रहस्य-रोमांच >> कोलाबा कॉन्सपिरेसी कोलाबा कॉन्सपिरेसीसुरेन्द्र मोहन पाठक
|
3 पाठकों को प्रिय 421 पाठक हैं |
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मंगलवार : 19 मई
मोबाइल की घण्टी बजी
जीतसिंह ने मोबाइल निकाल कर स्क्रीन पर निगाह डाली तो उस पर फ्लैश करता नम्बर उसकी पहचान में न आया। उसने नोट किया कि नम्बर लैण्डलाइन का था
कौन होगा !
होगा कोई ! अभी हाल ही में तो उसने मोबाइल पकड़ा था, कैसे कोई उस पर काल लगा सकता था ! जरूर रांग नम्बर लग गया था
उस घड़ी वो चिंचपोकली में अपनी खोली में था और उसके सामने खोली को झाड़ने बुहारने का, फिर से रहने लायक बनाने का, बड़ा प्रोजेक्ट था।
‘खोली’ नौ गुणा चौदह फुट का एक ही लम्बा कमरा था और उसी में माचिस जैसा बाथरूम था और किचन थी। कभी वो खोली उसकी सालों पनाहगाह रही थी, मुम्बई जैसे महँगे शहर में ऐसी रिहायश हासिल होना बड़ी नियामत थी बावजूद इसके कि चिंचपोकली का वो इलाका झौंपड़-पट्टे से जरा ही बेहतर था। उसकी जरूरत के लिहाज से वो ऐन फिट जगह थी लेकिन फिर सुष्मिता नाम की एक युवती से-जो कभी वहीं उसके पड़ोस में कुछ ही घर दूर रहती थी - एक तरफा आशनाई का ऐसा झक्खड़ चला था कि वो तिनके की तरह कहां कहां उड़ता फिरा था ! अब वो जहाज के पंछी की तरह फिर वहां था।
आइन्दा जिन्दगी में ठहराव की उम्मीद करता, बल्कि दुआ मांगता।
घण्टी बजनी बन्द हो गयी।
बढ़िया !
जीतसिंह तीस के पेटे में पहुँचा, रंगत में गोरा, क्लीनशेव्ड हिमाचली नौजवान था जो कि रोजगार की तलाश में छः साल पहले धर्मशाला से मुम्बई आया था। उसकी शक्ल सूरत मामूली थी, जिस्म दुबला था, होंठ पतले थे, नाक बिना जरा भी खम एकदम सीधी थी, बाल घने थे, और भवें भी बालों जैसी ही घनी और भारी थीं। कहने को ताले-चाबी का मिस्त्री था लेकिन नौजवानी की एकतरफा आशिकी के हवाले कई डकैतियों में शरीक हो चुका था, कई बार खून से अपने हाथ रंग चुका था। जुर्म की दुनिया उसके लिये ऐसा कम्बल बन गया था जिसे वो तो छोड़ता था लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता था।
मोबाइल की घण्टी फिर बजी।
उसने फिर स्क्रीन पर निगाह डाली।
वही नम्बर।
इस बार उसने काल रिसीव की।
‘‘हल्लो !’’ - वो बोला।
‘‘बद्री !’’- दूसरी ओर से सुसंयत आवाज आयी।
‘‘कौन पूछता है ?’’
‘‘बोलूंगा न ! फोन किया है तो बोलूंगा न ! पहले तसदीक तो कर, बिरादर, कि बद्रीनाथ ही है !’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मशहूर-ओ-मअरूफ...’’
‘‘फारसी नहीं बोलने का।’’
‘‘...कारीगर ! हुनरमन्द !’’
‘‘नम्बर कैसे जाना ?’’
‘‘भई, जब मोबाइल है, उस पर काल रिसीव करता है, उससे काल जनरेट करता है तो किसी से तो जाना !’’
‘‘क्या मांगता है ?’’
‘‘तेरे लिये काम है।’’
‘‘क्या काम है ?’’
‘‘वही, जिसका तू उस्ताद है। जिसमें तेरा कोई सानी नहीं। समझ गया ?’’
‘‘आगे बोलो।’’
‘‘कुछ खोलना है। खोलने के अलावा तेरी कोई जिम्मेदारी नहीं। तेरे लिये चुटकियों का काम होगा। नजराना पचास हजार।’’
‘‘किधर ?’’
