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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....



महर्षि सौभरिकी जीवन-गाथा
वासनाका राज्य अखण्ड है। वासनाका विराम नहीं। फल मिलनेपर यदि एक वासनाको हम समाप्त करनेमें समर्थ भी होते हैं तो न जाने कहाँसे दूसरी और उससे भी प्रबलतर वासनाएँ पनप जाती हैं। प्रबल कारणोंसे कतिपय वासनाएँ कुछ कालके लिये लुप्त हो जाती हैं, परंतु किसी उत्तेजक कारणके आते ही वे जाग पड़ती हैं। भला कोई स्वप्नमें भी सोच सकता था कि महर्षि सौभरि काण्वका दृढ़ वैराग्य मीनराजके सुखद गार्हस्थ्य-जीवनको देखकर वायुके एक हलके-से झकोरेसे जड़से उखड़कर भूतलशायी बन जायगा?

महर्षि सौभरि कण्व-वंशके मुकुट थे, उन्होंने वेद-वेदांगका गुरु-मुखसे अध्ययन कर धर्मका रहस्य भलीभांति जान लिया था। उनका शास्त्र-चिन्तन गहरा था, परंतु उससे भी अधिक गहरा था उनका जगत्के प्रपज्ञोंसे वैराग्य। जगत् के समग्र विषय-सुख क्षणिक हैं। जब चित्तको उनसे यथार्थ शान्ति नहीं मिल सकती, तब कोई विवेकी पुरुष अपने अनमोल जीवनको इन कौड़ीके तीन विषयोंकी ओर क्यों लगायेगा? आजका विशाल सुख कल ही अतीतकी स्मृति बन जाता है। जब पलभरमें सुखकी सरिता सूखकर मरुभूमिके विशाल बालूके ढेरके रूपमें परिणत हो जाती है, तब कौन विज्ञ पुरुष इस सरिताके सहारे अपनी जीवन-वाटिकाको हरी-भरी रखनेका उद्योग करेगा? सौभरिका चित्त इन भावनाओंकी रगड़से इतना चिकना बन गया था कि पिता-माताका विवाह करनेका प्रस्ताव चिकने घड़ेपर जल-बूँदके समान उनपर टिक न सका। उन्होंने बहुत समझाया-'अभी भरी जवानी है, अभिलाषाएँ उमड़ी हुई हैं, तुम्हारे जीवनका यह नया वसंत है, कामना-मंजरीके विकसित होनेका उपयुक्त समय है, रसलोलुप चित्त-भ्रमरको इधर-उधरसे हटाकर सरस माधवीके रसपानमें लगाना है। अभी वैराग्यका बाना धारण करनेका अवसर नहीं।' परंतु सौभरिने किसीके शब्दोंपर कान न दिया। उनका कान तो वैराग्यसे भरे, अध्यात्म-सुखसे सने, सात्त्विक गीतोंको सुननेमें न जाने कबसे लगा हुआ था।

पिता-माताका अपने पुत्रको गार्हस्थ्य-जीवनमें लानेका उद्योग सफल न हो सका। पुत्रके हृदयमें भी देरतक द्वन्द्व मचा रहा। एक बार चित्त कहता-माता-पिताके वचनोंका अनादर करना पुत्रके लिये अत्यन्त हानिकारक है, परंतु दूसरी बार एक विरोधी वृत्ति धक्का देकर सुझाती-'आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।' आत्मकल्याण ही सबसे बड़ी वस्तु ठहरी। गुरुजनोंके वचनों और कल्याण-भावनामें विरोध होनेपर हमें आत्मकल्याणसे पराङ्मुख नहीं होना चाहिये। सौभरि इस अनार्युद्धको अपने हृदयके कोनेमे बहुत देरतक छिपा न सके और घरसे सदाके लिये नाता तोड़कर उन्होंने इस युद्धको भी विराम दिया। महर्षिके जवानीमें ही वैराग्यसे और अकस्मात् घर छोड़नेसे लोगोंके हृदय विस्मित हो उठे।

