गीता प्रेस, गोरखपुर >> भवरोग की रामबाण दवा भवरोग की रामबाण दवाहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
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प्रस्तुत पुस्तक में भवरोग की रामबाण दवा का उल्लेख किया गया है....
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
नम्र निवेदन
‘कल्याण’ में कुछ वर्ष पूर्व
‘पंचसकार’ शीर्षक से
भाईजी (श्रीयुत हनुमानप्रसाद जी पोद्दार) की दो लेखमालाएँ प्रकाशित हुई
थीं, जिनमें क्रमश: सहिष्णुता, सेवा, सम्मानदान, स्वार्थत्याग, समता,
सत्संग, सदाचार, संतोष, सरलता और सत्य- इन दस गुणों का विस्तृत विवेचन
किया गया था। इस पुस्तक में वे ही दोनों लेखमालाएँ संगृहीत हैं। आयुर्वेद
में पंचसकार नाम का एक प्रसिद्ध नुसखा है, जो पाँच चीजों से तैयार किया
जाता है। उन चीजों के नाम सकारादि होने से नुसखे का नाम पंचसकार रखा गया
है। लेखक ने ‘कल्याण’ में जो आध्यात्मिक नुसखे
प्रकाशित किये
थे, उनमें भी ऐसे गुणों का वर्णन किया गया है, जिनके नाम सकार से प्रारम्भ
होते हैं।
कहना न होगा कि ये सभी गुण ऐसे हैं, जिन्हें धारण करने से मनुष्य थोड़े ही समय में सारे मानसिक रोगों से मुक्त होकर परम स्वस्थ- आत्मकल्याण का अधिकारी बन सकता है। इन गुणों को सभी लोग धारण कर सकते हैं; चाहे वे किसी देश, धर्म, किसी वर्ण, किसी जाति और किसी सम्प्रदाय के क्यों न हों। इस दृष्टि से यह छोटी-सी पुस्तक सबके काम की होगी। जीवन को आदर्श एवं सर्वांगसुन्दर बनाने के लिये इसमें पर्याप्त सामग्री है। मनुष्य चाहे तो केवल इस पुस्तक को आधार एवं पथ प्रदर्शक बनाकर दुस्तर भवसागर को अनायास ही पार कर सकता है। लेखक ने इसमें सभी साधनोंपयोगी गुणों का समावेश कर मानो सागर को गागर में भर दिया है। यह कहना अनावश्यक है कि ये सब-के-सब प्रयोग समस्त धर्मों एवं सभी शास्त्रों को सम्मत होने के साथ-साथ लेखक के द्वारा प्राय: स्वयं अनुभूत हैं। ऐसी दशा में इनकी सफलता के विषय में किसी को संदेह नहीं हो सकता। जो भी चाहें इन्हें काम में लाकर इनकी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। इनके आंशिक उपयोग से ही जीवन में अभूतपूर्व विकास होने लगेगा और जीवन क्रमश: अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता दृष्टिगोचर होगा। पुस्तक की भाषा बड़ी सरल और मार्मिक है। आशा है, लेखक की अन्य पुस्तकों की भाँति इसका भी समुचित आदर होगा और लोग इससे लाभ उठाकर जीवन को उन्नत बनाने की चेष्टा करेंगे।