‘‘हाँ बोलने पर मालूम पड़ेगा।’’
‘‘नाम बोलो !’’
‘‘वो भी हां बोलने पर। मुलाकात फिक्स करेंगे न ! तब तआरुफ भी हो जायेगा।’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘उजरत कम है ? ठीक है, साठ।’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘भई, तो अपनी मुँहमांगी फीस बोल !’’
‘‘नहीं...’’
ठीक है, एक लाख। अब खुश !’’
‘‘...नहीं मांगता।’’
‘‘अरे, क्या एक ही रट लगाये है !’’
‘‘बोले तो मैं वो भीड़ू हैइच नहीं जो तू मेरे को समझ रयेला है।’’
‘‘खामखाह ! मैंने तसदीक करके फोन किया है।’’
‘‘तुम्हेरी तसदीक में लोचा।’’
‘‘तू...तू बद्रीनाथ तालातोड़ नहीं है ?’’
‘‘नहीं है।’’
‘‘तो कौन है ?’’
‘‘जीतसिंह तालाजोड़ ! ताले चाबी का मिस्त्री। क्राफोर्ड मार्केट में एक हार्डवेयर के शोरूम के बाहर ठीया है। किसी ताले का चाबी खो गया हो, किसी चाबी का डुप्लीकेट मांगता हो तो उधर आना। किसी से भी पता करना जीतसिंह ताला-चाबी किधर मिलता है। बरोबर !’’
‘‘यार, तू मसखरी तो नहीं मार रहा ?’’
‘‘नक्को !’’
‘‘तेरी कोई खास डिमाण्ड है ?’’
‘‘नक्को। कैसे होयेंगा ! जब मैं उस लाइन में हैइच नहीं तो...कैसे होयेंगा !’’
‘‘कोई मुगालता है। मैं रूबरू बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘वान्दा नहीं। आना उधर। क्राफोर्ड मार्केट।’’
‘‘रहता कहां है ?’’
‘‘चिल्लाक भीड़ू है, मोबाइल नम्बर पता किया न ! ये भी पता करना।’’
‘‘अरे, यार, तू समझता क्यों नहीं ! मुश्किल से दस या पन्द्रह मिनट के काम का एक लाख...’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘तो जो मांगता है, वो तो बोल !’’
‘‘मांगता हैइच नहीं।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘अभी एक बात और सुनने का।’’
जीतसिंह ने मोबाइल निकाल कर स्क्रीन पर निगाह डाली तो उस पर फ्लैश करता नम्बर उसकी पहचान में न आया। उसने नोट किया कि नम्बर लैण्डलाइन का था
कौन होगा !
होगा कोई ! अभी हाल ही में तो उसने मोबाइल पकड़ा था, कैसे कोई उस पर काल लगा सकता था ! जरूर रांग नम्बर लग गया था
उस घड़ी वो चिंचपोकली में अपनी खोली में था और उसके सामने खोली को झाड़ने बुहारने का, फिर से रहने लायक बनाने का, बड़ा प्रोजेक्ट था।
‘खोली’ नौ गुणा चौदह फुट का एक ही लम्बा कमरा था और उसी में माचिस जैसा बाथरूम था और किचन थी। कभी वो खोली उसकी सालों पनाहगाह रही थी, मुम्बई जैसे महँगे शहर में ऐसी रिहायश हासिल होना बड़ी नियामत थी बावजूद इसके कि चिंचपोकली का वो इलाका झौंपड़-पट्टे से जरा ही बेहतर था। उसकी जरूरत के लिहाज से वो ऐन फिट जगह थी लेकिन फिर सुष्मिता नाम की एक युवती से-जो कभी वहीं उसके पड़ोस में कुछ ही घर दूर रहती थी - एक तरफा आशनाई का ऐसा झक्खड़ चला था कि वो तिनके की तरह कहां कहां उड़ता फिरा था ! अब वो जहाज के पंछी की तरह फिर वहां था।
आइन्दा जिन्दगी में ठहराव की उम्मीद करता, बल्कि दुआ मांगता।
घण्टी बजनी बन्द हो गयी।
बढ़िया !
