अतिरिक्त >> कुएँ का राज कुएँ का राजनीलाभ
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जासूसी दुनिया का एक महत्वपूर्ण उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
इसके अलावा, वह इमारत जिसकी दीवारों से दरिन्दों की आवाज़ें आती थीं और पूरी इमारत किसी जंगल की तरह गूँजने लगती थी और एक कुआँ जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं।
हिन्दी में हालाँकि शुरुआती उपन्यासकारों में किशोरीलाल गोस्वामी और गोपालराम गहमरी ने ज़रूर जासूसी उपन्यास लिखे और कसरत से लिखे, लेकिन जल्दी ही सामाजिक अथवा ऐतिहासिक उपन्यासों ने उन्हें हाशिये पर धकेल दिया। उर्दू में भी इस धारा का हश्र वही हुआ जो हिन्दी के सिलसिले में देखा गया था। ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ जैसे उपन्यास, जो देवकी नन्दन खत्री या दुर्गा प्रसाद खत्री ने लिखे थे, या इसी तरह के जो तिलिस्मी उपन्यास उर्दू में लिखे गये, वे एक काल्पनिक रूमानी दुनिया की सृष्टि करके उसमें खलता यानी बदमाशी के तानों-बानों को बुनते थे। उन्हें जासूसी उपन्यासों की कोटि में रखना सम्भव भी नहीं है। वे सामन्ती युगीन परिवेश और मानसिकता से ओत-प्रोत थे, जबकि जासूसी उपन्यास एक आधुनिक दिमाग़ की अपेक्षा रखता था। यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विधा के रूप में बज़ाते-ख़ुद उपन्यास पूँजीवाद की देन है। इसी तरह ‘अपराधी कौन?’ का सवाल सामन्ती युग में उठ भी नहीं सकता था। यह तो पूँजीवाद में हुआ कि अपराध के विभिन्न कारणों की छान-बीन शुरू हुई, अपराध विज्ञान की नींव पड़ी और अपराधों को समाज से, व्यक्ति की विकृतियों से जोड़ कर देखा जाने लगा।
एक ज़माना था-एक छोटा-सा अर्सा-जब हिन्दी-उर्दू में जासूसी साहित्य का बोल-बाला था। इलाहाबाद के ‘देश सेवा प्रेस से’ ‘भयंकर भेदिया’ और ‘भयंकर जासूस’ जैसी मासिक जासूसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं जिनके सम्पादक के तौर पर सुराग़रसाँ’ का नाम छपता था। उसी दौर में एम.एल.पाण्डे के जासूसी उपन्यासों की धूम थी। और कहना न होगा कि जासूसी उपन्यासों के इस फलते-फूलते संसार के सम्राट थे जनाब असरार अहमद जिनके उपन्यास ‘जासूसी दुनिया’ मासिक पत्रिका के हर अंक में इब्ने सफ़ी के नाम से प्रकाशित होते थे। दोआबे की मिलवाँ ज़बान, गठे हुए कथानक, अन्त तक सनसनी बनाये रखने की क्षमता और उनके जासूस इन्स्पेक्टर फ़रीदी द्वारा थोड़े-बहुत शारीरिक उद्यम के बावजूद दिमाग़ी कसरत से ही ‘अपराधी कौन?’ का जवाब ढूँढने की कूवत ने इब्ने सफ़ी को निर्विवाद रूप से एक लम्बे समय तक जासूसी उपन्यास के प्रेमियों का चहेता बना रखा था जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है।
फिर इब्ने सफ़ी का यह कमाल था और इसे मैं उनकी उर्दू पृष्ठभूमि ही की देन कहना चाहूँगा कि वे अपने जासूसी उपन्यासों में बड़े चुटीले हास्य-भरे प्रसंग भी बीच-बीच में गूँथ देते। यानी उनके किरदार किसी दूसरी दुनिया के अपराजेय नायक नहीं थे, बल्कि हाड़-माँस के इन्सान थे। कभी-कभार अपराधियों से ग़च्चा भी खा जाते थे। कभी-कभार एक-दूसरे से मज़ाक़ भी कर लेते थे।
‘कुएँ का राज’ इब्ने सफ़ी के उन शुरुआती उपन्यासों में से है जिसमें वे कई तरह की हिकमतें आज़मा-आज़मा कर देख रहे थे। इसमें रहस्य भी है और सनसनी भी, पेचीदगी भी है और हँसी-मज़ाक़ भी और हल्का सा इश्क़ भी। क़िस्सा तब शुरू होता है जब नवाब रशीदुज़्ज़माँ की कोठी में बने पुराने कुएँ से अचानक अंगारों की बौछार होने लगती है, घर की दीवारों से जंगली आवाज़ें आने लगती हैं और पालतू जानवर एक-एक करके मरने लगते हैं। दहशत में भर कर कोठी के लोग ऐसी हरकतें करते हैं कि ग़ज़ाला, जिसे य़कीन है कि यह कोई भूत-नाच नहीं, इन्सानी साज़िश है, फ़रीदी को बुला लाती है। फिर क्या होता है ? किसका पर्दाफ़ाश होता है ? यही ‘कुएँ का राज़’ की अचरज-भरी कहानी है।
- नीलाभ
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