रहस्य-रोमांच >> हजार हाथ हजार हाथसुरेन्द्र मोहन पाठक
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हजार हाथ
मॉडल टाउन के इलाके में एक सफेद मारुति वैन सड़क से हट कर एक पेड़ के नीचे खड़ी थी। वैन के शीशे काले थे और उस घड़ी चारों बन्द थे। उसकी ड्राइविंग सीट पर एक कोई तीस साल का मामूली शक्ल सूरत वाला दुबला पतला लेकिन मजबूत काठी वाला नौजवान मौजूद था जो कि आंखों पर एक धूप का ऐसा चश्मा लगाये था जो कि चान्दनी चौक में पटड़ी पर पचास रुपये में मिलता था। उसके बाल अभिनेताओं जैसे झब्बेदार थे जो कि उसने बड़े करीने से संवारे हुए थे और उसकी कलमें इतनी लम्बी थीं कि कान की लौ से भी नीचे पहुंची हुई थीं। पोशाक के तौर पर तो एक घिसी हुई काली जीन, गोल गले वाली काली स्कीवी और चमड़े की काली जैकेट पहने था।
उसने गर्दन घुमा कर वैन में पीछे बैठे व्यक्ति की ओर देखा।
पीछे पैसेंजर सीट पर पसरा पड़ा व्यक्ति वैन का पैसेंजर नहीं बल्कि नौजवान का जोड़ीदार था। वो व्यक्ति उम्र में अभी कुल सैंतालीस साल का था लेकिन देखने में पचपन से उपर का लगता था। उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी मूंछ थीं जिनको संवार कर रखने में खुद उसने या उसके हज्जाम ने काफी मेहनत की मालूम होती थी। उसके बालों की काली रंगत तफ्तीश का मुद्दा था कि वो असली थी या किसी उम्दा डाई का कमाल था। उसके नयन नक्श अच्छे थे, रंग पहाड़ के लोगों जैसा गोरा था लेकिन चेहरे पर रौनक नहीं थी। सूरत से वो बहुत टूटा और उज़ड़ा हुआ लगता था लेकिन उसकी आंखों में सदा मौजूद रहने वाला धूर्तता का भाव साफ जाहिर करता था कि अभी उसने जिन्दगी से हार नहीं मानी थी। तो एक सजायाफ्ता मुजरिम था जो कि पांच बार जेल की सजा काट चुका था। जेल की उन सजाओं ने और उसके दो साल पहले के आखिरी विफल अभियान ने उसके कस बल काफी हद तक ढीले कर दिये थे लेकिन तो पैदायशी चोर था जो चोरी से जा सकता था, हेराफेरी से नहीं जा सकता था।
मौजूदा हेराफेरी का माहौल उसके पिछले अभियान के दो साल बाद बना था और उसकी निगाह में सेफ गेम था क्योंकि हालात पूरी तरह से उसके काबू में थे और काबू में रहने वाले थे।
वो एक गर्म पतलून, चार खाने की गर्म कमीज और ट्वीड का कोट पहने था और गले में मफलर लपेटे था। उसके सामने एक दूसरे पर चढ़ी तो बैसाखियां पड़ी थीं जिनका कि वो मोहताज था। तो साल पहले उसकी कई हड्डियां यूं तोड़ी गयीं थी कि यही गनीमत थी कि तो बैसाखियों के सहारे चल सकता था। वैसे तो अब वो बैसाखियों के बिना भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था और थोड़ा चल फिर सकता था लेकिन उसे डाक्टर की हिदायत थी कि वो ऐसा करने से गुरेज ही रखे। कम्पाउन्ड फ्रैंक्चर्स से उबरी उसकी टांगें अभी भी कमजोर थीं और कोई भी उलटा-सीधा झटका लग जाने से फ्रैक्चर फिर हो सकता था।
बैसाखियों का मोहताज होने की वजह से ही वो आगे पैसेंजर सीट पर अपने जोड़ीदार के पहलू में मौजूद होने की जगह वैन की पिछली सीट पर पसरा पड़ा था।
सड़क के पार एक एक मंजिला कोठी थी जिसका नम्बर डी-9 था और उस घड़ी वो ही उनकी निगाहों का मरकज थी, उनकी मंजिल थी।
अपाहिज ने कोठी की ओर का वैन का शीशा आधा सरकाया, सामने उस इमारत की तरफ देखा जिसमें उस घड़ी निस्तब्धता व्याप्त थी। कोठी की पोर्टिको में डीआईए - 7799 नम्बर की एक काली एम्बैसेडर खड़ी थी और बाहर कोठी की दीवार के साथ लग कर एक छियासी मॉडल की डी आई डी - 2448 नम्बर की नीली फियेट खड़ी थी। वे दोनों कारें और कोठी कभी शिव नारायण पिपलोनिया नाम के एक रिटायर्ड, तनहा प्रोफेसर की होती थीं लेकिन अब वो उस शख्स के प्रियजनों के हवाले थीं जिन्हें कि वो किन्हीं मवालियों के हाथों अपनी मौत से पहले अपना वारिस बना कर गया था।
‘‘यही है ?’’ - नौजवान ने निरर्थक-सा प्रश्न किया।
‘‘हां।’’ अपाहिज बोला।
‘‘अब ?’’
