भाषा एवं साहित्य >> बालाबोधिनी बालाबोधिनीवसुधा डालमिया
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। खड़ी बोली हिंदी को साहित्य के माध्यम के रूप में प्रसारित-प्रचारित करने तथा रचनात्मक स्टार पर इस्तेमाल करने के लिए, साथ ही, अपने समय की बहुसंक्य प्रतिभाओं को अपने विराट मित्रमंडली में शामिल और प्रोत्साहित करने के लिए भी, उन्हें याद किया जाता है।
सुविदित है कि 1870 के दशक में उनकी प्रकाशन गतिविधियाँ बहुत तेजी से बढ़ी और वे उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में केंद्रीय महत्त वाली एक शख्सियत के रूप में उभरे। उनकी दो साहित्यिक पत्रिकाएं-कविवचनसुधा (1868-85) और हरिश्चंद्र मैगज़ीन, जिसका नाम बाद में हरिश्चंद्र चन्द्रिका (1873-85) कर दिया गया-उनके जीवनकाल में ही प्रसिद्धि हासिल कर चुकी थीं।
इनके साथ-साथ 1874 से 1877 तक उन्होंने महिलाओं की पत्रिका बालाबोधिनी भी सम्पादित की थी, जिसका हिंदी की पहली स्त्री-पत्रिका होने के नाते साहित्यिक इतिहास में विशिष्ट महत्त है। पर यह एक विडंबना है कि भारतेंदु की सभी जीवनियों में अनिवार्य और सम्मानजनक नामोल्लेख के बावजूद इस पत्रिका की सामग्री, अंतर्वस्तु या ढब-ढांचे को लेकर वहां, या अन्यत्र भी, कोई विवेचन नहीं मिलाता और न ही इसकी प्रतियाँ कहीं सुलभ हैं।
विभिन स्रोतों से इकठ्ठा किए गए बालाबोधिनी के अंको को पुस्तकाकार रूप में हिंदी जगत के सामने लाना इसलिए महत्तपूर्ण है। यह संतोष की बात है कि अब भारतेंदु पर या हिंदी प्रदेश में स्त्री-प्रश्न पर काम करने वालों के सामने इस प्रथम स्त्री-मासिक का नामोल्लेख भर करने की मजबूरी नहीं रहेगी।
सुविदित है कि 1870 के दशक में उनकी प्रकाशन गतिविधियाँ बहुत तेजी से बढ़ी और वे उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में केंद्रीय महत्त वाली एक शख्सियत के रूप में उभरे। उनकी दो साहित्यिक पत्रिकाएं-कविवचनसुधा (1868-85) और हरिश्चंद्र मैगज़ीन, जिसका नाम बाद में हरिश्चंद्र चन्द्रिका (1873-85) कर दिया गया-उनके जीवनकाल में ही प्रसिद्धि हासिल कर चुकी थीं।
इनके साथ-साथ 1874 से 1877 तक उन्होंने महिलाओं की पत्रिका बालाबोधिनी भी सम्पादित की थी, जिसका हिंदी की पहली स्त्री-पत्रिका होने के नाते साहित्यिक इतिहास में विशिष्ट महत्त है। पर यह एक विडंबना है कि भारतेंदु की सभी जीवनियों में अनिवार्य और सम्मानजनक नामोल्लेख के बावजूद इस पत्रिका की सामग्री, अंतर्वस्तु या ढब-ढांचे को लेकर वहां, या अन्यत्र भी, कोई विवेचन नहीं मिलाता और न ही इसकी प्रतियाँ कहीं सुलभ हैं।
विभिन स्रोतों से इकठ्ठा किए गए बालाबोधिनी के अंको को पुस्तकाकार रूप में हिंदी जगत के सामने लाना इसलिए महत्तपूर्ण है। यह संतोष की बात है कि अब भारतेंदु पर या हिंदी प्रदेश में स्त्री-प्रश्न पर काम करने वालों के सामने इस प्रथम स्त्री-मासिक का नामोल्लेख भर करने की मजबूरी नहीं रहेगी।
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