अतिरिक्त >> आत्म साधना - तंत्र सूत्र भाग 4 आत्म साधना - तंत्र सूत्र भाग 4ओशो
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आत्म साधना - तंत्र सूत्र भाग 4 ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘अगर तुम नहीं जानते कि क्या करना चाहिए,
तो बेहतर है कि कुछ भी मत करो, क्योंकि
जाने बिना तुम जो भी करोगे उससे समाधान
के बजाय उलझाव ही अधिक पैदा होगा।’’
तो बेहतर है कि कुछ भी मत करो, क्योंकि
जाने बिना तुम जो भी करोगे उससे समाधान
के बजाय उलझाव ही अधिक पैदा होगा।’’
प्रस्तुत पुस्तक विज्ञान भैरव तंत्र में शिव द्वारा पार्वती को आत्म-रूपांतरण के लिए बताई एक बारह विधियों में से तिहत्तर से इक्यानवेवीं विधियों पर ओशो द्वारा दिए गए प्रवचनों को समाहित करती है।
इस पुस्तक में उल्लिखित कुछ विधियां :
• शुद्ध ध्यान का विकास
• शरीर की आसक्ति से मुक्त होने की विधि
• आकाश शरीर का अनुभव
• स्वयं के असीम होने की अनुभूति
इस पुस्तक में उल्लिखित कुछ विधियां :
• शुद्ध ध्यान का विकास
• शरीर की आसक्ति से मुक्त होने की विधि
• आकाश शरीर का अनुभव
• स्वयं के असीम होने की अनुभूति
भूमिका
ये विधियां क्रांतिकारी हैं
मैंने एक बूढ़े डाक्टर के संबंध में एक कहानी सुनी है। एक दिन उसके सहायक ने उसे फोन किया, क्योंकि वह बड़ी कठिनाई में पड़ गया था। एक रोगी का दम घुट रहा था; रोगी के गले में बिलियर्ड की गेंद अटक गई थी। सहायक को समझ नहीं पड़ रहा था कि क्या करे। तो उसने बूढ़े डाक्टर से पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए ? बूढ़े डाक्टर ने कहा : ‘एक पंख से रोगी को गुदगुदाओ।’
कुछ मिनटों बाद सहायक ने फिर डाक्टर को फोन किया। वह बहुत प्रसन्न था, खुश था। उसने कहा : ‘आपका इलाज तो अदभुत सिद्ध हुआ। रोगी हंसने लगा और उसने गेंद को उगल दिया। लेकिन मुझे बताइए कि आपने यह अनोखा इलाज कहां सीखा ?’
बूढ़े डाक्टर ने कहा : ‘मैंने खुद ही गढ़ लिया था। यह सदा मेरा सिद्धांत रहा है कि जब तुम्हें कुछ न सूझे कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो।’
लेकिन जहां तक ध्यान का संबंध है, यह सिद्धांत नहीं चलेगा। अगर तुम्हें नहीं मालूम है कि क्या किया जाए तो कुछ मत करो। क्योंकि मन बहुत जटिल है, बहुत पेचीदा है और नाजुक है। अगर तुम नहीं जानते हो कि क्या करना चाहिए तो बेहतर है कि कुछ भी मत करो। क्योंकि जाने बिना तुम जो भी करोगे उससे समाधान की बजाय उलझाव ही अधिक पैदा होगा। वह घातक भी सिद्ध हो सकता है, आत्मघातक भी सिद्ध हो सकता है।
अगर तुम मन के बारे में कुछ नहीं जानते हो...। और सच तो यही है कि तुम मन के बारे में कुछ भी नहीं जानते हो। तुम्हारे लिए मन एक शब्द भर है; तुम्हें उसकी जटिलता का कुछ ज्ञान नहीं है। मन अस्तित्व में सर्वाधिक जटिल चीज है; उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती है; और मन सर्वाधिक नाजुक भी है; तुम उसे नष्ट कर दे सकते हो। तुम उसके साथ कुछ ऐसा कर सकते हो, जिसे फिर अनकिया न किया जा सके।
