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हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

व्यास


लोकोत्तर-शक्ति संपन्न भगवान व्यास भगवान नारायण के कलावतार थे।

वे महाज्ञानी महर्षि पराशर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। उनका जन्म कैवर्तराज की पोष्य पुत्री महाभागा सत्यवती के गर्भ से यमुना द्वीप में हुआ था। इस कारण उन्हें पाराशर्य' और 'द्वैपायन' भी कहते हैं। उनका वर्ण घननील था, अतएव वे ‘कृष्णद्वैपायन' नाम से प्रख्यात हैं। बदरी वन में रहने के कारण वे ‘बादरायण' भी कहे जाते हैं। उन्हें अंगों और इतिहासों सहित संपूर्ण वेदों एवं परमात्म तत्व का ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो गया था जिसे दूसरे व्रतोपवासनिरत यज्ञ, तप तथा वेदाध्ययन से भी नहीं प्राप्त कर पाते।

“आवश्यकता पड़ने पर तुम भी मुझे स्मरण करोगी।'' धरती पर पदार्पण करते ही अचिंत्य शक्तिशाली व्यास ने अपनी जननी से कहा, "मैं अवश्य तुम्हारा दर्शन करूंगा।'' फिर वे माता की आज्ञा से तपश्चरण में लग गए।

आरंभ में वेद एक ही था। ऋषिवर अंगिरा ने उसमें से सरल तथा भौतिक उपयोग के छंदों को बाद में संग्रहीत किया। वह संग्रह 'अथर्वांगिरस' या 'अथर्ववेद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परम पुण्यतम सत्यवती नंदन ने मनुष्यों की आयु और शक्ति को अत्यंत क्षीण होते देखकर वेदों का व्यास (विभाग) किया। इसीलिए वे 'वेदव्यास' नाम से प्रसिद्ध हुए। फिर वेदार्थ दर्शन की शक्ति के साथ अनादि पुराण को लुप्त होते देखकर भगवान कृष्णद्वैपायन ने पुराणों का प्रणयन किया। उन पुराणों में निष्ठा के अनुरूप आराध्य की प्रतिष्ठा कर उन्होंने वेदार्थ चारों वर्णों के लिए सहज-सुलभ कर दिया। अष्टादश पुराण के अलावा बहुत से उपपुराण तथा अन्य ग्रंथ भी भगवान व्यास द्वारा निर्मित हैं।

अत्यंत विस्तृत पुराणों में कल्पभेद से चरित भेद पाए जाते हैं। समस्त चरित इस कल्प के अनुरूप हों तथा समस्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष संबंधी सिद्धांत भी उनमें एकत्र हो जाएं, इस निश्चय से वेदव्यास ने 'महाभारत' की रचना की। महाभारत को ‘पंचम वेद' और 'काष्र्णवेद' भी कहते हैं। श्रुति का सारांश भगवान व्यास ने महाभारत में एकत्र कर दिया। इस महान ग्रंथ-रत्न को भगवान व्यास बोलते गए और साक्षात श्री गणेश लिखते गए।

जब व्यास जी ने महाभारत लिखने के लिए श्री गणेश से प्रार्थना की तो गणेश जी ने कहा, "लिखते समय यदि मेरी लेखनी क्षण भर भी न रुके तो मैं यह कार्य कर सकता हूं।"

जीवमात्र के परम हितैषी व्यास जी ने कहा, “मुझे स्वीकार है, किंतु आप भी बिना समझे एक अक्षर भी न लिखें।"

कहा जाता है कि भगवान व्यास ने आठ हजार आठ सौ ऐसे श्लोकों की रचना की है, जिनका ठीक-ठीक अर्थ वे और व्यासनंदन श्री शुकदेव ही समझते हैं। जब भगवान गणेश ऐसे श्लोकों का अर्थ समझने के लिए कुछ देर रुकते थे तब तक व्यास जी अनेक श्लोकों की रचना कर डालते थे। इस प्रकार यह पंचम वेद श्री गणेश द्वारा लिपिबद्ध हुआ।

प्रभु द्वैपायन ने 'ऋग्वेद', 'सामवेद, 'यजुर्वेद' एवं 'अथर्ववेद' का अध्ययन क्रमशः अपने शिष्यों पैल, जैमिनि, वैशंपायन और सुमंतु को तथा 'महाभारत' का अध्ययन रोमहर्षण सूत जी को करवाया। सर्वश्रेष्ठ वरदायक, महान पुण्यमय, यशस्वी वेदव्यास जी राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ की दीक्षा लेने का संवाद पाकर वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान शिष्यों के साथ उनके यज्ञ-मंडप में पहुंचे। यह देखकर राजा जनमेजय बड़े हर्षित हुए। उन्होंने अत्यंत श्रद्धापूर्वक पराशर-नंदन व्यास को सुवर्ण का पीठ देकर आसन की व्यवस्था की। फिर पाद्य, आचमनीय और अर्घ्यादि के द्वारा उनकी सविधि पूजा की।

राजा जनमेजय के अनुरोध पर महर्षि व्यास ने अपने शिष्य वैशंपायन को वहां महाभारत सुनाने की आज्ञा दी। अतएव विप्रवर वैशंपायन ने वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ, त्रिलोकदर्शी, परम पवित्र गुरुदेव व्यास जी के चरणों में प्रणाम करके राजा जनमेजय, सभासद गण तथा अन्य नरेशों के सम्मुख श्री व्यास विरचित कौरव-पांडवों का सुविस्तृत इतिहास 'महाभारत' सुनाया।

