अतिरिक्त >> कोई मैं झूठ बोलया कोई मैं झूठ बोलयाप्रेम जनमेजय
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कोई मैं झूठ बोलया...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेम जनमेजय व्यंग्य-लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में विश्वास नहीं करते हैं। उनका मानना है कि व्यंग्य लेखन के अनेक उपमान मैले हो चुके हैं। बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की। व्यंग्य को एक गंभीर तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा मानने वाले प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। पिछले बयालीस वर्षों से साहित्य रचना में सृजनरत इस साहित्यकार ने हिंदी व्यंग्य को सही दिशा देने में सार्थक भूमिका निभाई है। परंपरागत विषयों से हटकर प्रेम जनमेजय ने समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों तथा सांस्कृतिक प्रदूषण को चित्रित किया है। ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादन द्वारा हिंदी व्यंग्य में एक नया मापदंड प्रस्तुत किया है। हिंदी के अनेक आलोचकों/लेखकों-नामवर सिंह, नित्यांनद तिवारी, निर्मला जैन, कन्हैयालाल नंदन, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, रामदरश मिश्र, गोपाल चतुर्वेदी, ज्ञान चतुर्वेदी आदि ने प्रेम जनमेजय के व्यंग्य लेखन पर सकारात्मक लिखा है। धारदार, चुटीले तथा सात्त्विक व्यंग्य-रचनाओं का पठनीय संग्रह।
बीती काहे बिसारूँ...
अकसर, यदि हमें हमारा दुष्ट वर्तमान दुखी करने लगता है और अतीत बनने के बाद भी दुष्टता निरंतर रखता है तो सलाहकारों से सुनने को मिलता है-‘बीती ताहे बिसार दे, आगे की सुध ले।’ अतीत चाहे सुखद हो या दुखद, बीतता कहाँ है ? और अतीत के कुछ अविस्मरणीय पल वर्तमान का निरंतर हिस्सा बने ही रहते हैं। हम कहाँ पहुँच गए हैं, इसका सुख उठाने और दुख भोगने के लिए अतीत की ओर देखना ही पड़ता है। इसलिए अतीत को आप कितना बिसारें वो ‘बिसरता’ नहीं है। और लेखक का रचनात्मक अतीत तो निरंतर उसके साथ रहता ही है।
‘कोई मैं झूठ बोलया’ मेरी न बिसारनेवाली व्यंग्य रचनाओं का संकलन है। आप भी सोच रहे होंगे कि यह अपने पाठकों से कैसा प्रश्न है-कोई मैं झूठ बोलया ? यह तो ऐसा ही सवाल हुआ कि व्यंग्य रचनाओं का संकलन करते हुए मैं आपसे पूछूँ-क्या मैंने व्यंग्य लिखा ? ऐसे प्रश्न व्यंग्य की विवशता हैं। परसाई और शरद जोशी तक चिंतित थे कि व्यंग्य लेखक लिखते-लिखते मर जाएँगे और आलोचक पूछेंगे, कहाँ है व्यंग्य। व्यंग्य विधा के सवाल को लेकर अब भी तलवारें चल जाती हैं। व्यंग्य विधा का सवाल कश्मीर-समस्या जैसा हो गया है जो जब चाहे उत्पन्न हो जाता है। ऐसे प्रश्नों का प्रश्न बने रहना ही उनका उत्तर है। परंतु हे पाठको ! अपनी व्यंग्य रचनाओं को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए यदि मैं आपसे प्रश्न कर रहा हूँ कि ‘कोई मैं झूठ बोलया’ तो यह व्यंग्य विधा जैसा सवाल नहीं है। वैसे तो व्यंग्यकार कोई विशिष्ट साहित्यिक जंतु नहीं है, उसके भी वही सामाजिक सरोकार हैं जो किसी भी साहित्यकार के हो सकते हैं, परंतु अपनी भिन्न रचना प्रक्रिया एवं भाषा शैली के चलते कुछ भिन्न भी हो जाता है। उसका एकमात्र लक्ष्य विसंगतियों को प्रत्यक्ष कर उसके पीछे सत्य को साक्षात् करना है। आप तो जानते ही हैं कि सत्य के भी अनेक पहलू होते हैं। किसी मुकदमे में पक्ष और विपक्ष के वकीलों के अपने-अपने सच होते हैं, चोर और पुलिस के सच कभी एक जैसे लगते हैं और कभी अलग-अलग लगते हैं। प्रकाश सत्य का प्रतीक होता है और अंधकार असत्य का। परंतु अनेक बार लगता है कि अँधेरा उजाले की शक्ल लेकर हमारे पास आ गया है। हम जैसे-जेसे भौतिक प्रगति के उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे-वैसे अजनबीपन के सुरमई अँधेरे के मोहपाश में बँधते जा रहे हैं। अकेलेपन का अँधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं, अँधेरा बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहनकर सामने आता है। किसी भी समाज के जीवन में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके उजले हिस्से अँधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण करने को लालायित दिखने लगते हैं। उजाले की तरह आज हमने अँधेरे भी बाँट लिए हैं और यही कारण है कि हम अपने-अपने अँधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं। ये हमारे ‘सद्प्रयत्नों’ का फल है कि हम अपने अँधेरे को मिटता देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अँधेरे को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं। बड़ा उलझाऊपूर्ण परिदृश्य है। ऐसे उलझाऊपूर्ण परिदृश्य में यह प्रश्त पूछना-कोई मैं झूठ बोलया, गलत तो नहीं ?
