे, आदर्श पति थे। आदर्श स्नेही थे, आदर्श सुहृद् थे, आदर्श सेवक थे, आदर्श स्वामी थे, आदर्श आत्मीय थे, आदर्श स्नेही थे, आदर्श सुहृद् थे, आदर्श शिष्य थे, आदर्श गुरु थे, आदर्श लेखक थे, आदर्श सम्पादक थे, आदर्श जननेता थे, आदर्श गृहस्थ थे, आदर्श साधक थे, आदर्श सिद्ध थे, आदर्श प्रेमी थे, आदर्श कर्मयोगी थे, आज्ञानी थे। इस प्रकार उन्हें लौकिक एवं पारलौकिक, सभी विषयों का सम्यक-रूप से ज्ञान था, अनुभव था और यही हेतु है कि वे व्यवहार और परमार्थ की जटिल-से-जटिल  समस्याओंका समाधान बड़े ही सुन्दर और मान्य रूप में कर पाते थे।

व्यक्ति के जीवन का प्रभाव सर्वोपरि होता है और वह अमोघ होता है। श्रीभाई जी अध्यात्म–साधनाकी उस परमोच्च स्थिति में पहुंच गये थे, जहाँ पहुँचे हुए व्यक्तिके जीवन, अस्तित्व, उसके श्वास-प्रश्वास, उसके दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषण-यहाँ तक कि उसके शरीर से स्पर्श की हुई वायु से ही जगतका, परमार्थ के पथपर बढ़ते हुए जिज्ञासुओं एवं साधकों का मगंल होता है। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति इन पत्रोंको मननपूर्वक पढ़ेगे, इनमें कही हुई बातोंको अपने जीवन में उतारनेका प्रयत्न करेंगे उनको निश्चय ही इस जीनवमें तथा जीवन के उस पार वास्तविक सुख और शान्ति उपलब्धि होगी।


गोरखपुर

विनीत-
चिम्मनलाल गोस्वामी


सुख-शान्तिका मार्ग
तीन प्रकार के प्रारब्ध



प्रिय महोदय ! सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र यथासमय मिला।  श्री......की धर्मपत्नी की दुखःद मृत्युका समाचार पढ़कर खेद हुआ। यह आत्माहत्या हो या जीवनका करुणाजनक अन्त, थी अनिवार्य मत्यु ही-यही मानकर धैर्य धारण करना चाहिये। आपको कुटुम्बीजनों को तथा आपके वृद्ध माता-पिताको इस घटनासे मार्मिक कष्ट होना स्वाभाविक है; किंतु क्या किया जाय, मनुष्य का इसमें कोई वश नहीं। अपने प्रारब्ध से अथवा भगवान् की इच्छा से जैसा भी सुख-दुःख प्राप्त हो, उसे भगवान का भेजा हुआ उपहार समझकर प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करे-यही मनुष्य का कर्तव्य है। इस बातपर विश्वास नहीं होता; परंतु अनुकूल या प्रतिकूल-जो कुछ भी ईश्वरेच्छासे प्राप्त होता है, वह जीव कल्याण के लिये ही होता है। कल्याणमय प्रभु कभी किसी जीवका अमगंल नहीं करते। उनकी ओरसे जो दण्ड मिलता है, उसमें भी उनकी अपार दया भरी रहती है। वे कर्मों का भोग कराके जीवको विशुद्ध एवं मुक्तिका अधिकारी बनाना चाहते हैं।

इस तरह की मृत्यु को लोकमें ‘अकालमृत्यु’ कहते हैं; परन्तु वास्तव में अकालमृत्यु प्रायः किसी की नहीं होती। प्रत्येक जीव की मृत्यु का समय उसके जन्म के साथ ही नियत हो जाता है। वह समय आनेपर ही मृत्यु होती है। अतः वह ‘कालमृत्यु’ ही है।

सुख-दुख या मत्यु आदि जितने भी भोग हैं, वे सब प्रारब्ध के ही फल हैं। प्रारब्ध भोग भी तीन प्रकार से होता है। अतएव उसके तीन भेद हो जाते हैं। उन भेदों को क्रमशः (1) अनिच्छा, (2) परेच्छा एवं (3) स्वेच्छा प्रारब्ध कहते हैं। जिनको प्राप्त करने की इच्छा न तो अपने मन में रही हो और न दूसरे किसी की ही इच्छा ऐसा करने-कराने को रही हो, वे अनायास दैवयोग से अपने-आप प्राप्त होनेवाले सुख-दुःखादिरूप भोग ‘अनिच्छा प्रारब्ध’ की ही देन हैं, दूसरों की इच्छा से प्राप्त होनेवाले सुख-दुःख ‘परेच्छा’ प्रारब्ध’ के फल हैं। तथा स्वयं इच्छा करके प्रयत्न करनेपर जो सुख-दुख उपलब्ध होते हैं, वे ‘स्वेच्छा प्रारब्ध’ जनित माने गये हैं।

इस धारणाके अनुसार यदि उसके शरीर का यह दाह असावधानी के कारण अथवा बिना जाने हो गया हो तो इसे अकालमृत्यु न कहकर अनिच्छा प्रारब्ध का भोग मानना चाहिये। अपने किये हुए पूर्वसंचित कर्मोंमें से जो कर्म फल देने को उन्मुख होते हैं, उन्हें ‘प्रारब्ध’ नाम दिया गया है। वह प्रारब्ध ही पूर्वोक्त प्रकार से अनिच्छा, परेच्छा और स्वेच्छा से भोगा जाता है।

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