नारी विमर्श >> और मीरा नाचती रही और मीरा नाचती रहीममता तिवारी
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं अलग-अलग पन्नों में अलग-अलग किताबों में छपी ! कभी माँ-बाप के घर में, कभी स्कूल के अहाते में, कभी प्रेम-प्रांगण में, कभी कार्य-स्थल पे तो कभी महफ़िलों में भी, कभी ससुराल में, कभी समाज के समक्ष ! जी हुआ आज कि, उन सारे पन्नों को समेट इक जिल्द में बाँध दूँ...बिखरी-बिखरी सी ‘मैं’ लोगों को बंधे रहने का भ्रम देती रही...यहाँ ‘मैं’ हा स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है....कुछ मेरी, कुछ दोस्तों की...कुछ अनजान स्त्रियों की...कुछ आपके आसपास की स्त्री की दास्तान !
स्त्री जीवन में झांकना मानव-स्वभाव की कमजोरी है...तो आप भी टहलें-घूमें, मेरे मन के आँगन में...अतिथि बन के पढ़ें...और समझे...फिर इतमिनान से सोचें कि आखिर यह ‘मीरा’ क्यों नाच रही है अब तक...घुँघरू पहने आपके बनाए रंगमंच पे....???
स्त्री जीवन में झांकना मानव-स्वभाव की कमजोरी है...तो आप भी टहलें-घूमें, मेरे मन के आँगन में...अतिथि बन के पढ़ें...और समझे...फिर इतमिनान से सोचें कि आखिर यह ‘मीरा’ क्यों नाच रही है अब तक...घुँघरू पहने आपके बनाए रंगमंच पे....???
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