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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र संख्या-1


मेरे राज,

जब से तुम्हें देखा लगता है सौन्दर्य की इतिश्री नहीं हुई। उस एक क्षण में मैंने भरपूर बहार जी ली है। जिस तरह ग्रीष्म या शरद की छिटपुट बहारें मन नहीं बहला सकती, उसी तरह पुरुष का आकर्षण मुझे कभी बाँध नहीं सका। सच पूछो तो मुझे पुरुष कभी सुंदर दिखा ही नहीं। ओ मेरे सौन्दर्य देवता! यह तुमने क्या जादू कर दिया कि सारा ब्राह्मण्ड फीका लगने लगा है। जी चाहता है, तुम्हें सामने बिठाकर देखा करूँ...। यों भी तुम्हारा अपरूप-सौंदर्य स्पर्श से परे केवल नेत्रों से पूज्यनीय है।

उस क्षण मुझ में, तुम्हें लेकर कोई अन्यत्र भाव नहीं आया, केवल देवता की मूर्ति के समक्ष आवाक हो जाने का सा भाव उभरा....और क्षत का वह अभिराम रूप केवल पावन अश्रु जलकण से अभिचिंत हो तो किया जा सकता है न।

तुम मंदिर की सीढ़िया उतर रहे थे और मेरे हाथ में पूजा की थाली में रखा हुआ दीपक था...एक दम आमने-सामने क्यो ठिठक गये थे हम...। और उस प्रकाश में तुम्हारा सांध्य-आकाश-सा चेहरा देदेव्यमान क्यो उठा था प्राण।
कैसे कहूँ...मुझे अपने देह के बसन्त लोटते दिखने लगे-क्यों लगने लगा कि मैं अपने बीते वर्षों को पुकार रही हूँ...।
अपनी उम्र के प्रति एक वितृष्णा का भाव उभर आया। बालों में कहीं-कहीं चमकती चाँदनी चुभने लगी। तुम ने तो न जाने मुझे कैसे देखा-लेकिन जब मैंने देखा तो देखती ही रह गई। नयनाभिराम-तुम्हारा सौंदर्य कहीं मेरे अंदर बाहर को आंदोलित कर गया। मैं तुम्हारें लिये-इस क्षण सोच विभोर हो रही हूँ और अश्रुप्लावित भी। जब भी कल्पना में तुम्हारा चित्र बनाती हूँ-मालूम नहीं, कहीं अश्रुयों से सरोबार क्यों हो जाती हूँ...। एक उदासी-सी घेर लेती है मुझे। स्वयं को बाँध- बाँध कर रखना चाहती हूँ-फिर भी मन के घोड़े तुम तक पहुँच ही जाते हैं। तुम्हें कैसे समझाऊँ। मन को बाँध कर तुम्हें समझाना नहीं चाहूँगी तो मेरी भाषा की प्रेषणीयता तुम तक पहुँच नहीं पायेगी और मेरी बात वहीं की वहीं रह जायेगी...।

मेरे लिये तुम मंदिर की सीढ़ी पर खड़े बुत बन गये हो। जब भी मंदिर की कल्पना करूँगी उस सीढ़ी पर माथा अपने आप झुक जायेगा और उन प्रदीप्त किरणों से मेरा अंर्तलोक प्रकाशित हो उठेगा। क्या हो गया है मुझे-यह कल्पनातीत है।

इसे ही कहते होगें-जादू-टोना शायद या वशीभूत हो जाना। मर्यादा से निकल कर स्वच्छ हो जाना। निर्द्वद्व हवा का झोंका हो जाना।

ओह! क्या कह रही हूँ और क्या कर रही हूँ। मैं कभी इतनी असंयमित तो नहीं हुई थी। इस से पहले। बस! मेरे अभिराम चित्र तुम यही जड़वत रहना...मेरे मानस में।

कैसा संयोग है-कैसी विचित्रता है। तुम और वह भी मन्दिर की सीढ़ियों पर...। उस समय तो मैं केवल तुम्हारा रंग-देख कर भौंच्चक हुई थी। लेकिन आज तो मूक और अवाक हूँ...। उसे ही मैं पिछले जन्मों के साथ जोड़ने का लोभ नहीं संवरण कर सकती। उस पर इतनी गहन-गंभीर मेरी आसक्ति...। जैसे दो बिछुडे-हुऔ का पुर्नमिलन। जैसे क्षितिज पर आकाश और धरती का मिलन- तुम्हीं बताओं इसे क्या नाम दूँ।

- एक अनाम पिपासा


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