लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

106 पाठक हैं

प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

सत्यव्रत भक्त उतथ्य
प्राचीन कालमें कोसलदेशमे उतथ्यका जन्म एक विद्वान् ब्राह्मणके घर हुआ था। उसके पिताका नाम देवदत्त एवं माताका नाम रोहिणी था। उतथ्यके आठवें वर्षमें प्रवेश करते ही पिता देवदत्तने शुभ दिन एवं शुभ योग देखकर उसका यज्ञोपवीत-संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करवाया। समयपर वेदाध्ययनके लिये उतथ्यको गुरुदेवके यहाँ भेजा गया परंतु वह ऐसा मूर्ख था कि एक शब्द भी उच्चारण नहीं कर सकता था। देवदत्तने अपने बालकको कई प्रकारसे पढ़ानेका प्रयत्न किया, परंतु सभी व्यर्थ सिद्ध हुए। उतथ्यकी बुद्धि किसी भी रीतिसे रास्तेपर नहीं आयी।

देवदत्तको पूर्वजन्मकी बात स्मरण हो आयी। उस जन्ममें वे सभी प्रकारसे सम्पन्न थे, परंतु उनके कोई संतान न थी। इस कारण दम्पतिके मनमें बड़ा दुःख था। पुत्र-प्राप्तिके लिये देवदत्तने विधिपूर्वक पुत्रेष्टि-यज्ञका आयोजन किया। सामवेदके गायक मुनिवर गोभिल यज्ञके उद्गाता थे। वे यज्ञमें स्वरित स्वरसे मन्त्रगान कर रहे थे। बार-बार साँस लेनेसे उनके मन्त्रोच्चारणमें कुछ स्वरभंग हो गया। स्वरभंग होते देखकर देवदत्तके मनमें आशंका हो गयी कि कहीं मेरी संतान-प्राप्तिकी मनोऽभिलाषामें बाधा न उत्पन्न हो जाय। इस आशंकाने उनके विवेकको नष्ट कर दिया और वे मुनिवरपर कुपित होकर बोल उठे-'मुनिवर! आप महान् मूर्ख हैं, मेरे इस सकाम यज्ञमें आपने स्वरहीन मन्त्र क्यों उच्चारण किया?' यह सुनकर गोभिल मुनि क्रोधाविष्ट हो गये और बोले-'देवदत्त! तुम्हें शब्दशून्य नितान्त मूर्ख पुत्र प्राप्त होगा। तुमने मुझे अकारण कटु शब्द कहा है। श्वास-प्रश्वास लेते एवं छोड़ते समय यदि स्वरभंग हो जाय तो इसमें मेरा क्या दोष है?' महात्माकी उपर्युक्त बातें सुनकर देवदत्तको बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने सोचा कि वेदहीन मूर्ख पुत्रको लेकर मैं क्या करूँगा। वेदहीन ब्राह्मण शूद्रके समान होता है।

देवदत्त यह भी जानते थे कि वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदपाठ करते हैं, उसके पूर्वज स्वर्गमें रहकर अत्यन्त आनन्दके साथ क्रीडा करते हैं। मूर्ख ब्राह्मण सभी कर्मकाण्डोंके सम्पादनमें अनधिकारी होता है। यह सब सोच-सोचकर देवदत्त गोभिलजीके चरणोंमें पड़कर क्षमा-याचना करने लगे। देवदत्त बोले-'मुनिवर! मुझे क्षमा करें, मुझपर प्रसन्न हों, मैं मूर्ख पुत्रको लेकर क्या करूँगा।'

महात्माओंका क्रोध क्षणभरमें शान्त हो जाता है। जलका स्वाभाविक गुण है शीतल रहना। जल आगके संयोगसे भले ही गरम हो जाय, परंतु आगका संयोग हटते ही वह तुरंत शीतल हो जाता है। उसी तरह गोभिल मुनि तुरंत शान्त हो गये एवं प्रसन्न होकर बोले-'देवदत्त! तुम्हारा पुत्र एक बार मूर्ख भले ही हो, परंतु बादमें वह बहुत बड़ा विद्वान् होगा।'

