गीता प्रेस, गोरखपुर >> शरणागतिरहस्य शरणागतिरहस्यमथुरानाथ शास्त्री
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हम जब तक अपने अंहकार में विश्वास रखते हैं, तब तक हमें अपनी क्षुद्रता लगातार व्यथित करती है। पर एक बार जब हम इस पंचतत्त्व शरीर और त्रिगुणातीत मन, बुद्धि को छोड़कर भगवान की शरणागति में जाते हैं, तब हमें ऐसे रहस्य उद्घाटित होते हैं जिनका रोमाञ्च कुछ विशेष ही होता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रारम्भिक निवेदन
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्।।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्।।
महर्षि वाल्मीकि का सरस्वती नि:स्यन्द रसिक और भावुक दोनों समाजों के लिये
वन्दनीय है। आपने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रकी चरित-कथा को
नाना रसों से रोचक बनाकर रसिक समाज को जिस तरह रसाप्लावित किया है, उसी
तरह भगवद्भक्ति की भागीरथी प्रवाहित करके भावुक भक्तों के हृदयों को भी
द्रवित किया है।
किन्तु बहुतों को कहते हुए सुना है कि श्रीमद्रामायण आदिकाव्य चाहे हो सकता है, उसमें करुण रस अंगी भी हो सकता है, परन्तु भक्ति का साम्प्रदायिक तत्त्व जैसा अन्यान्य ग्रंथों में मिलता है वैसा वाल्मीकि रामायण में नहीं है।
यही उक्ति रामायण के मार्मिकों की नहीं हो सकती। दूसरी बातों को तो जाने दीजिये, रामायणवर्णित विभीषण-शरणागति को भला कौन नहीं जानता ? जहाँ भक्तकारुण्य से विद्रुत होकर शत्रु के सहोदर भ्राता तक को भगवान् स्वीकार करते हैं वहाँ भक्ति और भक्तवात्सल्य खोजना होगा ?
स्वीकार करना भी कैसे मौके पर ? जब कि त्रैलोक्यकम्पन रावण सरीखे दुर्जेय शत्रु से प्रत्यक्ष मुकाबला हो रहा है और प्रायःसभी सचिव विभीषण के अंगीकार को अस्वीकार करते हैं।
‘शरणागति’ को भक्ति का प्रधान द्वार ही नहीं, सर्वस्व समझिये। इसके छ: अंगों में भक्ति का सब कुछ आ जाता है। भगवान् वाल्मीकि ने अपनी सुसम्पन्न तथा गम्भीर वाणी में शरणागति का सब रहस्य सूचित कर दिया है। किन्तु व्यंग्य होने के कारण वह मार्मिकों की बुद्धि में ही आने लायक है।
किन्तु बहुतों को कहते हुए सुना है कि श्रीमद्रामायण आदिकाव्य चाहे हो सकता है, उसमें करुण रस अंगी भी हो सकता है, परन्तु भक्ति का साम्प्रदायिक तत्त्व जैसा अन्यान्य ग्रंथों में मिलता है वैसा वाल्मीकि रामायण में नहीं है।
यही उक्ति रामायण के मार्मिकों की नहीं हो सकती। दूसरी बातों को तो जाने दीजिये, रामायणवर्णित विभीषण-शरणागति को भला कौन नहीं जानता ? जहाँ भक्तकारुण्य से विद्रुत होकर शत्रु के सहोदर भ्राता तक को भगवान् स्वीकार करते हैं वहाँ भक्ति और भक्तवात्सल्य खोजना होगा ?
स्वीकार करना भी कैसे मौके पर ? जब कि त्रैलोक्यकम्पन रावण सरीखे दुर्जेय शत्रु से प्रत्यक्ष मुकाबला हो रहा है और प्रायःसभी सचिव विभीषण के अंगीकार को अस्वीकार करते हैं।
‘शरणागति’ को भक्ति का प्रधान द्वार ही नहीं, सर्वस्व समझिये। इसके छ: अंगों में भक्ति का सब कुछ आ जाता है। भगवान् वाल्मीकि ने अपनी सुसम्पन्न तथा गम्भीर वाणी में शरणागति का सब रहस्य सूचित कर दिया है। किन्तु व्यंग्य होने के कारण वह मार्मिकों की बुद्धि में ही आने लायक है।
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