लोगों की राय

कविता संग्रह >> आकाश दीप

आकाश दीप

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9292
आईएसबीएन :000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

143 पाठक हैं

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

जयशंकर प्रसाद के नाटकों और उपन्यासों की तरह उनकी रचनात्मक सक्रियता का प्रमुख काल 1926 ई. से 1936 ई. रहा है। इस दशक के भीतर ही उनकी सभी विधाओं में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिखी गयीं और प्रकाशित हुई हैं। यह काल भारतीय समाज की मानसिक बुनावट की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। हर महान रचनाकार अपने जीवन और जगत् के अनुभवों से एक विशेष प्रकार की जीवन-दृष्टि का विकास करता है जो लोकमंगल की कामना से मुक्त होकर विश्व दृष्टि का रूप धारण करती है, जिसमें मानवीय रिश्तों की समझ रहती है। अन्ततः दुनिया एक प्रकार के सम्बन्धों के निचोड़ को ही कहते हैं। अनुभूति के स्तर पर सम्बन्धों की यह समझ संसार को बदलने, ढालने, सँवारने और काटने, भेदने तथा बीनने-छीनने आदि की दृष्टि भी देती है जिससे वह अधिक मानवीय हो सके। इस प्रकार का दृष्टिकोण ही उस मंगल कामना का निर्माण करता है जिसे लोक-दृष्टि कहते हैं। प्रसाद जी में इस प्रकार की दृष्टि शुरू से ही थी कि वर्तमान जगत् को बदलना है। परन्तु उस युग में वर्तमान के विश्लेषण में अतीत की सांस्कृतिक नवजागरणवादी चेतना रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दयानन्द और रवीन्द्र आदि के द्धारा सांस्कृतिक गौरव पर पड़नेवाले नये प्रकाश से निर्मित थी, इसलिए उनमें एक प्रकार का नवजागरणकालीन बोध भी विद्यमान था जो मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद में समान भाव से पाया जाता है। मैथिली बाबू में कथा काव्य के रूप में है और प्रसाद जी में भाव कथा के रूप में। मैथिली बाबू के साकेत, यशोधरा, विष्णुप्रिया और भारत-भारती में पाया जानेवाला भाव प्रसाद में आन्तरिक स्पर्श से पुलकित होकर कहानियों और उपन्यासों में भिन्न रूपों में उदित हुआ है। द्विवेदीयुगीन छन्दोबद्ध कथात्मक इतिवृत्तात्मकता को प्रसाद एक झटके से अलग कर देते हैं। उसमें मुक्तात्मकता का एक भिन्न आयाम छोड़ देते हैं, जो बहुत-कुछ घनानन्द की कविताओं में पाया जाता है। कहानियों में प्रसाद की कविताओं से पहले एक विशेष प्रकार का लोक-कथात्मक वैचित्र्य और भावोन्मुखता मिलती है। कथा का बाहरी ढाँचा विशेष भावात्मक प्रवृति या मन के विशेष आवेग, मानसिक उथल-पुथल के लिए प्रयुक्त किया हुआ लगता है। बाह्य का संवेदना की तीव्रता या विन्दून्मुखता की प्रतीति के लिए प्रयोग उनके पहले कहानी-संग्रह ‘छाया’ में मिलता है जो छायावाद के प्रारम्भिक स्वरूप को संकेतित करता है। 1911 से 1913 के बीच लिखी गयी इन कहानियों में बाह्य की तुलना में बाह्य के हदय पर पड़नेवाले प्रभाव को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। घटना के बजाय घटनाओं के असर का वर्णन जो मानव-मन को प्रभावित करता है और कालान्तर में वही मानव-मन फिर बड़ी घटना का कारण बनता है। प्रसाद की कहानियों में शुरू से मिलता है।

