धर्म एवं दर्शन >> मन, वचन. कर्म से ... मन, वचन. कर्म से ...स्वामी अवधेशानन्द गिरि
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जो लोग कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ, उनसे मेरा जी जलता है, क्योंकि उनके कहने और करने का कुछ ठिकाना नहीं है..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दादू कथनी और कछु करनी करै कछु और
तिनते मेरा जिउ जरै, जिनके ठीक न ठौर !
जो लोग कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ, उनसे मेरा जी जलता है, क्योंकि उनके कहने और करने का कुछ ठिकाना नहीं है।
संत दादू के ये वचन एक साधक को सावधान करनेवाले हैं। ऐसा व्यक्ति जो मन, वाणी और कर्म में एकता स्थापित नहीं कर पाता नीतिकारों की दृष्टि में दुरात्मा है-अर्थात उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ है। ऐसे व्यक्ति की ओर ही श्रीराम संकेत करते हैं-मोहे कपट छल छिद्र न भावा।
असुरक्षा की भावना का मन में होना और विषय-सुख की कामना ही ऐसे व्यवहार का आधार है।
इसके विपरीत-निर्मल मन जन सो मोहि पावा। जिनका मन निर्मल होता है अर्थात मन, वाणी और कर्म से जो एक होते हैं, जो भीतर और बाहर से एक हैं, भगवत्ता को वे ही प्राप्त करते हैं। उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि यह अंतर अज्ञान का परिणाम है। अपने स्वरूप को न जानने से ही अलग-अलग रूपों की सत्यता का आभास होता है और जीव उन्हें सत्यरूप देने का व्यर्थ प्रयास करता है। मुखौटा वही पहनता है, जो कुछ छिपाना चाहता है। किसी शायर ने ’इंसान’ उसे माना है जो खुले दिलवाला है -
जब मिलो, जिससे मिलो दिल खोलकर दिल से मिलो
इससे बढ़कर और कोई चीज इन्सां में नहीं।
पूज्य स्वामी जी-आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने आध्यात्मिक प्रगति और जीवन को व्यापक रूप में समझने के सरल सूत्रों को अपने व्याख्यानों में समय-समय पर सरल भाषा में भक्त-साधकों के लिए उद्घाटित किया है, जिन्हें यहां संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है, आप जिज्ञासु भक्त इससे लाभान्वित होंगे।
संत दादू के ये वचन एक साधक को सावधान करनेवाले हैं। ऐसा व्यक्ति जो मन, वाणी और कर्म में एकता स्थापित नहीं कर पाता नीतिकारों की दृष्टि में दुरात्मा है-अर्थात उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ है। ऐसे व्यक्ति की ओर ही श्रीराम संकेत करते हैं-मोहे कपट छल छिद्र न भावा।
असुरक्षा की भावना का मन में होना और विषय-सुख की कामना ही ऐसे व्यवहार का आधार है।
इसके विपरीत-निर्मल मन जन सो मोहि पावा। जिनका मन निर्मल होता है अर्थात मन, वाणी और कर्म से जो एक होते हैं, जो भीतर और बाहर से एक हैं, भगवत्ता को वे ही प्राप्त करते हैं। उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि यह अंतर अज्ञान का परिणाम है। अपने स्वरूप को न जानने से ही अलग-अलग रूपों की सत्यता का आभास होता है और जीव उन्हें सत्यरूप देने का व्यर्थ प्रयास करता है। मुखौटा वही पहनता है, जो कुछ छिपाना चाहता है। किसी शायर ने ’इंसान’ उसे माना है जो खुले दिलवाला है -
जब मिलो, जिससे मिलो दिल खोलकर दिल से मिलो
इससे बढ़कर और कोई चीज इन्सां में नहीं।
पूज्य स्वामी जी-आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने आध्यात्मिक प्रगति और जीवन को व्यापक रूप में समझने के सरल सूत्रों को अपने व्याख्यानों में समय-समय पर सरल भाषा में भक्त-साधकों के लिए उद्घाटित किया है, जिन्हें यहां संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है, आप जिज्ञासु भक्त इससे लाभान्वित होंगे।
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