देवदत्तके अथक प्रयासके बाद भी उतथ्यकी मूर्खतामें कोई अन्तर नहीं आया। यहाँतक कि देवदत्त बारह वर्षोंतक उसे पढ़ानेका प्रयास करते रहे, उसके उपरान्त भी उसे संध्या-वन्दन करनेकी विधितक मालूम न हो सकी। धीरे-धीरे सभी लोगोंमें इस बातका प्रचार हो गया कि उतथ्य मूर्ख है। जहाँ कहीं भी वह जाता, लोग उसका उपहास करते। बन्धु-बान्धव, सारी जनता उसकी निन्दा करने लगी। अन्तमें निराश होकर उसके माता-पिता भी उसे कोसते हुए कहने लगे-'यदि उतथ्य अन्धा या पंगु रहता तो ठीक था, परंतु मूर्ख पुत्र तो बिलकुल व्यर्थ है।' बन्धु-बान्धवों एवं माता-पिता आदिकी इन सब कटूक्तियोंसे ऊबकर एक दिन उतथ्य वनमें चला गया। जाह्नवीके तटपर एक पवित्र स्थानपर उसने एक कुटिया बना ली और वहीं रहने लगा। वह वनके फल-मूल खाकर अपना जीवन व्यतीत करता था। उसने अपने मन एवं इन्द्रियोंको वशमें करके 'कभी भी झूठ न बोलनेका' उत्तम नियम ले रखा था। इस प्रकार वह उस सुरम्य आश्रममें ब्रह्मचर्यपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगा।

उतथ्य न वेदाध्ययन जानता था, न किसी प्रकारका जप-तप ही। देवताओंके ध्यान एवं आराधनका भी उसे ज्ञान था। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और भूत-शुद्धि करनेकी विधिसे भी वह बिलकुल अनभिज्ञ था तथा कीलक मन्त्र एवं गायत्री-जप करना भी नहीं सीख पाया था। भोजनके समय प्राणाग्निहोत्र, बलिवैश्वदेव एवं अतिथिबलि और हवन आदिके नियमोंका भी उसे ज्ञान न था। वह प्रातःकाल उठता, दातौन करता और उसके पश्चात् बिना किसी मन्त्र के बोले ही गंगाकी पवित्र धारामें स्नान करता था। मध्याह्नकालमे वह जंगलसे फल एकत्र करके ले आता और इच्छानुसार उदरकी पूर्ति कर लेता। अच्छे-बुरे फलोंका भी उसे ज्ञान नहीं था। वह कभी किसीका अहित नहीं करता था और न अनुचित कर्ममें ही उसकी प्रवृत्ति थी। उसमें एक अनुपम दिव्य गुण था कि वह कभी भी असत्य-भाषण नहीं करता था, एक भी मिथ्या शब्द उसके मुखसे नहीं निकलता था-यह उसका अटूट व्रत था, जिसका वह सावधानीसे पालन करता था।

सत्यमें महान् तेज होता है। सदैव सत्य बोलनेसे वाक्-सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।

सत्यस्व वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्।

'सत्य बोलना श्रेष्ठ है, सत्यसे उत्तम और कुछ भी नहीं है।'

अविकारितम सत्यं सर्ववर्णेषु भारत।
सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः।।
सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः।
सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रह्म सनातनम्।।
सत्यं यज्ञः परः प्रोक्तः सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।

'सत्य सभी वर्णोंमें सदा विकाररहित है। सत्युरुषोंमें सदा सत्य रहता है। सत्य ही सनातन धर्म है। सत्य (रूप ईश्वर ही सबकी) परमगति है, अतएव सत्यको नमस्कार करना चाहिये। धर्म, तप, योग और सनातन ब्रह्म सत्य ही है। सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ कहा गया है। एकमात्र सत्यमें ही सब प्रतिष्ठित है।'

उतथ्यके सत्य बोलनेकी बात चारों ओर फैल गयी। इससे वहाँकी जनताने उसका नाम 'सत्यव्रत' रख दिया। सारी जनतामें उसकी कीर्ति फैल गयी कि यह सत्यव्रत है, कभी भी इसके मुखसे मिथ्या वाणी नहीं निकलती।

उतथ्यके हृदयमें अपने सत्यव्रतका तनिक भी अहंकार नहीं था, प्रत्युत उसके हृदयमें दैन्यताके भाव भरे थे। वह कई बार सोचता-'मुझे तपस्या करनेकी विधि तो मालूम ही नहीं है, फिर मैं कौन-सा श्रेष्ठ साधन करूँ? पूर्वजन्ममें मैंने निश्चय ही कोई अच्छा कार्य नहीं किया, तभी दैवने मुझे मूर्ख बना दिया है।'