कहना न होगा कि ये सभी गुण ऐसे हैं, जिन्हें धारण करने से मनुष्य थोड़े ही समय में सारे मानसिक रोगों से मुक्त होकर परम स्वस्थ- आत्मकल्याण का अधिकारी बन सकता है। इन गुणों को सभी लोग धारण कर सकते हैं; चाहे वे किसी देश, धर्म, किसी वर्ण, किसी जाति और किसी सम्प्रदाय के क्यों न हों। इस दृष्टि से यह छोटी-सी पुस्तक सबके काम की होगी। जीवन को आदर्श एवं सर्वांगसुन्दर बनाने के लिये इसमें पर्याप्त सामग्री है। मनुष्य चाहे तो केवल इस पुस्तक को आधार एवं पथ प्रदर्शक बनाकर दुस्तर भवसागर को अनायास ही पार कर सकता है। लेखक ने इसमें सभी साधनोंपयोगी गुणों का समावेश कर मानो सागर को गागर में भर दिया है। यह कहना अनावश्यक है कि ये सब-के-सब प्रयोग समस्त धर्मों एवं सभी शास्त्रों को सम्मत होने के साथ-साथ लेखक के द्वारा प्राय: स्वयं अनुभूत हैं। ऐसी दशा में इनकी सफलता के विषय में किसी को संदेह नहीं हो सकता। जो भी चाहें इन्हें काम में लाकर इनकी उपयोगिता का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। इनके आंशिक उपयोग से ही जीवन में अभूतपूर्व विकास होने लगेगा और जीवन क्रमश: अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता दृष्टिगोचर होगा। पुस्तक की भाषा बड़ी सरल और मार्मिक है। आशा है, लेखक की अन्य पुस्तकों की भाँति इसका भी समुचित आदर होगा और लोग इससे लाभ उठाकर जीवन को उन्नत बनाने की चेष्टा करेंगे।
विनीत
चिम्मनलाल गोस्वामी
(एम.ए., शास्त्री)
चिम्मनलाल गोस्वामी
(एम.ए., शास्त्री)
।।श्रीहरि:।।
भवरोग की रामबाण दवा
प्रथम खण्ड
पंचसकार
(प्रयोग-1)
उदार के समस्त दूषित मल को निकालने के लिये वैद्यलोग एक पंचसकार
चूर्ण का प्रयोग किया करते हैं। जिसके सेवन से उदर निर्विकार हो जाता है,
सारी व्याधियों की जड़ उदरविकार ही है ! जहाँ उदरविकार नष्ट हुआ, वहीं
तमाम रोगों की जड़ कट गयी। इसी प्रकार समस्त भवव्याधिका समूल नाश करने
वाला एक पंचसकार का रामबाण नुसखा है। इसमें भी पाँच चीजें हैं और पाँचों
ही एक-से-एक बढ़कर लाभ देनेवाली हैं। इनमें से किसी एक का अलग सेवन करने
से भी सब विकार नष्ट हो जाते हैं। जो पुरुष पाँचों का सेवन करते हैं, उनके
लिये तो कहना ही क्या है। ये पाँच सकार हैं-सहिष्णुता, सेवा, सम्मानदान,
स्वार्थत्याग और समता।
अब इनमें से एक-एक पर विचार करना है।
अब इनमें से एक-एक पर विचार करना है।
(1)
सहिष्णुता
सहिष्णुता का अर्थ तितिक्षा या सहनशीलता। सहनशीलता के मुख्य चार अंग हैं-
1. द्वन्द्वसहिष्णुता, 2. वेगसहिष्णुता, 3. परोत्कर्षसहिष्णुता और 4.
पर-मतसहिष्णुता। अब इन पर क्रम से कुछ विचार कीजिये।
द्वन्द्वसहिष्णुता
‘सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, शीत-उष्ण आदि
परस्परविरोधी द्वन्द्वों में हर्ष और विषाद न होकर चित्त का सर्वथा
निर्विकार रहना द्वन्द्वसहिष्णुता है। इस द्वन्द्वसहिष्णुता का फल अमृतत्व
या मोक्ष की प्राप्ति है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतव्याय कल्पते।।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतव्याय कल्पते।।
(गीता
2/14-15)
‘अर्जुन ! शीत-उष्ण और सुख-दु:ख देनेवाले ये इन्द्रिय और विषयों
के
संयोग क्षणभंगुर और अनित्य हैं। भारत ! तू इनको सहन कर। पुरुषश्रेष्ठ !
