कविता संग्रह >> बिना नींव का रंगमहल बिना नींव का रंगमहलसुधाकर आशावादी
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
व्यक्ति स्वयं ही कल्पनाएं बुनकर मकड़ी सरीखा फँसकर रह जाता है। कमजोर धागे का एक-एक रेशा उसे अपने मकड़जाल में ऐसे फँसाता है कि एकबारगी वह उसमें छटपटाने लगता है। ऐसा नहीं है कि वह उस जाल से निकल नहीं सकता, उसे स्वयं अपने ही बुने जाल में घूमते रहने में जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसकी अभिव्यक्ति को भी वह स्वयं तक सीमित रखना चाहता है। यही मेरे साथ भी था।
सुबह से छवि का चित्त मेरे मानस पटल पर अपना आधिपत्य जमाए था और मैं उसे प्रसन्नतापूर्वक ढो रहा था, वह इस समय मेरे अकेलेपन की संगिनी जो ठहरी।
मुझे स्मरण हो रहा था कि छवि के चैंबर में मेरे लिए स्पेशल चाय मँगाई गई थी। कक्का, जो छवि का विश्वासपात्र रसोइया था, मेरी उपस्थिति का भान होते ही बिना आदेश दिए ही चाय सजाकर ले आता था। कई बार छवि ने विचित्र मुद्रा में उसकी ओर देखकर कहा भी, ‘‘कक्का...। जब मैं किसी अतिथि के लिए चाय बनाने के लिए कहती हूँ, तब तुम तत्परता नहीं दिखाते। चाय की प्रतीक्षा में सुखा देते हो, किंतु जहाँ तुमने डॉक्टर साहब की झलक देखी नहीं कि चंद मिनट में ही चाय प्रस्तुत करते हो, कहीं डॉक्टर साहब ने तुम्हें कोई घूस तो नहीं दे रखी।’’
वह अचकचा जाता, तथापि कहता, ‘‘मैडम..! मुझे पता है कि बिना चाय पिलाए आप डॉक्टर साहब को उठने ही नहीं देती, सो मैं भी शिकायत का अवसर क्यों दूँ ?’’
‘‘कक्का की अचकचाई-सी आवाज सुनकर छवि जोर से खिलखिलाती। मैं भी मुसकराता, फिर छवि कहती, ‘‘डॉक्टर साहब ! तुमने मेरे कर्मचारियों पर कैसा जादू सा कर दिया है, जो।’’
- इसी पुस्तक से
सुबह से छवि का चित्त मेरे मानस पटल पर अपना आधिपत्य जमाए था और मैं उसे प्रसन्नतापूर्वक ढो रहा था, वह इस समय मेरे अकेलेपन की संगिनी जो ठहरी।
मुझे स्मरण हो रहा था कि छवि के चैंबर में मेरे लिए स्पेशल चाय मँगाई गई थी। कक्का, जो छवि का विश्वासपात्र रसोइया था, मेरी उपस्थिति का भान होते ही बिना आदेश दिए ही चाय सजाकर ले आता था। कई बार छवि ने विचित्र मुद्रा में उसकी ओर देखकर कहा भी, ‘‘कक्का...। जब मैं किसी अतिथि के लिए चाय बनाने के लिए कहती हूँ, तब तुम तत्परता नहीं दिखाते। चाय की प्रतीक्षा में सुखा देते हो, किंतु जहाँ तुमने डॉक्टर साहब की झलक देखी नहीं कि चंद मिनट में ही चाय प्रस्तुत करते हो, कहीं डॉक्टर साहब ने तुम्हें कोई घूस तो नहीं दे रखी।’’
वह अचकचा जाता, तथापि कहता, ‘‘मैडम..! मुझे पता है कि बिना चाय पिलाए आप डॉक्टर साहब को उठने ही नहीं देती, सो मैं भी शिकायत का अवसर क्यों दूँ ?’’