ये विधियां मनुष्य के मन के गहन ज्ञान पर, मन के सघन साक्षात्कार पर आधारित हैं। और प्रत्येक विधि लंबे प्रयोगों से गुजर कर बनी है।
इसलिए ध्यान रहे, कोई भी चीज अपनी तरफ से मत करो। और दो विधियों को मिला कर प्रयोग मत करो; क्योंकि उनकी प्रक्रिया भिन्न है; उनके ढंग भिन्न हैं। कभी-कभी तो वे एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत हो सकती हैं। तो दो विधियों को मत मिलाओ। किसी भी विधि में कुछ मत मिलाओ; विधि जैसी दी हुई है उसे वैसी ही प्रयोग करो। उसमें कोई बदलाहट मत करो, उसमें कोई सुधार मत करो। क्योंकि तुम उसमें कोई सुधार नहीं कर सकते; और तुम उसमें जो भी बदलाहट करोगे, वह घातक होगा।
और ध्यान रहे, किसी भी विधि को प्रयोग में लाने के पहले उसे सावधानी से भली-भांति समझ लो। और अगर तुम्हें कोई उलझन हो और अगर तुम नहीं जानते हो कि विधि वस्तुत: क्या है, तो बेहतर है कि उसे प्रयोग में मत लाओ, क्योंकि प्रत्येक विधि तुममें एक आमूल क्रांति लाने के लिए है।
ये विधियां विकासकारी नहीं हैं; ये क्रांतिकारी हैं। विकास से मेरा मतलब है कि अगर तुम कुछ न करो, बस जीते चले जाओ, तो कभी करोड़ों वर्षों में ध्यान तुम्हें अपने आप ही घटित होगा, लाखों जन्मों में तुम विकसित होगे; समय के सामान्य क्रम में कभी तुम उस बिंदु पर पहुंचोगे जहां कोई बुद्ध क्रांति के द्वारा एक क्षण में पहुंच जाते हैं।
तो ये विधियां क्रांतिकारी विधियां हैं। सच तो यह है कि ये मनुष्य-निर्मित हैं; ये प्राकृतिक नहीं हैं। प्रकृति भी तुम्हें बुद्धत्व पर, आत्मोपलब्धि पर पहुंचा देगी, तुम किसी-न-किसी दिन उसे जरूर पा लोगे; लेकिन तब फिर यह बात प्रकृति के हाथ में है। तुम उसके लिए सिर्फ दुख में रहे आने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते हो। उसके लिए बहुत लंबा समय चाहिए-करोड़ों वर्ष, करोड़ों जन्म।
धर्म क्रांतिकारी है। धर्म तुम्हें विधि देता है जो लंबी प्रक्रिया को कम करती है, जिससे तुम छलांग लगा सकते हो-ऐसी छलांग जो तुम्हें कराड़ों जन्मों से बचा सकती है। एक क्षण में तुम करोड़ों वर्ष की यात्रा पूरी कर सकते हो।
इसीलिए यह खतरनाक भी है; और जब तक तुम ठीक-ठाक नहीं समझते हो, मत प्रयोग करो। और अपनी ओर से उसमें कुछ मत जोड़ो; कुछ मत बदलो। पहले विधि को बिलकुल सही-सही समझने की चेष्टा करो। और जब तुम उसे समझ जाओ तो प्रयोग करो। और इस बूढ़े डाक्टर के सिद्धांत को मत काम में लाओ कि जब तुम्हें नहीं पता हो कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो। नहीं, कुछ मत करो। न करना करने से कहीं ज्यादा लाभदायक होगा। इसलिए क्योंकि मन इतना नाजुक है कि अगर तुम कुछ गलत कर गए तो उसे अनकिया करना बहुत कठिन होगा। उसे अनकिया करना बहुत-बहुत कठिन है। कुछ गलत कर बैठना आसान है, लेकिन उसे अनकिया करना बहुत कठिन है। इसे स्मरण रखो।
कुछ मिनटों बाद सहायक ने फिर डाक्टर को फोन किया। वह बहुत प्रसन्न था, खुश था। उसने कहा : ‘आपका इलाज तो अदभुत सिद्ध हुआ। रोगी हंसने लगा और उसने गेंद को उगल दिया। लेकिन मुझे बताइए कि आपने यह अनोखा इलाज कहां सीखा ?’