पवित्र नदीतट था। कल्लोलिनी कालिन्दी कल-कल करती हुई बह रही थी। किनारेपर उगे हुए तमाल-वृक्षोंकी सघन छायामें रंग-बिरंगी चिड़ियोंका चहकना कानोंमें अमृत उँड़ेल रहा था। घने जंगलके भीतर पशु स्वच्छन्द विचरण करते थे और नाना प्रकारके विघ्नोंसे अलग रहकर विशेष सुखका अनुभव करते थे। सायंकाल गोधूलिकी भव्य वेलामें गायें दूधसे भरे थनोंके भारसे झुकी हुई जब मन्द गतिसे दूरके गाँवोंकी ओर जाती थीं, तब यह दृश्य अनुपम आनन्द उत्पन्न करता था। यमुनाकी सतहपर शीतल पवनके हलके झकोरोंसे छोटी-छोटी लहरियाँ उठती थीं और भीतर मछलियोंके झुंड-के-झुंड इधर-से-उधर कूदते हुए स्वच्छन्दताके सुखका अनुभव कर रहे थे। यहाँ था शान्तिका अखण्ड राज्य। इसी एकान्त स्थानको सौभरिने अपनी तपस्याके लिये पसंद किया।

सौभरिके हृदयमें तपस्याके प्रति महान् अनुराग तो था ही, स्थानकी पवित्रता तथा एकान्तने उनके चित्तको हठात् अपनी ओर खींच लिया। यमुनाके जलके भीतर वे तपस्या करने लगे। भादोंमें भयंकर बाढ़के कारण यमुना-जल बड़े ही वेगसे बढ़ने और बहने लगता, परंतु ऋषिके चित्तमें न तो किसी प्रकारका बढ़ाव था और न किसी प्रकारका बहाव। पूस-माघकी रातोंमें पानी इतना ठंडा हो जाता कि जल-जन्तु भी ठंडके कारण काँपते, परंतु मुनिके शरीरमें जल-शयन करनेपर भी किसी प्रकारकी जड़ता न आती। वर्षाके साथ-साथ ऐसी ठंडी हवा चलती कि प्राणिमात्रके शरीर सिकुड़ जाते, परंतु ऋषिके शरीरमें तनिक भी सिकुडन न आती। ऐसी विकट तपस्याका क्रम बहुत वर्षोंतक चलता रहा। सौभरिको वह दिन याद था, जब उन्होंने तपस्याके निमित्त अपने पिताका आश्रम छोड़कर यमुनाका आश्रय लिया था। उस समय उनकी भरी जवानी थी, परंतु अब? लम्बी दाढ़ी और मुलायम मूँछोंपर हाथ फेरते समय उन्हें प्रतीत होने लगता कि अब उनकी उम्र ढलने लगी है। जो उन्हें देखता वही आश्चर्यसे चकित हो जाता। इतनी विकट तपस्या! शरीरपर इतना नियन्त्रण! सर्दी-गर्मी सह लेनेकी इतनी अधिक शक्ति! दर्शकोंके आश्चर्यका ठिकाना न रहता, परंतु महर्षिके चित्तकी विचित्र दशा थी। वे नित्य यमुनाके श्यामल जलमें मत्स्यराजकी अपनी प्रियतमाके साथ रतिक्रीड़ा देखते-देखते आनन्दसे विभोर हो जाते। कभी पति अपनी मानवती प्रेयसीके मानभञ्जनके लिये हजारों उपाय करते-करते थक जानेपर आत्मसमर्पणके मोहनमन्त्रके सहारे सफल होता और कभी वह मत्स्यसुन्दरी इठलाती, नाना प्रकारसे अपना प्रेम प्रदर्शन करती, अपने प्रियतमकी गोदका आश्रय लेकर अपनेको कृतकृत्य मानती। झुड-के-झुंड बच्चे मत्स्य-दम्पतिके चारों ओर अपनी ललित लीलाएँ किया करते और उनके हृदयमें प्रमोद-सरिता बहाया करते।

ऋषिने देखा कि गार्हस्थ्य-जीवनमें बड़ा रस है। पति-पत्नीके विविध रसमय प्रेम-कल्लोल! बाल-बच्चोंका स्वाभाविक सरल सुखद हास्य! परंतु उनके जीवनमें रस कहाँ? रस (जल)-का आश्रय लेनेपर भी चित्तमें रसका नितान्त अभाव था। उनकी जीवन-लताको प्रफुल्लित करनेके लिये कभी वसन्त नहीं आया। उनके हृदयकी कलीको खिलानेके लिये मलयानिल कभी न बहा। भला, यह भी कोई जीवन है। दिन-रात शरीरको सुखानेका उद्योग, चित्तवृत्तियोंको दबानेका विफल प्रयास। उन्हें जान पड़ता मानो मछलियोंके छोटे-छोटे बच्चे उनके नीरस जीवनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं।

