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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

सनकादि


सृष्टि के प्रारंभ में लोकपितामह ब्रह्मा जी ने विविध लोकों को रचने के उद्देश्य से कठोर तपस्या की। स्रष्टा के उस अखंड तप से प्रसन्न होकर विश्वाधार प्रभु ने 'तप' अर्थ वाले 'सन' नाम से युक्त होकर सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार-इन चार निवृत्ति परायण ऊर्ध्वरेता मुनियों के रूप में अवतार ग्रहण किया। ये प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग-परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्य सिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। इन नित्य ब्रह्मचारियों से ब्रह्मा जी के सृष्टिविस्तार की आशा पूरी नहीं हो सकी।

देवताओं के पूर्वज और लोकस्रष्टा के आद्य मानसपुत्र सनकादि के मन में कहीं किंचित आसक्ति नहीं थी। वे प्राय: आकाश मार्ग से विचरण किया करते थे। एक बार सनकादि श्री भगवान के श्रेष्ठ वैकुंठ धाम में पहुंचे। वहां सभी शुद्ध सत्वमय चतुर्भज रूप में रहते हैं। सनकादि भगवद्दर्शन की लालसा से वैकुंठ की दुर्लभ दिव्य दर्शनीय वस्तुओं की उपेक्षा करते हुए छठी डयोढ़ी के आगे बढ़ ही रहे थे कि भगवान के पार्षद जय और विजय ने पंचवर्षीय से दिखने वाले उन दिगंबर तेजस्वी कुमारों की हंसी उड़ाई तथा उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। भगवद्द्दर्शन में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण सनकादि ने जय और विजय को दैत्य कुल में जन्म लेने का शाप दे दिया।

अपने प्राणप्रिय एवं अभिन्न सनकादि कुमारों के अनादर का संवाद मिलते ही वैकुंठनाथ श्रीहरि तत्काल वहां पहुंच गए। भगवान की अद्भुत, अलौकिक एवं दिव्य सौंदर्य राशि के दर्शन कर सर्वथा विरक्त सनकादि कुमार चकित हो गए। वे अपलक नेत्रों से प्रभु की ओर देखने लगे। उनके हृदय में आनंद सिंधु हिलोरें मार रहा था। उन्होंने वनमालाधारी लक्ष्मीपति भगवान श्री विष्णु की स्तुति करते हुए कहा, "विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा सुख मिला है। विषयासक्त अजितेंद्रिय पुरुषों के लिए इसका दृष्टिगोचर होना अत्यंत कठिन है। आप साक्षात भगवान हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं; इसके लिए हम आपको प्रणाम करते हैं।"

“ब्राह्मणों के पवित्र चरण-रज को मैं अपने मुकुट पर धारण करता हूं।'' श्री भगवान ने अत्यंत मधुर वाणी में कहा, "जय-विजय ने मेरा अभिप्राय न समझकर आप लोगों का अपमान किया है। इस कारण आपने इन्हें दंड देकर सर्वथा उचित कार्य किया है।"

लोकोद्धारार्थ लोकपर्यटन करने वाले, सरलता एवं करुणा की मूर्ति सनकादि कुमारों ने श्री भगवान की सारगर्भित मधुर वाणी सुनकर उनसे अत्यंत विनीत स्वर में कहा, "हे सर्वेश्वर ! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें, वैसा दंड दें अथवा पुरस्कार के रूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें। हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिए हमें ही उचित दंड दें। हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है।''

"यह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है।'' श्री भगवान ने सनकादि को संतुष्ट किया। इसके अनंतर सनकादि ने सर्वांग सुंदर भगवान विष्णु और उनके धाम का दर्शन किया। वे चारों कुमार प्रभु की परिक्रमा कर उनका गुणगान करते हुए लौट गए। जय-विजय इनके शाप से तीन जन्मों तक क्रमशः हिरण्यकशिपुहिरण्याक्ष, रावण-कुंभकर्ण और शिशुपाल-दंतवक्त्र हुए।

एक समय जब भगवान सूर्य की भांति परम तेजस्वी सनकादि आकाश मार्ग से भगवान के अंशावतार महाराज पृथु के समीप पहुंचे, तब उन्होंने अपना अहोभाग्य समझते हुए उनकी सविधि पूजा की। उनका पवित्र चरणोदक माथे पर छिड़का और उन्हें सुवर्ण के सिंहासन पर बैठाकर बद्धांजलि हो विनयपूर्वक निवेदन किया, “मंगलमूर्ति मुनीश्वरो! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं। मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिसके फलस्वरूप मुझे स्वत: आपका दर्शन प्राप्त हुआ। इस दृश्य-पंचम के कारण महत्तत्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, फिर भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं देख सकते। इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं तो भी अनधिकारी लोग आपको नहीं देख पाते।"

फिर महाराज पृथु ने अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए अत्यंत आदर के साथ कहा, "आप संसारानल से संतप्त जीवों के परम सुहृद हैं, इसलिए आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूं कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है?"

भगवान सनकादि ने आदिराज पृथु का प्रश्न सुनकर उनकी बुद्धि की प्रशंसा की और उन्हें विस्तारपूर्वक कल्याण का उपदेश देते हुए कहा, "धन और इंद्रियों के विषयों का चिंतन करने से मनुष्य के सभी पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं क्योंकि इनकी चिंता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पाता है। अतः जिसे अज्ञानांधकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में बड़ी बाधक है। जो लोग मन और इंद्रिय रूप मगरों से संकुल इस संसार-सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुंचना कठिन ही है क्योंकि उन्हें कर्णधार रूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतएव तुम भगवान के आराधनीय चरण-कमलों को नौका बनाकर इस दुष्कर दुख-समुद्र को पार कर लो।"

भगवान सनकादि के इस अमृतमय उपदेश से आप्यायित होकर आदिराज पृथु ने उनकी स्तुति करते हुए पुनः श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सविधि पूजा की।

ऋषिगण प्रलय के कारण पहले कल्प का आत्मज्ञान भूल गए थे। श्री भगवान ने अपने इस अवतार में उन्हें यथोचित उपदेश दिया जिससे उन लोगों ने शीघ्र ही अपने हृदय में उस तत्व का साक्षात्कार कर लिया।

सनकादि अपने योगबल अथवा हरिः शरणम् मंत्र जप के प्रभाव से सदैव पांच वर्ष के ही कुमार बने रहते हैं। ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्य ज्ञान विशारद, धर्म शास्त्रों के आचार्य तथा मोक्ष धर्म के प्रवर्तक हैं। देवर्षि नारद को इन्होंने 'श्रीमद् भागवत' का उपदेश किया था।

भगवान सनत्कुमार ने ऋषियों के तत्वज्ञान संबंधी प्रश्न के उत्तर में उपदेश देते हुए बताया, "विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग के समान कोई दुख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। पाप कर्मों से दूर रहना, सदैव पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषों जैसा बर्ताव और सदाचार का पालन करना—यही सर्वोत्तम श्रेय का साधन है।''

प्राणिमात्र के सच्चे शुभाकांक्षी कुमार-चतुष्टय के पावन पद-पद्मों में अनंत प्रणाम!


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