अतिरिक्त >> मेरी दुनिया मेरे दोस्त मेरी दुनिया मेरे दोस्तखुशवंत सिंह
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मेरी दुनिया मेरे दोस्त...
Meri Duniya Mere Dost - A Hindi Book by Khushwant Singh
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दोस्त-दुश्मन, जानने-पहचानने वाले, घटनाएं, अपने आस-पास के समाज की सोच और उसकी मंशाएं, यहां तक कि भवन, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु कोई नहीं बच पाया खुशवंत सिंह की पैनी नज़र और तेज-तर्रार कलम से। अपने जीवन में जो देखा अनुभव किया, हरेक पर उनकी कुछ यादें और धारणाएं हैं जो इस अत्यंत रोचक पुस्तक में प्रस्तुत हैं। जहां एक ओर मदर टेरेसा और डाकू फूलन देवी से मुलाकातों की दास्तान है, तो वहीं अपने शहर दिल्ली की शानदार इमारतों की बातें और देश में तेजी से बढ़ते ढोंगियों और पाखंडियों का खुलासा किया है। पढ़ना शुरू करें तो आप पन्ने पलटते ही जायेंगे...
खुशवंत सिंह एक प्रख्यात पत्रकार, स्तंभकार और लेखक हैं और उनकी लेखन शैली पाठकों में खासी लोकप्रिय है।
खुशवंत सिंह एक प्रख्यात पत्रकार, स्तंभकार और लेखक हैं और उनकी लेखन शैली पाठकों में खासी लोकप्रिय है।
प्राक्कथन
खुशवंत सिंह स्वातंत्र्योत्तर भारत के विशिष्ट लेखक और पत्रकार हैं। ये पंक्तियाँ लिखते समय वे शतायु को छू रहे हैं-जो अपनी दृष्टि से एक बड़ी बात है। उन्हें जो बहुत-से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, उनमें सुलभ इंटरनेशनल द्वारा दिया ‘वर्ष के सबसे ईमानदार व्यक्ति’ का सम्मान सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो उनका वास्तविक परिचय माना जाना चाहिए।
‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से उनका सम्बन्ध 1967 से है। इस पुस्तक का अनुवादक यानि मैं राजपाल एण्ड सन्ज़ की सहयोगी संस्था ओरिएण्ट पेपरबैक्स के सम्पादक के नाते उनकी कहानियों की पाण्डुलिपि लेने सुजान सिंह पार्क में उनसे मिलने गया था। मुझे सचेत कर दिया गया था कि वे बहुत प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवार के हैं, इसलिए समझ-बूझ के साथ उनसे बातचीत करूँ। ज़्यादा नहीं, फिर भी संकोच से उनके फ्लैट में प्रविष्ट हुआ। अँधेरी गैलरी के अन्त वाले सबसे बड़े कमरे में बाकायदा मेरा इन्तज़ार किया जा रहा था। प्रविष्ट होते ही लगा कि डरने की कोई बात नहीं है, खुशवंत सिंह ने एक नए लेखक को भी जिसने बाद में बहुत प्रतिष्ठा अर्जित की, अपनी पाण्डुलिपि के साथ सम्पादक से मिलने के लिए बैठा रखा था। शराब उस संस्कृति का अंग थी; मुझे ‘नीट’ पीनी पड़ी-हालाँकि तब मैं नीट-वीट की विशेषता नहीं समझता था-उनकी खुशनुमा पत्नी ने पूछा, तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे सका। बातचीत अच्छी रही; ज़्यादा कुछ अब याद नहीं है; लेखक से सहज सम्बन्ध कायम हो गया और हमने उनकी पहली किताब ए ब्राइड कॉर दि साहेब एण्ड अदर स्टोरीज़ छापी।