संगतिने सोयी हुई वासनाको जोरोंसे झकझोर कर जगा दिया। वह अपनेको प्रकट करनेके लिये मार्ग खोजने लगी।

तप का उद्देश्य केवल शरीरको नाना प्रकारके साधनोंसे तप्त करना नहीं है, प्रत्युत मनको तप्त करना है। सच्चा तप मनमें जमे हुए कामके कूड़े-करकटको जलाकर राख बना देता है। आगमें तपाये हुए सोनेकी भांति तपस्यासे तपाया गया चित्त खरा उतरता है। तप स्वयं अग्निरूप है। उसकी साधना करनेपर क्या कभी चित्तमें अज्ञानका अन्धकार अपना घर बना सकता है? उसकी ज्वाला वासनाओंको भस्म कर देती है और उसका प्रकाश समग्र पदार्थोंको प्रकाशित कर देता है। शरीरको पीड़ा पहुँचाना तपस्याका स्वाँगमात्र है। नहीं तो, क्या इतने दिनोंकी घोर तपस्याके बाद भी सौभरिके चित्तमें प्रपज्ञसे विरति, संसारसे वैराग्य और भगवान्के चरणोंमें सच्ची रति न होती?

वैराग्यसे वैराग्य ग्रहणकर तथा तपस्याको तिलांजलि देकर महर्षि सौभरि प्रपंचकी ओर मुड़े और अपनी गृहस्थी जमानेमें जुट गये। विवाहकी चिन्ताने उन्हें कुछ बेचैन कर डाला। गृहिणी घरकी दीपिका है, धर्मकी सहचारिणी है। पत्नीकी खोजमें उन्हें दूर-दूर जाना पड़ा। रत्न खोज करनेपर ही प्राप्त होता है, घरके कोनेमें अथवा दरवाजेपर बिखरा हुआ थोड़े ही मिलता है-'न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्।' उस समय महाराज मान्धाताके प्रबल प्रतापके सामने संसारके समस्त नरेश नतमस्तक थे। वे सूर्यवंशके मुकुटमणि महाराज युवनाश्वके पुत्र थे। आर्योंकी सभ्यतासे सदा द्वेष रखनेवाले दस्युओंके हृदयमें इनके नाममात्रसे कम्प उत्पन्न हो जाता था। वे सरयूके तटपर बसी अयोध्या नगरीमें स्थित होकर विश्वके समस्त भू-भागपर शासन करते थे। महर्षिको यमुनातटसे सरयूके तीरपर अयोध्याकी राज्यसभामें सहसा उपस्थित देखकर उन्हें उतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना उनके राजकुमारीसे विवाह करनेके प्रस्तावपर। इस वृद्धावस्थामें इतनी कामुकता! इनके तो अब दूसरे लोकमें जानेके दिन समीप आ रहे हैं, परंतु आज भी इस लोकमें गृहस्थी जमानेका यह आग्रह! परंतु सौभरिकी इच्छाका विघात करनेसे भी उन्हें भय मालूम होता था। उनके हृदयमें एक विचित्र द्वन्द्व मच गया। एक ओर तो वे अभ्यागत तपस्वीकी कामना पूर्ण करना चाहते थे, परंतु दूसरी ओर उनका पितृत्व चित्तपर आघात देकर कह रहा था-इस वृद्ध जरद्गवके गलेमें अपनी सुमन-सुकुमार सुताको मत बाँधो। राजाने इन विरोधी वृत्तियोंको बड़ी कुशलतासे अपने चित्तके कोनेमें दबाकर सौभरिके सामने स्वयंवरका प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा-'क्षत्रिय-कुलकी कन्याएँ गुणवान-पतिको स्वयं वरण किया करती हैं'। अतः आप मेरे अन्तःपुर-संरक्षकके साथ जाइये। जो कन्या आपको अपना पति बनाना स्वीकार करेगी, उसका मैं आपके साथ विधिवत् विवाह कर दूँगा।' कंच्चुकी वृद्धको अपने साथ लेकर अन्तपुरमें चला, परंतु तब उसके कौतुककी सीमा न रही, जब वे वृद्ध अनुपम सर्वांग-शोभन युवकके रूपमें महलमें दीख पड़े। रास्तेमें ही सौभरिने तपस्याके बलसे अपने रूपको बदल लिया। जो देखता, वही मुग्ध हो जाता। स्निग्ध श्यामल शरीर ब्रह्मतेजसे चमकता हुआ चेहरा, उन्नत ललाट, अंगोंमें यौवनसुलभ स्फूर्ति, नेत्रोंमें विचित्र दीप्ति, जान पड़ता था मानो स्वयं अनंग अंग धारण कर रतिकी खोजमें सजे हुए महलोंके भीतर प्रवेश कर रहा हो। सुकुमारी राजकन्याओंकी दृष्टि इस युवक तापसपर पड़ी। चार आँखें होते ही उनका चित्त-भ्रमर मुनिके रूप-कुसुमकी माधुरी चखनेके लिये विकल हो उठा। पिताका प्रस्ताव सुनना था कि सबने मिलकर मुनिको घेर लिया और एक स्वरसे मुनिको वरण कर लिया। राजाने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।

