उपन्यास >> अनारो अनारोमंजुल भगत
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अनारो...
‘‘माया सन-सन कर रहा था। टाँगों के बीच जैसे पनाला बह रहा है।...कहाँ गया गंजी का बाप ?...दिल डूब रहा है...अनारो, तू डूब चली...उड़ चली तू...अनारो, उड़ मत...धरती ? धरती कहाँ गई ?...पाँव टेक ले...हिम्मत कर...थाम ले रे...नन्दलाल। हमें बेटी ब्याहनी है।...यहाँ तो दलदल बन गया।...मैं सन गई पूरी की पूरी...हाय। नन्दलाल...गंजी...छोटू।’’
महानगरीय झुग्गी कॉलोनी में रहकर कोठियों में खटनेवाली अनारो की इस चीख में किसी एक अनारो की नहीं, बल्कि प्रत्येक उस स्त्री की त्रासदी छुपी है जो आर्थिक अभावों, सामाजिक रूढ़ियों और पुरुष अत्याचार के पहाड़ ढोते हुए भी सम्मान सहित जीने का संघर्ष करती है। सौत, गरीबी और बच्चे; नन्दलाल ने उसे क्या नहीं दिया ? फिर भी वह उसकी ब्याहता है, उस पर गुमान करती है और चाहती है कि कारज-त्यौहार में वह उकसे बराबर तो खड़ा रहे। दरअसल अनारो दुख और जीवट से एक साथ रची गई ऐसी मूरत है, जिसमें उसके वर्ग की सारी भयावह सच्चाइयाँ पूंजीभूत हो उठी हैं।
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