बूढ़े डाक्टर ने कहा : ‘मैंने खुद ही गढ़ लिया था। यह सदा मेरा सिद्धांत रहा है कि जब तुम्हें कुछ न सूझे कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो।’
लेकिन जहां तक ध्यान का संबंध है, यह सिद्धांत नहीं चलेगा। अगर तुम्हें नहीं मालूम है कि क्या किया जाए तो कुछ मत करो। क्योंकि मन बहुत जटिल है, बहुत पेचीदा है और नाजुक है। अगर तुम नहीं जानते हो कि क्या करना चाहिए तो बेहतर है कि कुछ भी मत करो। क्योंकि जाने बिना तुम जो भी करोगे उससे समाधान की बजाय उलझाव ही अधिक पैदा होगा। वह घातक भी सिद्ध हो सकता है, आत्मघातक भी सिद्ध हो सकता है।
अगर तुम मन के बारे में कुछ नहीं जानते हो...। और सच तो यही है कि तुम मन के बारे में कुछ भी नहीं जानते हो। तुम्हारे लिए मन एक शब्द भर है; तुम्हें उसकी जटिलता का कुछ ज्ञान नहीं है। मन अस्तित्व में सर्वाधिक जटिल चीज है; उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती है; और मन सर्वाधिक नाजुक भी है; तुम उसे नष्ट कर दे सकते हो। तुम उसके साथ कुछ ऐसा कर सकते हो, जिसे फिर अनकिया न किया जा सके।
ये विधियां मनुष्य के मन के गहन ज्ञान पर, मन के सघन साक्षात्कार पर आधारित हैं। और प्रत्येक विधि लंबे प्रयोगों से गुजर कर बनी है।
इसलिए ध्यान रहे, कोई भी चीज अपनी तरफ से मत करो। और दो विधियों को मिला कर प्रयोग मत करो; क्योंकि उनकी प्रक्रिया भिन्न है; उनके ढंग भिन्न हैं। कभी-कभी तो वे एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत हो सकती हैं। तो दो विधियों को मत मिलाओ। किसी भी विधि में कुछ मत मिलाओ; विधि जैसी दी हुई है उसे वैसी ही प्रयोग करो। उसमें कोई बदलाहट मत करो, उसमें कोई सुधार मत करो। क्योंकि तुम उसमें कोई सुधार नहीं कर सकते; और तुम उसमें जो भी बदलाहट करोगे, वह घातक होगा।
और ध्यान रहे, किसी भी विधि को प्रयोग में लाने के पहले उसे सावधानी से भली-भांति समझ लो। और अगर तुम्हें कोई उलझन हो और अगर तुम नहीं जानते हो कि विधि वस्तुत: क्या है, तो बेहतर है कि उसे प्रयोग में मत लाओ, क्योंकि प्रत्येक विधि तुममें एक आमूल क्रांति लाने के लिए है।
ये विधियां विकासकारी नहीं हैं; ये क्रांतिकारी हैं। विकास से मेरा मतलब है कि अगर तुम कुछ न करो, बस जीते चले जाओ, तो कभी करोड़ों वर्षों में ध्यान तुम्हें अपने आप ही घटित होगा, लाखों जन्मों में तुम विकसित होगे; समय के सामान्य क्रम में कभी तुम उस बिंदु पर पहुंचोगे जहां कोई बुद्ध क्रांति के द्वारा एक क्षण में पहुंच जाते हैं।
तो ये विधियां क्रांतिकारी विधियां हैं। सच तो यह है कि ये मनुष्य-निर्मित हैं; ये प्राकृतिक नहीं हैं। प्रकृति भी तुम्हें बुद्धत्व पर, आत्मोपलब्धि पर पहुंचा देगी, तुम किसी-न-किसी दिन उसे जरूर पा लोगे; लेकिन तब फिर यह बात प्रकृति के हाथ में है। तुम उसके लिए सिर्फ दुख में रहे आने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते हो। उसके लिए बहुत लंबा समय चाहिए-करोड़ों वर्ष, करोड़ों जन्म।
धर्म क्रांतिकारी है। धर्म तुम्हें विधि देता है जो लंबी प्रक्रिया को कम करती है, जिससे तुम छलांग लगा सकते हो-ऐसी छलांग जो तुम्हें कराड़ों जन्मों से बचा सकती है। एक क्षण में तुम करोड़ों वर्ष की यात्रा पूरी कर सकते हो।
इसीलिए यह खतरनाक भी है; और जब तक तुम ठीक-ठाक नहीं समझते हो, मत प्रयोग करो। और अपनी ओर से उसमें कुछ मत जोड़ो; कुछ मत बदलो। पहले विधि को बिलकुल सही-सही समझने की चेष्टा करो। और जब तुम उसे समझ जाओ तो प्रयोग करो। और इस बूढ़े डाक्टर के सिद्धांत को मत काम में लाओ कि जब तुम्हें नहीं पता हो कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो। नहीं, कुछ मत करो। न करना करने से कहीं ज्यादा लाभदायक होगा। इसलिए क्योंकि मन इतना नाजुक है कि अगर तुम कुछ गलत कर गए तो उसे अनकिया करना बहुत कठिन होगा। उसे अनकिया करना बहुत-बहुत कठिन है। कुछ गलत कर बैठना आसान है, लेकिन उसे अनकिया करना बहुत कठिन है। इसे स्मरण रखो।
- ओशो
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