आलोचना >> अज्ञेय का काव्य अज्ञेय का काव्यप्रणय कृष्ण
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अज्ञेय को बहुधा व्यक्तिवादी या व्यक्तिवादी कहा जाता है ! यह तय है कि अज्ञेय व्यक्तित्व को मूलगामी मानते थे, न कि सामाजिक सम्बन्धों का उत्पाद, व्यक्तित्व को अनन्यता, अद्वितीयता, मौलिकता वगैरह को उन्होंने भारी महत्त्व दिया ! अस्तित्वाद की भी इसमें एक भूमिका थी ! महत्त्व की बात लेकिन यह है कि उनका व्यक्तित्वाद भी प्रबुद्ध बुर्जुआ व्यक्तिवाद ही था जिसमें लोकतंत्र, आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता निहित थी ! सांस्कृतिक व्यक्तित्व होने के नाते ही व्यक्तिगत सम्बन्धों में भारत के बड़े पूँजी घरानों से जुड़ने के बावजूद वे एक अकेलापन भी भोगते हैं ! यह अकेलापन दुतरफा है ! समाज के जिस तबके में उनका जीवन बसर होता है, उसके सम्बन्ध कृत्रिम हैं ! दूसरी और उनकी दृष्टि में व्यापक जनसमाज की ‘भीड़’ और कोलाहल में व्यक्ति की निजता का कोई मोल नहीं !
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