‘‘मैं जा के आता हूं।’’
‘‘अकेले जाओगे, उस्ताद जी ?’’
‘‘और क्या फौज ले कर जाऊंगा ! भीतर है कौन ? एक औरत जो कभी मेरे हाथों की कठपुतली थी और उसका दो महीने का दुधमुंहा बच्चा ! अब मैं इतना भी मोहताज नहीं कि अपनी ही फाख्ता को फिर अपने हाथों चुग्गा न चुगा सकूं।’’
‘‘यानी कि मेरे फिक्र करने की कोई बात नहीं !’’
‘‘कोई बात नहीं। फिर भी बरखुरदारी दिखाना चाहता है तो एक काम करना।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘मुझे भीतर बड़ी हद पन्द्रह मिनट लगेंगे। उसके बाद भले ही मेरी खैर खबर लेने तुम भी भीतर पहुंच जाना।’’
‘‘ठीक है।’’
अपाहिज ने शीशा वापिस सरकाया और दरवाजा खोल कर वैन से बाहर कदम रखा। उसने अपनी दोनों बैसाखियां सम्भालीं और उन्हें ठकठकाता कोठी की ओर बढ़ा।
पीछे नौजवान ने हाथ बढ़ा कर वैन का पिछला दरवाजा बन्द किया और फिर स्टियरिंग थपथपाता प्रतीक्षा करने लगा।
अपाहिज ने दोपहर बाद की उस घड़ी सुनसान पड़ी सड़क पार की, कोठी का आयरन गेट ठेल कर भीतर कदम रखा और बरामदे में जा का कालबैल बजायी।
एकाएक बजी कालखैल की प्रतिक्रियास्वरूप पालने में सोया पड़ा नन्हा सूरज एक बार कुनमुनाया और फिर शान्त हो गया।
उसने गर्दन घुमा कर वैन में पीछे बैठे व्यक्ति की ओर देखा।
पीछे पैसेंजर सीट पर पसरा पड़ा व्यक्ति वैन का पैसेंजर नहीं बल्कि नौजवान का जोड़ीदार था। वो व्यक्ति उम्र में अभी कुल सैंतालीस साल का था लेकिन देखने में पचपन से उपर का लगता था। उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी मूंछ थीं जिनको संवार कर रखने में खुद उसने या उसके हज्जाम ने काफी मेहनत की मालूम होती थी। उसके बालों की काली रंगत तफ्तीश का मुद्दा था कि वो असली थी या किसी उम्दा डाई का कमाल था। उसके नयन नक्श अच्छे थे, रंग पहाड़ के लोगों जैसा गोरा था लेकिन चेहरे पर रौनक नहीं थी। सूरत से वो बहुत टूटा और उज़ड़ा हुआ लगता था लेकिन उसकी आंखों में सदा मौजूद रहने वाला धूर्तता का भाव साफ जाहिर करता था कि अभी उसने जिन्दगी से हार नहीं मानी थी। तो एक सजायाफ्ता मुजरिम था जो कि पांच बार जेल की सजा काट चुका था। जेल की उन सजाओं ने और उसके दो साल पहले के आखिरी विफल अभियान ने उसके कस बल काफी हद तक ढीले कर दिये थे लेकिन तो पैदायशी चोर था जो चोरी से जा सकता था, हेराफेरी से नहीं जा सकता था।
मौजूदा हेराफेरी का माहौल उसके पिछले अभियान के दो साल बाद बना था और उसकी निगाह में सेफ गेम था क्योंकि हालात पूरी तरह से उसके काबू में थे और काबू में रहने वाले थे।