सरयूके सुन्दर तटपर विवाह-मण्डप रचा गया। महाराज मान्धाताने अपनी पचास पुत्रियोंका विवाह महर्षि सौभरि काण्वके साथ एक साथ पुलकितवदन होकर कर दिया और दहेजमें विपुल सम्पत्ति दी-सत्तर-सत्तर गायोंके तीन झुंड, श्यामवर्ण वृषभ, जो इन सबके आगे-आगे चलता था, अनेक घोड़े, नाना प्रकारके रंग-बिरंगे कपड़े, अनमोल रत्न। गृहस्थ-जीवनको रसमय बनानेवाली समस्त वस्तुओंको एक साथ एक ही जगह पाकर मुनिकी कामनावल्ली लहलहा उठी। इन वस्तुओंसे सज-धजकर रथपर सवार हो मुनि जब यमुना-तटकी ओर आ रहे थे, उस समय रास्तेमें वज्रपाणि भगवान् इन्द्रका देवदुर्लभ दर्शन उन्हें प्राप्त हुआ। ऋषि आनन्दसे गद्गद स्वरमें स्तुति करने लगे-

'भगवन्! आप अनाथोंके नाथ हैं और हमलोग बन्धुहीन ब्राह्मण हैं। आप प्राणियोंकी कामनाओंकी तुरंत पूर्ति करनेवाले हैं। आप सोमपानके लिये अपने तेजके साथ हमारे यहाँ पधारिये।'

स्तुति किसे प्रसन्न नहीं करती। इस स्तुतिको सुनकर देवराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और ऋषिसे आग्रह करने लगे कि 'वर माँगो।' सौभरिने अपने मस्तकको झुकाकर विनयभरे शब्दोंमें कहना आरम्भ किया-'प्रभो! मेरा यौवन सदा बना रहे, मुझमें इच्छानुसार नाना रूप धारण करनेकी शक्ति हो, अक्षय रति हो और इन पचास पत्नियोंके साथ एक ही समय रमण करनेकी सामर्थ्य मुझमें हो जाय। विश्वकर्मा मेरे लिये सोनेके ऐसे महल बना दें, जिनके चारों ओर कल्पवृक्षसे युक्त पुष्प-वाटिकाएँ हों। मेरी पत्नियोंमें किसी प्रकारकी स्पर्धा, परस्पर कलह कभी न हो। आपकी दयासे मैं गृहस्थीका पूरा-पूरा सुख उठा सकूँ।'

इन्द्रने गम्भीर स्वरमें कहा-'तथास्तु।' देवताने भक्तकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। भक्तका हृदय आनन्दसे गद्गद हो उठा।

वस्तुके पानेकी आशामें जो आनन्द आता है, वह उसके मिलनेपर नहीं होता। मनुष्य उसे पानेके लिये बेचैन बना रहता है, लाखों चेष्टाएँ करता है, उसकी कल्पनासे ही उसके मुँहसे लार टपकने लगती है, परंतु वस्तुके मिलते ही उसमें विरसता आ जाती है, उसका स्वाद फीका पड़ जाता है, उसकी चमक-दमक जाती रहती है और प्रतिदिनकी गले पड़ी वस्तुओंके ढोनेके समान उसका भी ढोना दूभर हो जाता है। गृहस्थीमें दूरसे आनन्द अवश्य आता है, परंतु गले पड़नेपर उसका आनन्द उड़ जाता है, केवल तलछट शेष रह जाती है।

