अतिरिक्त >> तांत्रिक संभोग और समाधि - तंत्र सूत्र भाग 3 तांत्रिक संभोग और समाधि - तंत्र सूत्र भाग 3ओशो
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तांत्रिक संभोग और समाधि - तंत्र सूत्र भाग 3 ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी पड़ेगी
और हम जहां खड़े हैं, अगर वह भूमि,
उस भूमि से नहीं जुड़ी है, जहां हमें पहुंचना है,
तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं।’’
और हम जहां खड़े हैं, अगर वह भूमि,
उस भूमि से नहीं जुड़ी है, जहां हमें पहुंचना है,
तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं।’’
प्रस्तुत पुस्तक विज्ञान भैरव तंत्र में शिव द्वारा पार्वती को आत्म-रूपांतरण के लिए बताई एक सौ बारह विधियों में से अड़तालीस से बहत्तर विधियों पर ओशो द्वारा दिए गए प्रवचनों को समाहित करती है।
इस पुस्तक में उल्लिखित कुछ विधियां :
• काम-कृत्य के बीच स्व-स्मरण के सूत्र
• कामनाओं में अनुद्विग्न रहने की विधि
• मन को बनाएं ध्यान का द्वार
• निराश क्षणों का उपयोग
इस पुस्तक में उल्लिखित कुछ विधियां :
• काम-कृत्य के बीच स्व-स्मरण के सूत्र
• कामनाओं में अनुद्विग्न रहने की विधि
• मन को बनाएं ध्यान का द्वार
• निराश क्षणों का उपयोग
भूमिका
तंत्र : जीवन का समग्र स्वीकार
तंत्र अद्वैत दर्शन है। जीवन को उसकी समग्रता में तंत्र स्वीकार करता है-बुरे को भी, अशुभ को भी, अंधकार को भी। इसलिए नहीं कि अंधकार अंधकार रहे, इसलिए नहीं कि बुरा बुरा रहे, इसलिए नहीं कि अशुभ अशुभ रहे, बल्कि इसलिए कि अशुभ के भीतर भी रूपांतरित होकर शुभ होने की संभावना है। अंधकार भी निखर कर प्रकाश हो सकता है। और जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह भी अपनी परम गहराइयों में परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
तंत्र अद्वैत है। उस एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही नहीं।...
तंत्र, जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता है। इस बात को पहले समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसी आधार पर तंत्र ने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के विज्ञान को विकसित किया है। तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा दिव्य-ऊर्जा का पार्थिवीकरण है। तंत्र की दृष्टि में सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा, ब्रह्म की ही पहली सीढ़ी है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि तंत्र चाहता है कि व्यक्ति काम में डूबा रहे। इसका इतना ही अर्थ है कि हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी पड़ेगी; और हम जहां खड़े हैं अगर वह भूमि, उस भूमि से नहीं जुड़ी है जहां हमें पहुंचना है, तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं। मनुष्य काम में खड़ा है।
मनुष्य काम में, काम की भूमि में, मौजूद है। जहां हम अपने को प्रकृति की तरफ से पाते हैं, वह बिंदु काम का, सेक्स का बिंदु है। प्रकृति हमें वहीं खड़ा किए हुए है। कोई भी यात्रा इस बिंदु से ही होगी। अब इस बिंदु से हम दो तरह की यात्रा कर सकते हैं।
एक, जो साधारणत: लोग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कभी कर नहीं पाते, वह यह कि हम अपनी स्थिति से लड़ना शुरू कर दें। हम जहां खड़े हैं, उस भूमि के दुश्मन हो जायें, अर्थात हम अपने ही दुश्मन हो जायें और अपने को ही दो हिस्सों में खंडित कर लें। एक वह हिस्सा, जिसकी हम निंदा करते हैं, जो हम हैं। और एक वह हिस्सा जिसकी हम प्रशंसा करते हैं, जो हम अभी नहीं हैं, जो हम होना चाहते हैं। हम अपने को दो हिस्सों में तोड़ लें : जो है और जो होना चाहिए।
और जब भी कोई व्यक्ति अपने को ऐसे दो खंडों में तोड़ता है तो पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए कि जिसे वह इनकार कर रहा है वही वह है, और जिसे वह स्वीकार कर रहा है वही वह नहीं है। उसका सारा जीवन अब एक बहुत बेहूदे, एब्सर्ड संघर्ष में उतर जाएगा। जो वह नहीं है, समझना चाहेगा कि मैं हूं, और जो वह है उसे इनकार करना चाहेगा कि वह मैं नहीं हूं। ऐसे व्यक्ति केवल विक्षिप्त हो सकते हैं। तंत्र की दृष्टि में यह अंतर-कलह है।...
