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जीवनी/आत्मकथा >> जमाने में हम

जमाने में हम

निर्मला जैन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :358
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9263
आईएसबीएन :9788126727797

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प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

सुपरिचित आलोचक निर्मला जैन ने ‘दिल्ली : शहर दर शहर’ जैसे सुपठ संस्मरणात्मक कृति से यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि न तो उनका जीवन एकरेखीय है, न उनकी भाषा और रचनात्मकता का मिजाज केवल आलोचनात्मक है ! ‘ज़माने में हम’ नामक उनकी यह आत्मकथात्मक कृति उन संकेतो को सच साबित करती है ! ‘ज़माने में हम’ को निर्मला जी ने आत्मवृत्त कहा है ! उन्होंने आठ दशक पीछे छूट गई जिंदगी को पलटकर यों देखा है कि निजी यादें न केवल उनके रचनात्मक जीवन के इतिहास की निर्मिति का तत्व बन गई हैं, बल्कि हिंदी के लोकवृत्त के निर्माण में भी सहायक साबित होनेवाली हैं ! हालाँकि यह उनके लिए जोखिम-भरा कार्य ही रहा होगा ! क्योंकि उनके जीवन में अनेक रेखाएं एक-दूसरे के सामानांतर-परस्पर टकराती, एक-दूसरे को काटती, उलझती-सुलझती हुई हैं !

उनकी संशिलष्ट बुनावट को तरतीबवार दर्ज करना निःसंदेह दुरूह रहा होगा ! शायद इसीलिए वे अपनी आत्मकथा को ‘आधे-अधूरे सत्य से ज्यादा कुछ’ होने का दावा नहीं करती ! उनके मुताबिक यह स्थितियों और घटनाओ के पारावार का उनका अपना पाठ है ! वे खुले मन से मानती हैं कि ‘‘...जो व्यक्ति उनमें साझीदार रहे हैं, जिन्होंने बराबर से मित्र या शत्रु या तटस्थ भाव से उनमें साझीदारी की है, सत्य का दूसरा सिरा तो उनके हाथ में है !’’ और यह इस आत्मकथा की बहुत बड़ी विशेषता है कि इसमें लेखिका स्वयं को बिलकुल निष्कवच भाव से प्रस्तुत करती हैं !

स्तब्धकारी साफगोई से लबरेज इस कृति में ऐसी लोकतांत्रिकता इस बात का सुबूत है कि इसमें जीवन-सत्य का उद्घाटन ही मूल उद्देश्य है ! दरअसल जीवट और उम्मीद के अंतर्गुमिफ्त सत्य से संचालित जीवन की यह अविस्मरणीय कथा जीवन की रणनीति का पाठ भी है ! मनुष्य की अपराजेयता में विश्वास जगानेवाली एक प्रेरक कृति है ज़माने में हम !

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