महर्षि सौभरिके लिये गृहस्थीकी लता हरी-भरी सिद्ध नहीं हुई। बड़ी-बड़ी कामनाओंको हृदयमें लेकर वे इस घाट उतरे थे, परंतु यहाँ विपदाके जल-जन्तुओंके कोलाहलसे सुखपूर्वक खड़ा होना भी असम्भव हो गया। विचारशील तो वे थे ही। विषय-सुखोंको भोगते-भोगते उन्हें अब सच्चा वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे-'क्या यही सुखद जीवन है, जिसके लिये मैंने वर्षोंकी साधनाका तिरस्कार किया है? मुझे धन-धान्यकी कमी नहीं है, मेरी गों-सम्पत्ति अतुलनीय है, भूखकी ज्वालाका अनुभव करनेका अशुभ अवसर मुझे कभी नहीं आया, परंतु मेरे चित्तमें चैन नहीं। कल-कण्ठ कामिनियोंके कोकिल-विनिन्दित स्वरोंने मेरी जीवन-वाटिकामें वसन्त लानेका उद्योग किया, वसन्त आया, पर उसकी सरसता टिक न सकी। बालक-बालिकाओंकी मधुर काकलीने मेरे जीवनोद्यानमें पावसको ले आनेका प्रयत्न किया, परंतु मेरा जीवन सदाके लिये हरा- भरा न हो सका। हृदयवल्ली कुछ कालके लिये अवश्य लहलहा उठी, परंतु पतझड़के दिन शीघ्र आ धमके, पत्ते मुरझाकर झड़ गये। क्या यही सुखमय गार्हस्थ्य-जीवन है? बाहरी प्रपंचमें फँसकर मैंने आत्मकल्याणको भुला दिया। मानव-जीवनकी सफलता इसीमें है कि योगके द्वारा आत्मदर्शन किया जाय-'यद्योगेनात्मदर्शनम्', परंतु भोगके पीछे मैंने योगको भुला दिया, अनात्माके चक्करमें पड़कर आत्माको बिसार दिया और प्रेयमार्गका अवलम्बन कर 'श्रेय'-आत्यन्तिक सुखकी उपेक्षा कर दी। भोगमय जीवन वह भयावनी भूल-भुलैया है, जिसके चक्करमें पड़ते ही हम अपनी राह छोड़ बेराह चलने लगते हैं और अनेक जन्म चक्कर काटनेमें ही बिता देते हैं। कल्याणके मार्गमें जहाँ चलते हैं, घूम-फिरकर पुनः वहीं आ जाते हैं, एक डग भी आगे नहीं बढ़ पाते।

'कच्चा वैराग्य सदा धोखा देता है। मैं समझता था कि इस कच्ची उम्रमें भी मेरी लगन सच्ची है, परंतु मिथुनचारी मत्स्यराजकी संगतिने मुझे इस मार्गमें ला घसीटा। सच्चा वैराग्य हुए बिना भगवान्की ओर बढ़ना प्रायः असम्भव-सा ही है। इस विरतिको लानेके लिये साधु-संगति ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। बिना आत्मदर्शनके यह जीवन भार है। अब मैं अधिक दिनोंतक इस बोझको नहीं ढो सकता।'

दूसरे दिन लोगोंने सुना-महर्षि सौभरिकी गृहस्थी उजड़ गयी। महर्षि सच्चे निर्वेदसे यह प्रपंच छोड़ जंगलमें चले गये और सच्ची तपस्या करते हुए भगवान्में लीन हो गये। जिस प्रकार अग्रिके शान्त होते ही उसकी ज्वालाएँ वहीं शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार पतिकी आध्यात्मिक गतिको देखकर पत्नियोंने भी उनकी संगतिसे सद्गति प्राप्त की। संगतिका फल बिना फले नहीं रहता। मनुष्यको चाहिये कि वह सज्जनोंकी संगतिका लाभ उठाकर अपने जीवनको धन्य बनावे। दुष्टोंका संग सदा हानिकारक होता है। विषयी पुरुषके संगमें विषय उत्पन्न न होगा तो क्या वैराग्य उत्पन्न होगा? मनुष्यको आत्मकल्याणके लिये सदा जागरूक रहना चाहिये। जीवनका यही लक्ष्य है। पशु-पक्षीके समान जीना, अपने स्वार्थके पीछे सदा लगे रहना मानवता नहीं है। (श्रीमद्धागवतपुराण)

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