तंत्र कहता है, ठहर जाओ। गवाह बन जाओ। साक्षी बन जाओ। देखो, निर्णय मत लो, व्याख्या मत करो, पक्ष-विपक्ष मत चुनो, प्रशंसा नहीं, निंदा नहीं। खड़े रह जाओ। बस एक बार देख लो। स्टैंड स्टिल। और जैसे ही कोई एक क्षण को खड़ा हो गया, तत्काल एक क्षण को लगता है कि ठहर गई, क्योंकि बाहर जाना तत्काल बंद हो जाता है, और दूसरे क्षण पता चलता है कि धारा भीतर की तरफ बहने लगी।
बाहर की तरफ बहना नीचे की तरफ बहना है। भीतर की तरफ बहना ऊपर की तरफ बहना है। भीतर और ऊपर पर्यायवाची हैं, इस अंतर्यात्रा में। बाहर और नीचे पर्यायवाची हैं, इस साधना में। और जैसे ही ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है तो अंतर्मैंथुन शुरू होता है। वह तंत्र की अपनी अदभुत कला की बात है अंतर्मैंथुन।
एक संभोग है जो व्यक्ति दूसरे से करता है, एक रति है, एक संबंध है जो व्यक्ति अपने विरोधी से, अपोजिट सेक्स से निर्मित करता है। पुरुष स्त्री से या स्त्री पुरुष से। लेकिन जब भीतर की तरफ यात्रा शुरू होती है तो अपने ही भीतरी केंद्रों पर संबंध निर्मित होने शुरू हो जाते हैं। एक मूलाधार जब दूसरे मूलाधार से संबंधित होता है तो यौन घटित होता है। वे भी दो चक्र हैं। उनके मिलने से यौन घटित होता है। क्षण भर का सुख घटित होता है। जैसे ही मूलाधार से शक्ति भीतर के दूसरे चक्र की तरफ बहना शुरू होती है, दूसरे चक्र पर मिलन घटित होता है। दो चक्र फिर मिलते हैं, लेकिन यह अंतर-चक्रों का मिलन है, और तंत्र शुरू हो गया। अंतर्मैंथुन शुरू हुआ।
ऐसे सात चक्र हैं और प्रत्येक चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है तो और गहरे आनंद और गहरे आनंद का अनुभव होता है, और सातवें चक्र पर ऊर्जा के बहने पर परम आनंद का विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाता है। उसके बाद कोई चक्र नहीं है। उसके बाद ऊर्जा परम ब्रह्म से एक हो जाती है।
तंत्र अद्वैत है। उस एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही नहीं।...
