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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

वरुण


चराचरमय संपूर्ण विश्व का निर्माण पांच महाभूतों के संयोग से हुआ है। ये पांच महाभूत हैं-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। जीवों के शरीर भी इन्हीं पांच महाभूतों से मिलकर बने हैं। मृत्यु होने पर इन्हीं पांचों में शरीर बंट जाता है। अतः ये पांचों तत्व जीवन के आधार हैं। कल्पना कीजिए कि यदि इन पांचों तत्वों में से एक भी तत्व न हो तो क्या हम जीवित रह सकते हैं? अगर आकाश न हो तो हम हिल-डुल भी नहीं सकते। वायु न हो तो श्वास रुकते ही मर जाएं। अग्नि न हो तो बर्फ की भांति जम जाएं। यदि पृथ्वी न हो तो कहां ठहरेंगे और जल न हो तो प्यासे मर जाएं। हर वर्ष जब झुलसाने वाली भयंकर गर्मी पड़ती है तब पानी के अभाव में कितने ही प्राणी प्यास से तड़प-तड़पकर मर जाते हैं, इसलिए पानी को ‘जीवों का जीवन' कहा गया है।

यद्यपि विश्व में जितना भू-भाग है, उससे कहीं अधिक जल की मात्रा है। बड़ी-बड़ी नदियों, झरनों, स्रोतों और महासागरों के रूप में जल पृथ्वी पर ही है। पृथ्वी के अतिरिक्त पृथ्वी के अंदर और पृथ्वी के ऊपर आकाश में वाष्प रूप में भी जल मौजूद है। इन सभी जलों के अधिपति वरुण देवता ही हैं। समस्त प्राणियों का जीवन उन्हीं वरुण देवता की कृपा से चल रहा है, अतः उन्हें प्रसन्न रखना हमारा पुनीत कर्तव्य है। इसी कर्तव्य पालन के लिए प्राचीन काल से ही वरुण देवता की पूजा होती आई है। यज्ञ, अनुष्ठान आदि प्रत्येक शुभ कर्म के अवसर पर भी वरुण का पूजन किया जाता है।

वरुण देव संपूर्ण सम्राटों के सम्राट और पश्चिम दिशा के लोकपाल हैं। पश्चिम दिशा में समुद्र में वरुण देव की दिव्य रत्नपुरी है। महाभारत के अनुसार खांडव वन-दाह के समय अग्निदेव के कहने पर भगवान श्रीकृष्ण को चक्र और कौमुदी गदा तथा अर्जुन को गांडीव धनुष, दिव्य तरकस एवं दिव्य रथ वरुण देव ने ही प्रदान किए थे। इनका मुख्य अस्त्र पाश है। वरुण देव के पुत्र पुष्पक हैं जो इनके दक्षिण भाग में विद्यमान रहते हैं।

वरुण देव जीवों के जीवन हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना करना संभव नहीं, इसलिए प्राचीन समय में ऋषि-मुनियों के आश्रम, नगर और बस्तियां नदियों के किनारे ही होती थीं। उस समय नदियों के जल स्वच्छ, पावन और अमृत तुल्य हुआ करते थे। उस समय के लोग भी नदियों को स्वच्छ-पावन बनाए रखने के लिए ध्यान देते थे। उस समय पेयजल का संकट नहीं था।

परंतु ज्यों-ज्यों मनुष्य भौतिक विकास करता गया और उसकी भोगवादी प्रवृत्ति होती गई, त्यों-त्यों वह प्राचीन नियमों एवं परंपराओं को तोड़ता चला गया। जीवनदान देने वाली जिन नदियों को स्वच्छ और पवित्र रखा जाता था, उन्हीं नदियों के अमृत तुल्य जल को मनुष्य भौतिक विकास में अंधा होकर मलिन करता चला गया।

यह प्रकृति का अटल नियम है कि हम अपनी भोगवादी प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए जितना प्रकृति से लेते हैं, उसके बदले ऋण रूप में हमें उतना चुकाना भी पड़ता है। जब बिजली की चाहत में बड़े-बड़े बांध बनाए गए तो नदियों में जल ही न रहा। सुविधाओं के बदले हम लौटा रहे हैं कचरा और गंदे नाले जो प्रदूषण का भयंकर रूप धारण कर हमारे जीवन को तबाह कर रहे हैं। वरुण देवता के कोप को हम अनावृष्टि और जल संकट के रूप में भोग रहे हैं। वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नदियों में बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाकर उन्हें स्वच्छ बनाना बहुत जरूरी है।


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