‘‘कक्का की अचकचाई-सी आवाज सुनकर छवि जोर से खिलखिलाती। मैं भी मुसकराता, फिर छवि कहती, ‘‘डॉक्टर साहब ! तुमने मेरे कर्मचारियों पर कैसा जादू सा कर दिया है, जो।’’
- इसी पुस्तक से
अपनी बात
जीवन अनुभूति का विषय है और लेखन अनुभूति की अभिव्यक्ति। कहानियाँ जीवन के किसी एक घटनाक्रम की प्रस्तुति हैं, साथ ही व्यक्ति की उन भावनाओं का प्रकटीकरण भी, जो व्यक्ति में संवेदनाएँ बोती हैं।
अपनी अनूभूतियों को शब्दाभिव्यक्ति प्रदान करने की क्षमता शायद प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान नहीं होती। इतिहास साक्षी है कि कुछ विरले ही रचनाधर्मिता के मार्ग पर लंबे समय तक अग्रसर रहते हैं, अन्यथा नून, तेल, लकड़ी के फेर में अनेक उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अपनी विशिष्ट कला की अभिव्यक्ति से वंचित रह जाती हैं।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘‘कागज पर खुशबू’’ में अधिकांश कहानियाँ दैहिक आकर्षण से जनित प्रेम को समर्पित है। भारतीय समाज में जहाँ नैतिकता को सर्वोपरि मानकर विवाह जैसी संस्था का प्रचलन है तथा स्त्री एवं पुरुष के संबंध को सात जनमों का संबंध माना जाता है, वहाँ बाल्यकाल से लेकर प्रौढ़ावस्था तक प्रेम के विविध स्वरूप प्रकाश में आते रहते हैं। जीवन में प्रेम के वैविध्य से जहाँ कभी समर्पण प्रेम का प्रथम एवं अंतिम पराकाष्ठा हैं, वहीं प्रेम में आकर्षण कम होने पर कलह-विछोह-बिखराव भी प्रेम संबंधों का कड़वा सच व्यक्त करने में समर्थ प्रतीत होते हैं। कहीं सच्चा प्रेम है, जो आत्मिक गहराइयों तक हृदय में समाता हुआ चला जाता है, कहीं स्वार्थजनित प्रेम है, जौ दैहिक आकर्षण एवं संकीर्ण स्वार्थ तक ही सीमित है। ऐसे में प्रेम के विविध आयाम समूचे संसार में स्थापित हैं तथा व्यक्ति के जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं।
ऐसी ही कुछ कहानियाँ इस कहानी-संग्रह में संग्रहित की गई हैं। इन कहानियों को लिखते समय मात्र यही भाव मन में रहा कि संबंधित पात्रों की मनोदशा लक्षित हो। देश, काल और परिस्थिति का इस सृजन में भरपूर योगदान रहा है अन्यथा चाहकर भी रचनाओं का सृजन संभव नहीं है, क्योंकि कहानियाँ किसी यांत्रिकता के सहारे नहीं लिखी जा सकतीं, ऐसा मेरा मानना है, फिर भी प्रेम के अथाह सागर की जो अनुभूतियाँ मुझे प्राप्त हो सकीं, वे इस कहानी-संग्रह के माध्यम से प्रस्तुत हैं।
अपनी अनूभूतियों को शब्दाभिव्यक्ति प्रदान करने की क्षमता शायद प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान नहीं होती। इतिहास साक्षी है कि कुछ विरले ही रचनाधर्मिता के मार्ग पर लंबे समय तक अग्रसर रहते हैं, अन्यथा नून, तेल, लकड़ी के फेर में अनेक उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अपनी विशिष्ट कला की अभिव्यक्ति से वंचित रह जाती हैं।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘‘कागज पर खुशबू’’ में अधिकांश कहानियाँ दैहिक आकर्षण से जनित प्रेम को समर्पित है। भारतीय समाज में जहाँ नैतिकता को सर्वोपरि मानकर विवाह जैसी संस्था का प्रचलन है तथा स्त्री एवं पुरुष के संबंध को सात जनमों का संबंध माना जाता है, वहाँ बाल्यकाल से लेकर प्रौढ़ावस्था तक प्रेम के विविध स्वरूप प्रकाश में आते रहते हैं। जीवन में प्रेम के वैविध्य से जहाँ कभी समर्पण प्रेम का प्रथम एवं अंतिम पराकाष्ठा हैं, वहीं प्रेम में आकर्षण कम होने पर कलह-विछोह-बिखराव भी प्रेम संबंधों का कड़वा सच व्यक्त करने में समर्थ प्रतीत होते हैं। कहीं सच्चा प्रेम है, जो आत्मिक गहराइयों तक हृदय में समाता हुआ चला जाता है, कहीं स्वार्थजनित प्रेम है, जौ दैहिक आकर्षण एवं संकीर्ण स्वार्थ तक ही सीमित है। ऐसे में प्रेम के विविध आयाम समूचे संसार में स्थापित हैं तथा व्यक्ति के जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं।
ऐसी ही कुछ कहानियाँ इस कहानी-संग्रह में संग्रहित की गई हैं। इन कहानियों को लिखते समय मात्र यही भाव मन में रहा कि संबंधित पात्रों की मनोदशा लक्षित हो। देश, काल और परिस्थिति का इस सृजन में भरपूर योगदान रहा है अन्यथा चाहकर भी रचनाओं का सृजन संभव नहीं है, क्योंकि कहानियाँ किसी यांत्रिकता के सहारे नहीं लिखी जा सकतीं, ऐसा मेरा मानना है, फिर भी प्रेम के अथाह सागर की जो अनुभूतियाँ मुझे प्राप्त हो सकीं, वे इस कहानी-संग्रह के माध्यम से प्रस्तुत हैं।
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