गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
भगवान् भास्करकी आराधना का अद्भुत फल
महाराज सत्राजित्का भगवान् भास्करमें स्वाभाविक अनुराग था। उनके नेत्र कमल तो
केवल दिनमें भगवान् सूर्यपर टकटकी लगाये रहते हैं, किंतु सत्राजित् की मनरूपी
आँखें उन्हें दिन-रात निहारा करती थीं। भगवान् सूर्यने भी महाराजको निहाल कर
रखा था। उन्होंने ऐसा राज्य दिया था, जिसे वे अपनी प्यारभरी आँखोंसे दिन-रात
निहारा करते थे। इतना वैभव दे दिया था, जिसे देखकर सबको विस्मय होता था,
स्वयं महाराज भी विस्मित रहते थे।इसी विस्मयने उनमें यह जिज्ञासा जगा दी थी कि 'वह कौन-सा पुण्य है, जिसके कारण यह वैभव उन्हें मिला है। यदि उस पुण्यकर्मका पता लग जाय तो उसका फिरसे अनुष्ठान कर अगले जन्ममें इस वैभवको स्थिर बना लिया जाय।'
उन्होंने ऋषि-मुनियोंकी एक सभा एकत्र की। महारानी विमलवतीने भी इस अवसरसे लाभ उठाना चाहा। उन्होंने महाराजसे कहा-'नाथ! मैं भी जानना चाहती हूँ कि मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है जिससे मैं आपकी पत्नी बन सकी हूं।"
महाराजने सभाको सम्बोधित करते हुए कहा-'पूज्य महर्षियो! मैं और मेरी पत्नी-दोनों यह जानना चाहते हैं कि पूर्वजन्ममें हम दोनों कौन थे? और किस कर्मके अनुष्ठानसे यह वैभव प्राप्त हुआ है? यह रूप और यह कान्ति भी कैसे प्राप्त हुई है?'
महर्षि परावर्तनने ध्यानसे देखकर कहा-'राजन्! पहले जन्ममें आप शूद्र थे और ये महारानी उस समय भी आपकी ही भार्या थीं। उस समय आपका स्वभाव और कर्म दोनों आजसे विपरीत थे। प्रत्येकको पीड़ित करना आपका काम था। किसी प्राणीसे आप स्नेह नहीं कर पाते थे। उत्कट पापसे आपको कोढ़ भी हो गया था। आपके अंग कट-कटकर गिरने लगे थे। उस समय आपकी पत्नी मलयवतीने आपकी बहुत सेवा की। आपके प्रेममें मग्न रहनेके कारण वह भूखी-प्यासी रहकर भी आपकी सेवा किया करती थी। आपके बधु-बान्धवोंने आपको पहलेसे ही छोड़ रखा था; क्योंकि आपका स्वभाव बहुत ही क्रूर था। आपने क्रूरतावश अपनी पत्नीका भी परित्याग कर दिया था, किंतु उस साध्वीने आपका त्याग कभी नहीं किया। वह छायाकी तरह आपके साथ लगी रही। अन्तमें इसी पत्नीके साथ आपने सूर्यमन्दिरकी सफाई आदिका कार्य आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे आप दोनोंने अपनेको सूर्यभगवान्को अर्पित कर दिया।
आप दोनोंके सेवाकार्य उत्तरोत्तर बढ़ते गये। झाड़ू-बुहारू, लीपना-पोतना आदि कार्य करके शेष समय दीनों इतिहास-पुराणके श्रवणमें बिताने लगे। एक दिन आपकी पत्नीने अपने पिताकी दी हुई अँगूठी वस्त्रके साथ कथा-वाचकको दे दी। इस तरह सूर्यकी सेवासे आप दोनोंके पाप जल गये। सेवामें दोनोंको रस मिलने लगा था, अतः दिन-रातका भान ही नहीं होता था।
एक दिन महाराज कुवलाश्व उस मन्दिरमें आये। उनके साथ बहुत बड़ी सेना भी थी। राजाके उस ऐश्वर्यको देखकर आपमें राजा बननेकी इच्छा जाग उठी। यह जानकर भगवान् सूर्यने उससे
भी बड़ा वैभव देकर आपकी इच्छाकी पूर्ति कर दी है। यह तो आपके वैभव प्राप्त करनेका कारण हुआ। अब आपमें जो इतना तेज है और आपकी पत्नीमें जो इतनी कान्ति आ गयी है, इनका रहस्य सुनें। एक बार सूर्य-मन्दिरका दीपक तैल न रहनेसे बुझ गया। तब आपने अपने भोजनके लिये रखे हुए तैलमेंसे दीपकमें तैल डाला और आपकी पत्नीने अपनी साड़ी फाड़कर बत्ती लगा दी थी। इसीसे आपमें इतना तेज और आपकी पत्नीमें इतनी कान्ति आ गयी है।
आपने उस जन्ममें जीवनकी संध्यावेलामें तन्मयताके साथ सूर्यकी आराधना की थी। उसका फल जब इतना महान् है तब जो मनुष्य दिन-रात भक्ति-भावसे दत्तचित्त होकर जीवनपर्यन्त सूर्यकी उपासना करता है, उसके विशाल फलको कौन आंक सकता है?
महाराज सत्राजित्ने पूछा-'भगवान् सूर्यको क्या-क्या प्रिय है? मैं चाहता हूँ कि उनके प्रिय फूलों और पदार्थोंका उपयोग करूँ।' परावसुने कहा-'भगवान्को मृतका दीप बहुत पसंद है। इतिहास-पुराणोंके वाचककी जो पूजा की जाती है, उसे भगवान् सूर्यकी ही पूजा समझो। वेद और वीणाकी ध्वनि भगवान्को उतना पसंद नहीं है, जितनी 'कथा'। फूलोंमें करवीर (कनेर)-का फूल और चन्दनोंमें रक्त चन्दन भगवान् सूर्यको बहुत प्रिय है।' (भविष्यपुराण)
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