‘आकाश-दीप’, ‘पुरस्कार’, ‘ममता’, ‘अपराधी’, ‘स्वर्ग के खँडहर’, ‘बनजारा’ कहानियाँ अपने में निष्कर्षात्मक नहीं है परन्तु जिस प्रकार की विकल्पहीनता और भावसंघर्ष को व्यक्त करती है वह उस युग के भारतीय मध्यवर्ग की साँसत की ही सृजनात्मक अभिव्यक्ति है। अतीत के प्रति वेदनापूर्ण मोह जिसका कोई तार्किक विकल्प नहीं है, इन कहानियों में उपस्थित है। ऐसी ही मानसिक स्थिति का संकेत ‘ग्राम’ कहानी में भी था। ‘आकाश-दीप’ में कहानी की संरचना केन्द्रीभूत नहीं है बल्कि बुनावट की दृष्टि से भावकेन्द्रित है और वह भाव है चम्पा की ‘मानसिक स्थिति’ का संकेत जो सारे कथ्य को लोककथा की तरह संक्रेन्द्रित करती है-परन्तु, लोककथाओं की तरह मुक्त नहीं करती है, वल्कि चिन्तित और व्याकुल करती है। यही वह अन्तर है जो प्रसाद के योगदान को महत्वपूर्ण बना देता है। ‘आकाश-दीप’ संग्रह में वे ‘प्रतिध्वनि’ की तुलना में न केवल मानव-मन की पर्तों के उद्घाटन और अंधेरों की पहचान में सफल है बल्कि सामाजिक सच्चाई की अधिक सटीक ढंग से संकेतित करने में भी सफल है। मन को विचलित और विचारोन्मुख करने की यह क्षमता जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि कहानीकारों को प्रेमचन्द की तुलना में प्रसाद से ही प्राप्त हुई है। ‘ममता’ कहानी अपने अन्त में वैयक्तिक कम ऐतिहासिक सामाजिक सच्चाई की ओर अधिक उन्मुख है, जो यह रेखांकित करती है कि जिस स्थान पर मानवीयता की मूल्यवत्ता की दृष्टि से ममता का नाप होना चाहिए था वहाँ सत्ता प्रतिष्ठान के तर्क से शासक का नाम हुआ। अगर वहाँ ममता का नाम होता तो एक मूल्य की प्रतिष्ठा होती। जगह अशरण को शरण देने से नहीं हुमायूँ के कारण महत्वपूर्ण हुई। जमीन के खुदने का डर और अन्ततः मौत ‘ममता’ को अधिक मानवीय और महत्त्वपूर्ण बना देती है। यह कहानी शिल्प की दृष्टि से एक होते हुए भी ‘गुण्डा’ से अन्तर्वस्तु की दृष्टि से भिन्न है।

कहानी की पूरी बनावट में एक यह आन्तरिक चिन्तनशीलता घुली हुई है जबकि ‘पुरस्कार’ और ‘आकाश-दीप’ आदि में दूसरी चिन्तनशीलता है जो कहानी को वर्णन और शिल्प की दृष्टि से मूल्यवान् बनाती है। इनमें वह गहराई नहीं है जो बेचैन करे या पाठक को स्वयं गहराई प्रदान करें। इन कहानियों में एक प्रकार की स्तब्धता भी पायी जाती है, ‘जो’ आँधी भी नहीं है। ‘आकाश-दीप’ का अनिश्चय ‘पुरस्कार’ में एक निर्णय में बदलता है-यह प्रसाद की मनोवृत्ति का भी परिचायक है। चम्पा भीतर-ही भीतर सिसकती है-विकल्पात्मक के कारण, परन्तु मधूलिका नहीं, उसकी मूल्य दृष्टि और संकल्पनात्पकता स्पष्ट है। ‘आकाश-दीप’ और ‘ममता’ कहानी का अन्त उक्ति-वैचित्र्य की तरह से लाक्षणिक लगता है, जो एक प्रवाह के एक-दूसरे प्रवाह में समाहित्त भी करता है परन्तु ‘मधुआ’, ‘नीरा’, ‘विरामचिह्न', ‘घीसू’ आदि कहानियाँ पत्रकारिता के ‘तथ्यवाद’ से प्रभावित है। वे एक प्रकार के प्रश्नचिह्न की तरह से उत्पन्न अर्थों को प्रत्यक्ष केन्द्रित करती है जो मेरी समझ से प्रसाद की उस उन्मुखता को व्यक्त करती है जिससे ‘कंकाल’ और ‘तितली’ जैसे उपन्यास जनमे।