सुख-दु:ख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये द्वन्द्व व्याकुल नहीं
कर सकते, वह मोक्ष-प्राप्ति के योग्य हो जाता है।’
अब यह प्रश्न होता है कि यह द्वन्द्वसहिष्णुता प्राप्त कैसे हो ? इसका पहला साधन तो यह विचार है कि सांसारिक हानि-लाभ, सुख-दुख जो कुछ भी होता है, सब हमारे पूर्वकृत कर्म का फल है और कर्मफल भोग करना ही पड़ता है। संचित और क्रियमाणका तो नाश भी हो जाता है; परन्तु प्रारब्ध का नाश स्वरूप से नहीं हो सकता। अवश्य ही ज्ञानी पुरुष में कर्ता और भोक्तापन का अहंकार न होने से प्रारब्ध कर्म के अनुसार फल होने पर भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथापि स्वरूप से प्रारब्ध का नाश प्राय: नहीं होता। नियन्ता भगवान् के द्वारा फल देने के लिये नियत किये हुए कर्मों का फल, जिनसे जन्म हुआ है, मृत्युकाल तक विधिवत् भोग करना ही पड़ेगा। प्रारब्धभोग से हमारे कर्म क्षय होते हैं और जितना ही कर्मों का जंजाल कटता है, उतना ही हम परमात्मा के समीप पहुँचते हैं। कम-से-कम कर्मों का फल एक बड़ा भारी ऋण सिर से उतर ही जाता है। अतएव इनको आनन्दपूर्वक सहन करना चाहिये।
एक बात यह याद रखने की है कि सुख की प्राप्ति में हर्ष होना और दु:ख में विषाद से जलना- दोनों ही असहिष्णुता मूलक सुख को ही आनन्द मानते हैं, परन्तु यह उनकी भूल है। तत्त्वज्ञ पुरुषों ने असहिष्णुतामूलक सुख और दु:ख दोनों को ही परिणाम में दु:खरूप होने से दु:ख ही बतलाया है, अतएव सुख-दु:ख दोनों में ही सहिष्णुता होना चाहिये। दोनों में ही विकारहीन स्थिति होनी चाहिये।
अब यह प्रश्न होता है कि यह द्वन्द्वसहिष्णुता प्राप्त कैसे हो ? इसका पहला साधन तो यह विचार है कि सांसारिक हानि-लाभ, सुख-दुख जो कुछ भी होता है, सब हमारे पूर्वकृत कर्म का फल है और कर्मफल भोग करना ही पड़ता है। संचित और क्रियमाणका तो नाश भी हो जाता है; परन्तु प्रारब्ध का नाश स्वरूप से नहीं हो सकता। अवश्य ही ज्ञानी पुरुष में कर्ता और भोक्तापन का अहंकार न होने से प्रारब्ध कर्म के अनुसार फल होने पर भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथापि स्वरूप से प्रारब्ध का नाश प्राय: नहीं होता। नियन्ता भगवान् के द्वारा फल देने के लिये नियत किये हुए कर्मों का फल, जिनसे जन्म हुआ है, मृत्युकाल तक विधिवत् भोग करना ही पड़ेगा। प्रारब्धभोग से हमारे कर्म क्षय होते हैं और जितना ही कर्मों का जंजाल कटता है, उतना ही हम परमात्मा के समीप पहुँचते हैं। कम-से-कम कर्मों का फल एक बड़ा भारी ऋण सिर से उतर ही जाता है। अतएव इनको आनन्दपूर्वक सहन करना चाहिये।
एक बात यह याद रखने की है कि सुख की प्राप्ति में हर्ष होना और दु:ख में विषाद से जलना- दोनों ही असहिष्णुता मूलक सुख को ही आनन्द मानते हैं, परन्तु यह उनकी भूल है। तत्त्वज्ञ पुरुषों ने असहिष्णुतामूलक सुख और दु:ख दोनों को ही परिणाम में दु:खरूप होने से दु:ख ही बतलाया है, अतएव सुख-दु:ख दोनों में ही सहिष्णुता होना चाहिये। दोनों में ही विकारहीन स्थिति होनी चाहिये।
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