इसके बाद इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया को ज़रा ज़्यादा ही साहित्यिक और कलात्मक रूप दिए जाने में असफल ए.एस. राजन के सम्पादकत्व (उन्होंने एक बड़ा भारतीय साहित्यांक भी निकाला, जिसमें प्राचीन से आधुनिक काल तक की हिन्दी कविता के चुने हुए अंशों का मेरे द्वारा किया गया अनुवाद भी छपा-जिसके पूरे दो पृष्ठों को यूरोप की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित किया गया।) में पत्रिका की ब्रिकी एकदम धराशायी हो जाने के कारण-क्या यह भारत के बौद्धिक स्तर का परिचायक नहीं है ? - खुशवंत सिंह को उसका दायित्व सौंपा गया- जिसमें निस्संदेह वे आशातीत रूप में सफल हुए। वहाँ लगभग एक दशक बिताने के बाद वे दिल्ली वापस लौटे, तो हमने उनके वीकली में प्रकाशित सामयिक महत्त्व के लेखों का चयन करके पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया। इस समय वे खुद अपनी नई दिल्ली पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे-जो निस्संदेह बहुत स्तरीय निकल रही थी-और संसद मार्ग स्थित उनके कार्यालय में कई दफ़ा जाकर उनके काले शीशे से ढके कमरे में इनकी चर्चा करने की मुझे अच्छी यादें हैं। खैर, यह पत्रिका चलती तो अच्छा होता, लेकिन यह शायद आर्थिक कठिनाइयों और सही व्यवस्था के अभाव की भेंट चढ़ गई।
‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से खुशवंत सिंह की रचनाओं के प्रकाशन का यह सम्बन्ध अब काफी पुराना हो गया है, पैंतालीस वर्ष के लगभग, और अब अंग्रेज़ी में बहुत-सी कृतियाँ छापने के बाद इन्हें हिन्दी में भी उसी उत्साह से छापा जा रहा है-जिसका पूरा श्रेय मीरा जौहरी को जाता है-वह ‘कमिटेड’ महसूस करती हैं।
यह बात बुरी और अच्छी-दोनों ही मानी जानी चाहिए, कि खुशवंत सिंह को पत्रकार ज़्यादा और लेखक कम माना जाता है। लेखक यानी रचनात्मक श्रेणी की कृतियाँ देने वाला। दरअसल ऐसे लेखन का ज़माना काफी पहले से गुज़रता जा रहा है; पहले कविता का देहान्त हुआ, फिर अब उपन्यास-कहानी का भी देहान्त घोषित कर दिया गया है। खुशवंत सिंह ने रचनात्मक कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा वह महत्त्वपूर्ण माना गया-जैसे द्रेन टु पाकिस्तान जो भारत-विभाजन विषय की श्रेष्ठ रचना मानी जाती है, और जिस पर फिल्म भी बनी है। उनकी कुछ कहानियाँ भी प्रथम श्रेणी की हैं, जो उनके समय की जीवन्त तस्वीरें हैं। कविता उन्होंने नहीं लिखी, जो शायद उनके व्यक्तित्व और संस्कृति का अगं नहीं रहा। लेकिन उन्होंने नाटक में जरूर प्रवेश किया, यद्यपि स्वयं ही उसकी उपेक्षा भी की : इसी पुस्तक के साथ हम उनके एक नाटक का अनुवाद अलग से छाप रहे हैं- टाइगर-टाइगर-जो प्रथम श्रेणी का नाटक है, और व्यंग्य नाटक के रूप में अपनी तरह का अकेला है। दुर्भाग्य से वर्षों पहले इसे लिखकर उन्होंने इसे फाइल में ही पड़ा रहने दिया, जिसका उद्धार नन्दिनी मेहता ने पिछले दिनों में ही किया-जब वे प्रस्तुत संकलन के लिए उनकी रचनाओं का चयन कर रही थीं। भारत, और विशेषकर हिन्दी में, नाटक खेलने की परम्परा नहीं रही है, फिर भी प्रस्तुत अनुवादक की राय में, इसे अब भी खेला जा सकता है, जाना चाहिए।
खुशवंत सिंह पत्रकार इसलिए ज्यादा हैं क्योंकि वे पत्रकारिता में ही उलझे रहे। इसे द्वितीय स्तरीय बात मानते हुए भी मैं इसका इस कारण प्रतिकार करना चाहूँगा, क्योंकि इसमें उन्होंने जो योगदान किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने प्रशंसात्मक लेखन की शायद हमेशा से चली आ रही परम्परा को तोड़कर वास्तविक चित्रण-विवेचन की धारा का आरम्भ किया है। उन्होंने अनेक प्रख्यात व्यक्तियों को उनके सही धरातल पर ला खड़ा किया है-और स्वयं अपने साथ भी यही व्यवहार किया है। इसके लिए उन्हें कोर्ट-कचहरी का भी सामना करना पड़ा, लेकिन इसमें वे पूरे ‘सिख’ साबित हुए। धन्यवाद, खुशवंत सिंह जी !