मैं अत्यधिक आभारी हूँ अपने परिवार का, और विशेष रूप से अपने पौत्रों एवं पौत्री-रुचिर, हिमांक एवं तन्वी-का कि वे अपने समय में से मुझे ‘कृपापूर्वक’ समय प्रदान कर देते हैं जिससे मैं सृजन-सुख का आनंद उठा सकूँ।
‘कोई मैं झूठ बोलया’ मेरी न बिसारनेवाली व्यंग्य रचनाओं का संकलन है। आप भी सोच रहे होंगे कि यह अपने पाठकों से कैसा प्रश्न है-कोई मैं झूठ बोलया ? यह तो ऐसा ही सवाल हुआ कि व्यंग्य रचनाओं का संकलन करते हुए मैं आपसे पूछूँ-क्या मैंने व्यंग्य लिखा ? ऐसे प्रश्न व्यंग्य की विवशता हैं। परसाई और शरद जोशी तक चिंतित थे कि व्यंग्य लेखक लिखते-लिखते मर जाएँगे और आलोचक पूछेंगे, कहाँ है व्यंग्य। व्यंग्य विधा के सवाल को लेकर अब भी तलवारें चल जाती हैं। व्यंग्य विधा का सवाल कश्मीर-समस्या जैसा हो गया है जो जब चाहे उत्पन्न हो जाता है। ऐसे प्रश्नों का प्रश्न बने रहना ही उनका उत्तर है। परंतु हे पाठको ! अपनी व्यंग्य रचनाओं को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए यदि मैं आपसे प्रश्न कर रहा हूँ कि ‘कोई मैं झूठ बोलया’ तो यह व्यंग्य विधा जैसा सवाल नहीं है। वैसे तो व्यंग्यकार कोई विशिष्ट साहित्यिक जंतु नहीं है, उसके भी वही सामाजिक सरोकार हैं जो किसी भी साहित्यकार के हो सकते हैं, परंतु अपनी भिन्न रचना प्रक्रिया एवं भाषा शैली के चलते कुछ भिन्न भी हो जाता है। उसका एकमात्र लक्ष्य विसंगतियों को प्रत्यक्ष कर उसके पीछे सत्य को साक्षात् करना है। आप तो जानते ही हैं कि सत्य के भी अनेक पहलू होते हैं। किसी मुकदमे में पक्ष और विपक्ष के वकीलों के अपने-अपने सच होते हैं, चोर और पुलिस के सच कभी एक जैसे लगते हैं और कभी अलग-अलग लगते हैं। प्रकाश सत्य का प्रतीक होता है और अंधकार असत्य का। परंतु अनेक बार लगता है कि अँधेरा उजाले की शक्ल लेकर हमारे पास आ गया है। हम जैसे-जेसे भौतिक प्रगति के उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे-वैसे अजनबीपन के सुरमई अँधेरे के मोहपाश में बँधते जा रहे हैं। अकेलेपन का अँधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं, अँधेरा बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहनकर सामने आता है। किसी भी समाज के जीवन में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके उजले हिस्से अँधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण करने को लालायित दिखने लगते हैं। उजाले की तरह आज हमने अँधेरे भी बाँट लिए हैं और यही कारण है कि हम अपने-अपने अँधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं। ये हमारे ‘सद्प्रयत्नों’ का फल है कि हम अपने अँधेरे को मिटता देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अँधेरे को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं। बड़ा उलझाऊपूर्ण परिदृश्य है। ऐसे उलझाऊपूर्ण परिदृश्य में यह प्रश्त पूछना-कोई मैं झूठ बोलया, गलत तो नहीं ?
मैं अत्यधिक आभारी हूँ अपने परिवार का, और विशेष रूप से अपने पौत्रों एवं पौत्री-रुचिर, हिमांक एवं तन्वी-का कि वे अपने समय में से मुझे ‘कृपापूर्वक’ समय प्रदान कर देते हैं जिससे मैं सृजन-सुख का आनंद उठा सकूँ।
- प्रेम जनमेजय
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