मनोरंजक कथाएँ >> गु्ल्लू और सतरंगी 3 गु्ल्लू और सतरंगी 3श्रीनिवास वत्स
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‘गुल्लू और एक सतरंगी’ का तीसरा खण्ड
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
प्रिय बाल पाठको !
‘गुल्लू और एक सतरंगी’ उपन्यास के पहले दोनों खंड आपने पढ़े। मुझे भरोसा है आपको पसंद आए होंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया एवं समीक्षकों के आलेखों ने मेरे इस विश्वास को और दृढ़ किया है।
तीसरे खंड के प्रारंभ में पहले एवं दूसरे खंड का सार दिया जा रहा है ताकि आपको पूर्व कथानक की स्मृति बनी रहे।
तीसरा खंड लिखते समय मुझे आनंद की विशेष अनुभूति हुई। कारण, चुलबुला विष्णु कर्णपुर जो लौट आया। इस खंड को पढ़ते हुए आपको भी ऐसा लगेगा कि विष्णु की उपस्थिति हमें आह्रादित करती है। मैंने विभिन्न विधाओं में अब तक लगभग तीन दर्जन पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन इस किशोर अन्यास से मुझे विशेष लगाव है। भला क्यों ?
आपके मम्मी-पापा की तरह मेरे पिताजी भी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे। मैंने विज्ञान पढ़ा भी। पर जीवित मेढक, खरगोश के ‘डाइसेक्शन’ से मन खिन्न हो उठा। मैंने अपनी दिशा बदल ली। मेरी अलमारी में जीवविज्ञान की जगह कालिदास, शेक्सपियर, टैगोर प्रेमचंद की पुस्तकें आ गईं। साहित्य पढ़ना और लिखना अच्छा लगने लगा। सोचता हूँ, भले ही मैं डॉक्टर न बन सका, लेकिन विज्ञान और कल्पना के बीच संतुलन बनाते हुए बालकों के लिए लिखना चिक्सिकीय अनुभव जैसा ही है। संभव है चिकित्सक बनकर बच्चों से उतना घुल-मिल न पाता, जितना उन्हें अब समझ पा रहा हूँ।
सतरंगी की चतुराई ने तो मेरा मन ही मोह लिया। डॉक्टर बनने की राह आसान हो गई। पूछो, कैसे ? पढ़िए चौथे खंड में।
हाँ, तीसरे खंड पर भी अपनी प्रतिक्रिया देना मत भूलना।
शेष शुभम् !
आपका मित्र
श्रीनिवास वत्स
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