तंत्र, जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता है। इस बात को पहले समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसी आधार पर तंत्र ने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के विज्ञान को विकसित किया है। तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा दिव्य-ऊर्जा का पार्थिवीकरण है। तंत्र की दृष्टि में सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा, ब्रह्म की ही पहली सीढ़ी है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि तंत्र चाहता है कि व्यक्ति काम में डूबा रहे। इसका इतना ही अर्थ है कि हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी पड़ेगी; और हम जहां खड़े हैं अगर वह भूमि, उस भूमि से नहीं जुड़ी है जहां हमें पहुंचना है, तो फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं। मनुष्य काम में खड़ा है।
मनुष्य काम में, काम की भूमि में, मौजूद है। जहां हम अपने को प्रकृति की तरफ से पाते हैं, वह बिंदु काम का, सेक्स का बिंदु है। प्रकृति हमें वहीं खड़ा किए हुए है। कोई भी यात्रा इस बिंदु से ही होगी। अब इस बिंदु से हम दो तरह की यात्रा कर सकते हैं।
एक, जो साधारणत: लोग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कभी कर नहीं पाते, वह यह कि हम अपनी स्थिति से लड़ना शुरू कर दें। हम जहां खड़े हैं, उस भूमि के दुश्मन हो जायें, अर्थात हम अपने ही दुश्मन हो जायें और अपने को ही दो हिस्सों में खंडित कर लें। एक वह हिस्सा, जिसकी हम निंदा करते हैं, जो हम हैं। और एक वह हिस्सा जिसकी हम प्रशंसा करते हैं, जो हम अभी नहीं हैं, जो हम होना चाहते हैं। हम अपने को दो हिस्सों में तोड़ लें : जो है और जो होना चाहिए।
और जब भी कोई व्यक्ति अपने को ऐसे दो खंडों में तोड़ता है तो पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए कि जिसे वह इनकार कर रहा है वही वह है, और जिसे वह स्वीकार कर रहा है वही वह नहीं है। उसका सारा जीवन अब एक बहुत बेहूदे, एब्सर्ड संघर्ष में उतर जाएगा। जो वह नहीं है, समझना चाहेगा कि मैं हूं, और जो वह है उसे इनकार करना चाहेगा कि वह मैं नहीं हूं। ऐसे व्यक्ति केवल विक्षिप्त हो सकते हैं। तंत्र की दृष्टि में यह अंतर-कलह है।...
तंत्र कहता है, ठहर जाओ। गवाह बन जाओ। साक्षी बन जाओ। देखो, निर्णय मत लो, व्याख्या मत करो, पक्ष-विपक्ष मत चुनो, प्रशंसा नहीं, निंदा नहीं। खड़े रह जाओ। बस एक बार देख लो। स्टैंड स्टिल। और जैसे ही कोई एक क्षण को खड़ा हो गया, तत्काल एक क्षण को लगता है कि ठहर गई, क्योंकि बाहर जाना तत्काल बंद हो जाता है, और दूसरे क्षण पता चलता है कि धारा भीतर की तरफ बहने लगी।
बाहर की तरफ बहना नीचे की तरफ बहना है। भीतर की तरफ बहना ऊपर की तरफ बहना है। भीतर और ऊपर पर्यायवाची हैं, इस अंतर्यात्रा में। बाहर और नीचे पर्यायवाची हैं, इस साधना में। और जैसे ही ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है तो अंतर्मैंथुन शुरू होता है। वह तंत्र की अपनी अदभुत कला की बात है अंतर्मैंथुन।
एक संभोग है जो व्यक्ति दूसरे से करता है, एक रति है, एक संबंध है जो व्यक्ति अपने विरोधी से, अपोजिट सेक्स से निर्मित करता है। पुरुष स्त्री से या स्त्री पुरुष से। लेकिन जब भीतर की तरफ यात्रा शुरू होती है तो अपने ही भीतरी केंद्रों पर संबंध निर्मित होने शुरू हो जाते हैं। एक मूलाधार जब दूसरे मूलाधार से संबंधित होता है तो यौन घटित होता है। वे भी दो चक्र हैं। उनके मिलने से यौन घटित होता है। क्षण भर का सुख घटित होता है। जैसे ही मूलाधार से शक्ति भीतर के दूसरे चक्र की तरफ बहना शुरू होती है, दूसरे चक्र पर मिलन घटित होता है। दो चक्र फिर मिलते हैं, लेकिन यह अंतर-चक्रों का मिलन है, और तंत्र शुरू हो गया। अंतर्मैंथुन शुरू हुआ।
ऐसे सात चक्र हैं और प्रत्येक चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है तो और गहरे आनंद और गहरे आनंद का अनुभव होता है, और सातवें चक्र पर ऊर्जा के बहने पर परम आनंद का विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाता है। उसके बाद कोई चक्र नहीं है। उसके बाद ऊर्जा परम ब्रह्म से एक हो जाती है।
- ओशो
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