इसी के साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने जिन लोगों पर भी लिखा, उनकी पूरी गहराई से छानबीन की-जिनमें ‘भुट्टो को फाँसी’, ‘फूलन देवी’, ‘मदर टेरेसा’, ‘अमृता शेरगिल’ इत्यादि विशेष उल्लेखनीय हैं-ये इस पुस्तक में प्रकाशित किए जा रहे हैं, इनके अलावा भी अनेक हैं जो मूल अंग्रेज़ी पुस्तक में गए हैं, और जिन्हें शोधपूर्वक एकत्र किया जाना चाहिए। इनमें अमृता प्रीतम पर भी एक लंबी टिप्पणी है, जिसे उन्होंने अमृता के देहान्त के बाद लिखा था।
‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से उनका सम्बन्ध 1967 से है। इस पुस्तक का अनुवादक यानि मैं राजपाल एण्ड सन्ज़ की सहयोगी संस्था ओरिएण्ट पेपरबैक्स के सम्पादक के नाते उनकी कहानियों की पाण्डुलिपि लेने सुजान सिंह पार्क में उनसे मिलने गया था। मुझे सचेत कर दिया गया था कि वे बहुत प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवार के हैं, इसलिए समझ-बूझ के साथ उनसे बातचीत करूँ। ज़्यादा नहीं, फिर भी संकोच से उनके फ्लैट में प्रविष्ट हुआ। अँधेरी गैलरी के अन्त वाले सबसे बड़े कमरे में बाकायदा मेरा इन्तज़ार किया जा रहा था। प्रविष्ट होते ही लगा कि डरने की कोई बात नहीं है, खुशवंत सिंह ने एक नए लेखक को भी जिसने बाद में बहुत प्रतिष्ठा अर्जित की, अपनी पाण्डुलिपि के साथ सम्पादक से मिलने के लिए बैठा रखा था। शराब उस संस्कृति का अंग थी; मुझे ‘नीट’ पीनी पड़ी-हालाँकि तब मैं नीट-वीट की विशेषता नहीं समझता था-उनकी खुशनुमा पत्नी ने पूछा, तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे सका। बातचीत अच्छी रही; ज़्यादा कुछ अब याद नहीं है; लेखक से सहज सम्बन्ध कायम हो गया और हमने उनकी पहली किताब ए ब्राइड कॉर दि साहेब एण्ड अदर स्टोरीज़ छापी।
इसके बाद इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया को ज़रा ज़्यादा ही साहित्यिक और कलात्मक रूप दिए जाने में असफल ए.एस. राजन के सम्पादकत्व (उन्होंने एक बड़ा भारतीय साहित्यांक भी निकाला, जिसमें प्राचीन से आधुनिक काल तक की हिन्दी कविता के चुने हुए अंशों का मेरे द्वारा किया गया अनुवाद भी छपा-जिसके पूरे दो पृष्ठों को यूरोप की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित किया गया।) में पत्रिका की ब्रिकी एकदम धराशायी हो जाने के कारण-क्या यह भारत के बौद्धिक स्तर का परिचायक नहीं है ? - खुशवंत सिंह को उसका दायित्व सौंपा गया- जिसमें निस्संदेह वे आशातीत रूप में सफल हुए। वहाँ लगभग एक दशक बिताने के बाद वे दिल्ली वापस लौटे, तो हमने उनके वीकली में प्रकाशित सामयिक महत्त्व के लेखों का चयन करके पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया। इस समय वे खुद अपनी नई दिल्ली पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे-जो निस्संदेह बहुत स्तरीय निकल रही थी-और संसद मार्ग स्थित उनके कार्यालय में कई दफ़ा जाकर उनके काले शीशे से ढके कमरे में इनकी चर्चा करने की मुझे अच्छी यादें हैं। खैर, यह पत्रिका चलती तो अच्छा होता, लेकिन यह शायद आर्थिक कठिनाइयों और सही व्यवस्था के अभाव की भेंट चढ़ गई।
‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से खुशवंत सिंह की रचनाओं के प्रकाशन का यह सम्बन्ध अब काफी पुराना हो गया है, पैंतालीस वर्ष के लगभग, और अब अंग्रेज़ी में बहुत-सी कृतियाँ छापने के बाद इन्हें हिन्दी में भी उसी उत्साह से छापा जा रहा है-जिसका पूरा श्रेय मीरा जौहरी को जाता है-वह ‘कमिटेड’ महसूस करती हैं।
यह बात बुरी और अच्छी-दोनों ही मानी जानी चाहिए, कि खुशवंत सिंह को पत्रकार ज़्यादा और लेखक कम माना जाता है। लेखक यानी रचनात्मक श्रेणी की कृतियाँ देने वाला। दरअसल ऐसे लेखन का ज़माना काफी पहले से गुज़रता जा रहा है; पहले कविता का देहान्त हुआ, फिर अब उपन्यास-कहानी का भी देहान्त घोषित कर दिया गया है। खुशवंत सिंह ने रचनात्मक कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा वह महत्त्वपूर्ण माना गया-जैसे द्रेन टु पाकिस्तान जो भारत-विभाजन विषय की श्रेष्ठ रचना मानी जाती है, और जिस पर फिल्म भी बनी है। उनकी कुछ कहानियाँ भी प्रथम श्रेणी की हैं, जो उनके समय की जीवन्त तस्वीरें हैं। कविता उन्होंने नहीं लिखी, जो शायद उनके व्यक्तित्व और संस्कृति का अगं नहीं रहा। लेकिन उन्होंने नाटक में जरूर प्रवेश किया, यद्यपि स्वयं ही उसकी उपेक्षा भी की : इसी पुस्तक के साथ हम उनके एक नाटक का अनुवाद अलग से छाप रहे हैं- टाइगर-टाइगर-जो प्रथम श्रेणी का नाटक है, और व्यंग्य नाटक के रूप में अपनी तरह का अकेला है। दुर्भाग्य से वर्षों पहले इसे लिखकर उन्होंने इसे फाइल में ही पड़ा रहने दिया, जिसका उद्धार नन्दिनी मेहता ने पिछले दिनों में ही किया-जब वे प्रस्तुत संकलन के लिए उनकी रचनाओं का चयन कर रही थीं। भारत, और विशेषकर हिन्दी में, नाटक खेलने की परम्परा नहीं रही है, फिर भी प्रस्तुत अनुवादक की राय में, इसे अब भी खेला जा सकता है, जाना चाहिए।
खुशवंत सिंह पत्रकार इसलिए ज्यादा हैं क्योंकि वे पत्रकारिता में ही उलझे रहे। इसे द्वितीय स्तरीय बात मानते हुए भी मैं इसका इस कारण प्रतिकार करना चाहूँगा, क्योंकि इसमें उन्होंने जो योगदान किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने प्रशंसात्मक लेखन की शायद हमेशा से चली आ रही परम्परा को तोड़कर वास्तविक चित्रण-विवेचन की धारा का आरम्भ किया है। उन्होंने अनेक प्रख्यात व्यक्तियों को उनके सही धरातल पर ला खड़ा किया है-और स्वयं अपने साथ भी यही व्यवहार किया है। इसके लिए उन्हें कोर्ट-कचहरी का भी सामना करना पड़ा, लेकिन इसमें वे पूरे ‘सिख’ साबित हुए। धन्यवाद, खुशवंत सिंह जी !
इसी के साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने जिन लोगों पर भी लिखा, उनकी पूरी गहराई से छानबीन की-जिनमें ‘भुट्टो को फाँसी’, ‘फूलन देवी’, ‘मदर टेरेसा’, ‘अमृता शेरगिल’ इत्यादि विशेष उल्लेखनीय हैं-ये इस पुस्तक में प्रकाशित किए जा रहे हैं, इनके अलावा भी अनेक हैं जो मूल अंग्रेज़ी पुस्तक में गए हैं, और जिन्हें शोधपूर्वक एकत्र किया जाना चाहिए। इनमें अमृता प्रीतम पर भी एक लंबी टिप्पणी है, जिसे उन्होंने अमृता के देहान्त के बाद लिखा था।
- महेन्द्र कुलश्रेष्ठ
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