जीतसिंह तीस के पेटे में पहुँचा, रंगत में गोरा, क्लीनशेव्ड हिमाचली नौजवान था जो कि रोजगार की तलाश में छः साल पहले धर्मशाला से मुम्बई आया था। उसकी शक्ल सूरत मामूली थी, जिस्म दुबला था, होंठ पतले थे, नाक बिना जरा भी खम एकदम सीधी थी, बाल घने थे, और भवें भी बालों जैसी ही घनी और भारी थीं। कहने को ताले-चाबी का मिस्त्री था लेकिन नौजवानी की एकतरफा आशिकी के हवाले कई डकैतियों में शरीक हो चुका था, कई बार खून से अपने हाथ रंग चुका था। जुर्म की दुनिया उसके लिये ऐसा कम्बल बन गया था जिसे वो तो छोड़ता था लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता था।
मोबाइल की घण्टी फिर बजी।
उसने फिर स्क्रीन पर निगाह डाली।
वही नम्बर।
इस बार उसने काल रिसीव की।
‘‘हल्लो !’’ - वो बोला।
‘‘बद्री !’’- दूसरी ओर से सुसंयत आवाज आयी।
‘‘कौन पूछता है ?’’
‘‘बोलूंगा न ! फोन किया है तो बोलूंगा न ! पहले तसदीक तो कर, बिरादर, कि बद्रीनाथ ही है !’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मशहूर-ओ-मअरूफ...’’
‘‘फारसी नहीं बोलने का।’’
‘‘...कारीगर ! हुनरमन्द !’’
‘‘नम्बर कैसे जाना ?’’
‘‘भई, जब मोबाइल है, उस पर काल रिसीव करता है, उससे काल जनरेट करता है तो किसी से तो जाना !’’
‘‘क्या मांगता है ?’’
‘‘तेरे लिये काम है।’’
‘‘क्या काम है ?’’
‘‘वही, जिसका तू उस्ताद है। जिसमें तेरा कोई सानी नहीं। समझ गया ?’’
‘‘आगे बोलो।’’
‘‘कुछ खोलना है। खोलने के अलावा तेरी कोई जिम्मेदारी नहीं। तेरे लिये चुटकियों का काम होगा। नजराना पचास हजार।’’
‘‘किधर ?’’
‘‘हाँ बोलने पर मालूम पड़ेगा।’’
‘‘नाम बोलो !’’
‘‘वो भी हां बोलने पर। मुलाकात फिक्स करेंगे न ! तब तआरुफ भी हो जायेगा।’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘उजरत कम है ? ठीक है, साठ।’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘भई, तो अपनी मुँहमांगी फीस बोल !’’
‘‘नहीं...’’
ठीक है, एक लाख। अब खुश !’’
‘‘...नहीं मांगता।’’
‘‘अरे, क्या एक ही रट लगाये है !’’
‘‘बोले तो मैं वो भीड़ू हैइच नहीं जो तू मेरे को समझ रयेला है।’’
‘‘खामखाह ! मैंने तसदीक करके फोन किया है।’’
‘‘तुम्हेरी तसदीक में लोचा।’’
‘‘तू...तू बद्रीनाथ तालातोड़ नहीं है ?’’
‘‘नहीं है।’’
‘‘तो कौन है ?’’
‘‘जीतसिंह तालाजोड़ ! ताले चाबी का मिस्त्री। क्राफोर्ड मार्केट में एक हार्डवेयर के शोरूम के बाहर ठीया है। किसी ताले का चाबी खो गया हो, किसी चाबी का डुप्लीकेट मांगता हो तो उधर आना। किसी से भी पता करना जीतसिंह ताला-चाबी किधर मिलता है। बरोबर !’’
‘‘यार, तू मसखरी तो नहीं मार रहा ?’’
‘‘नक्को !’’
‘‘तेरी कोई खास डिमाण्ड है ?’’
‘‘नक्को। कैसे होयेंगा ! जब मैं उस लाइन में हैइच नहीं तो...कैसे होयेंगा !’’
‘‘कोई मुगालता है। मैं रूबरू बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘वान्दा नहीं। आना उधर। क्राफोर्ड मार्केट।’’
‘‘रहता कहां है ?’’
‘‘चिल्लाक भीड़ू है, मोबाइल नम्बर पता किया न ! ये भी पता करना।’’
‘‘अरे, यार, तू समझता क्यों नहीं ! मुश्किल से दस या पन्द्रह मिनट के काम का एक लाख...’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘तो जो मांगता है, वो तो बोल !’’
‘‘मांगता हैइच नहीं।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘अभी एक बात और सुनने का।’’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book