एक दिन उतथ्य अपनी कुटियाके बाहर बैठा था। उस समय एक सूकर अत्यन्त भयभीत होकर बड़ी शीघ्रतासे भागता हुआ उसके पास पहुँचा। वह बाणसे बिंधा हुआ था उसकी देह रुधिरसे लथपथ थी। वह भयसे थर-थर काँप रहा था, अतः दयाका महान् पात्र था। उस दीन-हीन पशुपर उतथ्यकी दृष्टि पड़ी। दयाके उद्रेकसे वह काँप उठा। उसके मुखसे 'ऐ' का उच्चारण हो गया।

उतथ्यको यह ज्ञान नहीं था कि 'ऐ' सरस्वती देवीका बीज-मन्त्र है। किसी अदृष्टकी प्रेरणासे शोकमें पड़ थानेसे ही उसके मुखसे यह उच्चारण हुआ था, परंतु उसे सत्यके बलसे वाक्-सिद्धि प्राप्त हो गयी थी। यद्यपि भगवती देवी सरस्वतीके वाग्बीज मन्त्रका शुद्ध उच्चारण 'ऐं' है, परंतु कृपामयी भगवती उतथ्यके 'ऐ' शब्दमात्रके उच्चारणसे ही उसपर प्रसन्न हो गयीं। और भगवतीकी कृपासे उसे सम्पूर्ण विद्याएँ स्फुरित हो गयीं।

वह सूकर भागकर एक झाडीमें छिप गया। थोड़ी ही देरमे उसके पीछे-पीछे एक मूर्ख जंगली व्याध दौड़ता हुआ उतथ्य मुनिके पास पहुँचा। उसकी सूरत बड़ी डरावनी थी, जिससे प्रतीत होता था कि वह हिंसा-वृत्तिमें बड़ा निपुण है। वह कानतक बाण खींचे हुए हाथमें धनुष लिये था। उस व्याधने उतथ्य मुनिसे पूछा-'द्विजवर! आप प्रसिद्ध सत्यव्रती हैं कृपापूर्वक बतायें कि मेरे बाणसे बिंधा हुआ वह सूकर कहां गया? मेरा सारा परिवार भूखसे छटपटा रहा है। कुटुम्बका भरण-पोषण करनेका मेरे पास कोई दूसरा साधन नहीं है। यही मेरी वृत्ति है। आप शीघ्र उसे बता दें, अन्यथा भूखसे व्याकुल मेरे बच्चे प्राण त्याग देंगे।'

उतथ्य बड़े धर्म-संकटमें पड़ गये। वे जानते थे कि वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दयायुक्त हो तो अनृत भी सत्य ही कहा जाता है। क्या निर्णय करें, वे कुछ समझ नहीं सके।

सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा
दयान्त्रितं चानृतमेव सत्यम्।
हित नराणां भवतीह येन
तदेव सत्यं न तथान्यथैव।।

उतथ्यका हृदय दयासे ओतप्रोत था। भगवती सरस्वती देवीकी उनपर कृपा हो चुकी थी, तुरंत उनके मनमें स्फुरणा हुई और वे बोले-

या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रते सा न पश्यति।
अहो व्याध स्वकार्यार्थी किं पृच्छसि पुनः पुनः।।

'व्याध! जो आँख देखनेवाली है, वह बोलती नहीं और जो वाणी बोलती है, उसने देखा नहीं, फिर अपना कार्य साधनेकी धुनमें लगे हुए तुम क्यों बार-बार पूछ रहे हो?'

मुनिवर उतथ्यके यों कहनेपर उस पशुघाती व्याधको निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ा।

तदनन्तर उतथ्यने सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐं' का विधिवत् जाप किया। उनका यशोगान एवं उनकी विद्याकी प्रभा चारों ओर फैल गयी। जिन पिताने उन्हें त्याग दिया था, वे ही उन्हें बड़े आदरके साथ घर ले गये। वाल्मीकिजीकी तरह ही उतथ्य मुनि एक महान् कवि बन गये। यह सब सत्यकी महिमा एवं भगवती सरस्वती देवीकी कृपाका फल था। (देवीभागवतपुराण)

-- ० --

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book