वो एक गर्म पतलून, चार खाने की गर्म कमीज और ट्वीड का कोट पहने था और गले में मफलर लपेटे था। उसके सामने एक दूसरे पर चढ़ी तो बैसाखियां पड़ी थीं जिनका कि वो मोहताज था। तो साल पहले उसकी कई हड्डियां यूं तोड़ी गयीं थी कि यही गनीमत थी कि तो बैसाखियों के सहारे चल सकता था। वैसे तो अब वो बैसाखियों के बिना भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था और थोड़ा चल फिर सकता था लेकिन उसे डाक्टर की हिदायत थी कि वो ऐसा करने से गुरेज ही रखे। कम्पाउन्ड फ्रैंक्चर्स से उबरी उसकी टांगें अभी भी कमजोर थीं और कोई भी उलटा-सीधा झटका लग जाने से फ्रैक्चर फिर हो सकता था।
बैसाखियों का मोहताज होने की वजह से ही वो आगे पैसेंजर सीट पर अपने जोड़ीदार के पहलू में मौजूद होने की जगह वैन की पिछली सीट पर पसरा पड़ा था।
सड़क के पार एक एक मंजिला कोठी थी जिसका नम्बर डी-9 था और उस घड़ी वो ही उनकी निगाहों का मरकज थी, उनकी मंजिल थी।
अपाहिज ने कोठी की ओर का वैन का शीशा आधा सरकाया, सामने उस इमारत की तरफ देखा जिसमें उस घड़ी निस्तब्धता व्याप्त थी। कोठी की पोर्टिको में डीआईए - 7799 नम्बर की एक काली एम्बैसेडर खड़ी थी और बाहर कोठी की दीवार के साथ लग कर एक छियासी मॉडल की डी आई डी - 2448 नम्बर की नीली फियेट खड़ी थी। वे दोनों कारें और कोठी कभी शिव नारायण पिपलोनिया नाम के एक रिटायर्ड, तनहा प्रोफेसर की होती थीं लेकिन अब वो उस शख्स के प्रियजनों के हवाले थीं जिन्हें कि वो किन्हीं मवालियों के हाथों अपनी मौत से पहले अपना वारिस बना कर गया था।
‘‘यही है ?’’ - नौजवान ने निरर्थक-सा प्रश्न किया।
‘‘हां।’’ अपाहिज बोला।
‘‘अब ?’’
‘‘मैं जा के आता हूं।’’
‘‘अकेले जाओगे, उस्ताद जी ?’’
‘‘और क्या फौज ले कर जाऊंगा ! भीतर है कौन ? एक औरत जो कभी मेरे हाथों की कठपुतली थी और उसका दो महीने का दुधमुंहा बच्चा ! अब मैं इतना भी मोहताज नहीं कि अपनी ही फाख्ता को फिर अपने हाथों चुग्गा न चुगा सकूं।’’
‘‘यानी कि मेरे फिक्र करने की कोई बात नहीं !’’
‘‘कोई बात नहीं। फिर भी बरखुरदारी दिखाना चाहता है तो एक काम करना।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘मुझे भीतर बड़ी हद पन्द्रह मिनट लगेंगे। उसके बाद भले ही मेरी खैर खबर लेने तुम भी भीतर पहुंच जाना।’’
‘‘ठीक है।’’
अपाहिज ने शीशा वापिस सरकाया और दरवाजा खोल कर वैन से बाहर कदम रखा। उसने अपनी दोनों बैसाखियां सम्भालीं और उन्हें ठकठकाता कोठी की ओर बढ़ा।
पीछे नौजवान ने हाथ बढ़ा कर वैन का पिछला दरवाजा बन्द किया और फिर स्टियरिंग थपथपाता प्रतीक्षा करने लगा।
अपाहिज ने दोपहर बाद की उस घड़ी सुनसान पड़ी सड़क पार की, कोठी का आयरन गेट ठेल कर भीतर कदम रखा और बरामदे में जा का कालबैल बजायी।
एकाएक बजी कालखैल की प्रतिक्रियास्वरूप पालने में सोया पड़ा नन्हा सूरज एक बार कुनमुनाया और फिर शान्त हो गया।
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