‘आकाश-दीप’ और ‘आँधी’ की कहानियों से लगता है कि प्रसाद जी 1925 से कई क्षेत्रों में प्रयोग कर रहे थे। इन संकलनों में जहाँ उनके चिन्तन में स्पष्टता और वर्तमान यथार्थ के प्रति परिवर्तनकारी दृष्टिकोण का आभास मिलता है। जीवन-जगत् के अनुभवों की परिपक्वता और अन्तर्मुखी चिन्तनशील के साथ फ्रायड, मार्क्स और डार्विन आदि के प्रभाव भी इस काल की कहानियों में स्पष्ट हैं। बँगला का हैंगओवर जो मदन मृणालिनी में है वह ‘आकाश-दीप’ में दूर हो गया है लेकिन ‘छायावा’ का प्रभाव स्पष्ट दिखायी पड़ता है। ‘आकाश-दीप’, ‘रमला’, ‘बिसाती’, ‘बनजारा’, ‘चूड़ीवाली’, ‘प्रणय चिह्न’ आदि कहानियों में छायावादी प्रतीति और प्रेम-क्रेन्दीयता या सघनता विद्यमान है। वैसे भी सारे बाह्य यथार्थ का भावकेन्द्रण छायावादी तत्व ही है। फिर भी ‘सुनहरा साँप’ और ‘प्रतिध्वनि’, फ्रायड के स्वप्न सिद्धान्त और दमित इच्छा के तर्क की दृष्टि से लिखी गयी मानव मन के रहस्यों को उद्घाटित करनेवाली कहानियाँ हैं। जैनेन्द्र, अज्ञेय और इलाचन्द्र जोशी की कहानियों को इन कहानियों के सन्दर्भ में विकास की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। ‘सुनहरा साँप’ में साँप काम भावना के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है और कहानी की विशिष्टता प्रतीक के घन पक्ष के बजाय निषेधात्मक पक्ष से प्राप्त होती है। रामू के मालिक का गुस्सा नेरा के प्रति उसकी दमित इच्छा की अभिव्यक्ति है, जो एक प्रकार की हिंसा (क्रोध) में परिणत होती है। इसी प्रकार से तारा और उसकी ननद की सामाजिक समस्या वैयक्तिता के स्तर पर ‘एक दो तीन चार’ के रूप में इच्छापूर्ति के सिद्धान्त का सैद्धान्तिक निदर्शन है। ‘देवदासी’ में पत्र शैली का प्रयोग किया गया है।

भावोन्मुखता इन कहानियों में यथार्थता है। इनमें संसार की कठोर वास्तविकता है, जो दर्शन और भावना को ललकारती है। प्रेमचन्द को ‘मधुआ’ कहानी बहुत ही प्रिया थी। ‘मधुआ’ में ही प्रसाद अपनी और अपने समकालीन कहानी-दृष्टि पर टिप्पणी भी करते हैं और पतनोन्मुख सामन्ती चरित्र तथा गरीबी के उस सम्बन्ध की ओर संकेत भी करते है जिससे समाज की ऐतिहासिक स्थिति का उद्घाटन होता है और विद्रोह करने की इच्छा का भी शराबी और मधुवा दोनों का मत विद्रोह वैयक्तिक होते हुए भी लोकान्मुख है। वर्ग सहानुभूति के माध्यम से जिस ओर इस कहानी में संकेत किया गया है वह ‘नियति’ के उल्लेख के बाद भी महत्वपूर्ण है।

‘‘अच्छा तो उस दिन तुमने गड़रियेवाली कहानी सुनायी थी जिसमें आसफुद्दौला ने उसकी लड़की का आँचल भुने हुए भुटूटे के दानों के बदले मोतियों से भर दिया था। वह क्या सच है ?

सच ! अरे यह गरीब लड़की भूख से उसे चबा-चबाकर थू-थू करने लगी।...रोने लगी ! ऐसी निर्दयी दिल्लगी बड़े लोग कर ही बैठते हैं। सुना है श्री रामचन्द्र ने भी हनुमान जी से ऐसा ही...’’

‘‘ठाकुर साहब ठठाकर हँसने लगे। पेट पकड़कर हँसते-हँसते लोट गये। साँस बटोरते हुए सँभलकर बोले-और बड़प्पन कहते किसे हैं ? कंगाल तो कंगाल। गधी लड़की, भला उसने कभी मोती देखे थे, चबाने लगी होगी। मैं सच कहता हूँ आज तक तुमने जितनी कहानियाँ सुनायीं, उनमें बड़ी टीस थी। शाहजादों के दुखड़े, महल की अभागिनी बेगमों के निष्फल प्रेम, करुणा-कथा और पीड़ा से भरी हुई कहानियाँ ही तुम्हें आती है, पर ऐसी हँसानेवाली कहानी और सुनाओ तो मैं अपने सामने ही बढ़िया शराब पिला सकता हूँ।’’

मधुआ (आँधी)
हिन्दी विभाग
- सत्यप्रकाश मिश्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book