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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 4


मेरे प्रिय,

आज तुम से परिचय हुआ। कितना सुंदर है तुम्हारा व्यक्तित्व। तुम्हारे साथ सचमुच-दुनिया का सौंदर्य ही जुड़ सकता है। किसी छोटी भावना या छोटी बात को तुम्हारे साथ नहीं जोड़ा जा सकता।

तुम एक पायलेट रह चुके हो। उड़ान भरते-भरते एक दिन तुम्हें लगा नहीं-यह वह नहीं जो तुम चाहते हो। यह वह मंजिल नहीं, जिस पर पहुँचने के लिये तुम जन्मे थे। तुम ने अपनी राह पहचान ली और वह रास्ता छोड़ दिया जिसे तुम ने पढ़ाई छोड़कर और माता-पिता से झगड़ कर पकड़ा था। अपनी मर्जी से राह चुनी और अपनी ही मर्जी से छोड़ भी दी।

तुम ने बताया तुम एक मिनिएचरिस्ट भी हो। तुम ने कहा-कि तुम्हारे घर की दीवारे, कुर्सियाँ, मेज तुम्हारे इन मिनिएचरौ से अलंकृत है। तुम कविता भी लिखते हो। अपने देश में छापते भी रहे हो। ओह! मैं तो केवल तुम्हारे बाह्य रूप से ही अभिभूत थी...अब वह सौंदर्य द्विगुणित हो गया। तुम्हारा आत्मिक-सौंदर्य ही शायद तुम्हारे मुख पर प्रतिबिंबित है।

आज मेरी दृष्टि में तुम उतने छोटे नहीं रहे-एक अनुभवी और पूर्ण पुरुष हो गये हो...। मालूम नहीं-अब तक क्यों तुम मुझे उम्र के इतने छोटे लगते थे और मैं स्वयं को इतनी बड़ी...। आज आधा रेगिस्तान कट गया है। हम कम से कम दोस्त हो सकते है...।

जी चाहता है...तुम्हारें इस नये परिचय से सारी ऋतुओं को अलंकृत कर दूँ। सारे सपनों में रंग भर लूँ। सारी कल्पनाओं का सतरंगी बाना बना कर अपने ऊपर ओढ़ लूँ-नाचू...और खूब नाँचू...। आज इस परिचय के बाद मेरी उन्मुक्त और उड़ती हुई भावनाओं को एक ठहराव मिल गया है। अब मैं ठहर कर धीरे-धीरे तुम्हें जान सकती हूँ-सागर के गहरे तल में बैठ नहीं सकती, किनारे बैठकर उसकी शीतलता तो अनुभव कर ही सकती हूँ...।

मुझे लगता है, कहीं मैं तुम्हारें निकट हो गई हूँ...तुम अदृश्य से दृश्य हो गये हो...कहीं पहुँच के निकट, कहीं कल्पना से नीचे धरातल पर-व्यामि पर उड़ते पक्षी की तरह नहीं, आँगन में चहचहाती बुलबुल की तरह-जिसका संगीत पेड़ की ओट में सुना जा सकता है-पिया जा सकता है उस के गले की मिठास को...। लगता है धीरे-धीरे मैं तुम्हें अंतरिक्ष से खींच कर बादलों से तोड़कर अपनी-अपनी धरती पर ले आई हूँ...। क्या सारी दुनिया में...हर आकर्षण की यही अन्विति या उच्चाई होती है...।

हाँ शायद यहीं-होती होगी...। फिर भी चाहती हूँ-इसी व्योम के नीचे उन सुदूर घाटियों से बरसती-रिमझिम की पदचाप-मेरे मानस में नर्तन करती रहे। मेरे कर्ण-कुहरो को इस देवी-संगीत से लबालब करती रहे। प्रकृति की वीणा पर मेरी कल्पना की मिजराब-अपने सप्त-स्वर बिखेरती रहे और मेरी आत्मा को उन्मुत करती रहे।

बस इतना ही चाहती हूँ-प्राण...।

- एक अदृश्य कल्पना

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