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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

प्रलयकर्ता शिव


भगवान शिव मात्र पौराणिक देवता ही नहीं हैं, अपितु वे त्रिदेवों में जगत का संहार करने वाले देवता भी हैं और पंचदेवों (विष्णु, गणेश, सूर्य, दुर्गा एवं शिव) में प्रधान देवता हैं। वे देवों के भी देव महादेव हैं। वेदों ने उन्हें परमतत्व, अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, जगत का स्रष्टा-पालक-संहारक और ईश्वर का भी ईश्वर यानी महेश्वर कहकर उनका गुणगान किया है।

भगवान शिव योगीश्वर हैं। वे अद्वैतवाद तथा संपूर्ण विधाओं और कलाओं के आदि आचार्य हैं। व्याकरण तो माहेश्वर सूत्रों से ही निकला है। संगीत उनके

डमरू के नाद की देन है। तांडव और लास्य नृत्यों के मात्र वही विधायक हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद आदि समस्त ज्ञान उन्हीं के द्वारा देव, असुर और मानव को प्राप्त हुए हैं। तंत्र शास्त्र के उपदेष्टा भी वही हैं। शाबर मंत्र उनकी करुणा के प्रतीक हैं, जिनका प्रयोग बिना पढ़े-लिखे ग्रामीण आज भी करते हैं।

शिव के दो रूप हैं- रुद्र और शिव। उनका जो जगत-संहारकारी रूप है, उसे रुद्र और जो जगत-कल्याणकारी रूप है, उसे शिव कहते हैं। लोक में सृजन-संहार की क्रियाएं निरंतर चलती रहती हैं। पतझड़ संहार का प्रतीक और वसंत नूतन सृष्टि का प्रतीक है, किंतु ये विषमताएं एक-दूसरे पर आश्रित हैं: जैसे-पुराने पत्तों का विनाश होने पर ही वृक्षों पर नए पत्तों का आविर्भाव होता है। जो जीर्ण-क्षीण का विनाश कर नयापन लाता है, वही तो शिव है। वे संसार का विषपान कर लोक-कल्याण करने में संलग्न रहते हैं। समुद्र-मंथन के समय जब विष निकला और उससे संसार दग्ध होने लगा, तब शिव ने ही उस विष को पीकर लोक-रक्षा की। आकाश में तीन नगर बसाकर देवों और मनुष्यों को आतंकित करने वाले त्रिपुरों का विनाश शिव ने ही किया था।

सती के देह त्यागने पर शिव वीतरागी होकर अखंड समाधि लगा लेते हैं। कामदेव अपना मायाजाल फैलाकर शिव की समाधि भंग करके उनके हृदय में राग (काम भाव) उत्पन्न करना चाहता है, किंतु शिव उसे अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर देते हैं। ऐसे अटल वैराग्य की पराकाष्ठा श्री शिव के आचरण में ही मिलती है। किंतु वे कामारि तारकासुर के आतंक से संसार को निजात दिलाने के लिए पुनः विवाह करने हेतु राजी हो जाते हैं और पार्वती से विवाह करके उन्हें अपने आधे शरीर में स्थान देकर अर्द्धनारीश्वर बन जाते हैं। यही नहीं, भगवान शिव से बढ़कर प्रेतात्मा पति दूसरा कोई नहीं है। श्मशान निवासी होकर भी वे गृहस्थ जीवन के चरम आदर्श हैं। भिन्नता में अभिन्नता, दोष में गुण तथा भोग में योग की सार्थकता श्री शिव के आचरण की अद्वितीय विशेषता है। भयंकर विषमताओं के प्रतीक होते हुए भी वे मंगल के स्रोत हैं।

शिव अन्य देवताओं की अपेक्षा शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे अंजलि भर जल, आक, धतूरा तथा बेल के एक-दो पत्ते चढ़ाने मात्र से रीझ जाते हैं। वे प्रसन्न होने पर भिखारी को भी इंद्र बना देते हैं, इसलिए लोक में उन आशुतोष का अवढरदानी स्वरूप अधिक प्रिय है।

शिव की उदारता के कारण ही सुर-असुर और मनुष्य उनकी उपासना करते हैं तथा शिव निष्पक्ष भाव से भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। शिव की महिमा में संस्कृत के विद्वान कवियों ने बड़े सुंदर और भाव गंभीर स्तोत्र रचे हैं।

इनमें से लंका सम्राट रावण द्वारा रचित 'शिवतांडव स्तोत्र' और पुष्पदंत द्वारा रचित 'शिव पंचाक्षर स्तोत्र' काफी प्रसिद्ध हैं। भगवान शिव के अनेक रूप हैं। प्रस्तुत है उनके कुछ रूपों का संक्षिप्त वर्णन-

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