धृतराष्ट्र के पुत्रों द्वारा अधर्मपूर्वक पांडवों को राज्य से बहिष्कृत कर दिए जाने पर सर्वज्ञ व्यास जी वन में उनके पास पहुंचे। वहां उन्होंने कुंती सहित पांडवों को धैर्य बंधाया और उनकी एकचक्रा नगरी के समीप एक ब्राह्मण के घर में रहने की व्यवस्था कर दी। फिर उनसे एक मास तक वहीं अपनी प्रतीक्षा करने का आदेश देकर वे लौट गए।

सत्यव्रत परायण व्यास जी एक मास के बाद पुन: पांडवों के पास पहुंचे। उनसे उनका कुशल संवाद पूछकर धर्म संबंधी और अर्थ विषयक चर्चा की। फिर उन्होंने महाराज पृषत की पौत्री सत्ती-साध्वी कृष्णा के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाकर पांडवों को उसके स्वयंवर में पांचाल नगर जाने की प्रेरणा दी। व्यास जी ने पांडवों से कहा कि सती द्रौपदी तुम्हीं लोगों की पत्नी नियत की गई है।

पांडव पांचाल नगर पहुंचे और स्वयवंर में अर्जुन ने लक्ष्यवेध कर सती द्रौपदी की जयमाला प्राप्त की। किंतु जब माता कुंती के आदेशानुसार युधिष्ठिर आदि पांचों भाइयों ने एक साथ द्रौपदी के साथ विवाह करना चाहा, तब महाराज द्रुपद ने इसे सर्वथा अनुचित और अधर्म समझकर आपत्ति की। उसी समय निग्रहानुग्रह समर्थ व्यास जी वहां पहुंच गए। उन्होंने महाराज द्रुपद को पांडवों एवं द्रौपदी के मात्र इस जीवन के पूर्व का ही विवरण नहीं दिया बल्कि उन्हें दिव्य दृष्टि देकर उनके परम तेजस्वी स्वरूप का भी दर्शन करा दिया। फिर महाराज द्रुपद ने अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदी का विवाह युधिष्ठिर आदि पांचों भाइयों के साथ कर दिया।

जब महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के सत्परामर्श से राजसूय यज्ञ की दीक्षा ली, तब परब्रह्म और अपरब्रह्म के ज्ञाता कृष्णद्वैपायन व्यास जी परम वेदज्ञ ऋत्विजों के साथ वहां पहुंचे। उस यज्ञ में स्वयं उन्होंने ब्रह्मा का काम संभाला और यज्ञ संपन्न होने पर देवर्षि नारद, देवल और असित मुनि को आगे करके महाराज युधिष्ठिर का अभिषेक किया।

अपने पौत्र युधिष्ठिर से विदा होते समय वेदव्यास जी ने अन्य बातों के अतिरिक्त उनसे कहा, "राजन! आज से तेरह वर्ष बाद दुर्योधन के पातक तथा भीम एवं अर्जुन के पराक्रम से क्षत्रिय-कुल का महासंहार होगा और उसके निमित्त तुम बनोगे। किंतु इसके लिए तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि काल सबके लिए अजेय है।'' यह कहकर ज्ञानमूर्ति व्यास जी ने अपने वेदज्ञ शिष्यों सहित कैलास पर्वत के लिए प्रस्थान किया।

व्यास जी विपत्तिग्रस्त सरल एवं निश्छल पांडवों की समय-समय पर पूरी सहायता करते रहे। जब दुरात्मा दुर्योधन ने छलपूर्वक पांडवों का सर्वस्व हरण करके उन्हें तेरह वर्षों के लिए वन में भेज दिया, तब उसे प्रसन्नता हुई। किंतु उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उसने कर्ण, दुःशासन और शकुनि के परामर्श से अरण्यवासी पांडवों को मार डालने का निश्चय कर लिया। वे शस्त्र सज्जित होकर रथ पर बैठे ही थे कि दिव्य दृष्टि संपन्न व्यास जी वहां पहुंच गए और दुर्योधन को समझाकर इस भयानक अपकर्म से विरत किया।

इसके बाद वे तुरंत महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचे और उनसे कहा, हे वत्स! जैसे पांडु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो और उसी प्रकार ज्ञान संपन्न विदुर जी भी हैं। मैं स्नेहवश ही तुम्हारे और संपूर्ण कौरवों के हित की बात कहता हूं। तुम्हारा दुष्ट पुत्र दुर्योधन क्रूर ही नहीं, अत्यंत मूढ़ भी है। तनिक सोचो, छलपूर्वक राज्यलक्ष्मी से वंचित पांडवों के मन में तेरह वर्षों तक अरण्यवास की यातना सहते-सहते तुम्हारे पुत्रों के प्रति कितना भयानक विष भर जाएगा। वे तुम्हारे दुष्ट पुत्रों को कैसे जीवित रहने देंगे। इतने पर भी दुर्योधन उनका नृशंसतापूर्वक वध कर डालना चाहता है। यदि दुर्योधन की इस कुप्रवृत्ति की अपेक्षा हुई और उसे नहीं रोका गया तो तुम्हारे सहित तुम्हारे निर्मल वंश को मात्र कलंकित ही नहीं होना पड़ेगा, बल्कि उसका सर्वनाश भी हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उचित यह है कि तुम्हारा पुत्र दुर्योधन एकाकी ही पांडवों के साथ वन में जाए। उनके संसर्ग से उसकी बुद्धि शुद्ध हो जाएगी और उसके वैर-भाव का शमन हो सकता है।"

"किंतु महाराज ! जन्म के समय किसी प्राणी का जो स्वभाव होता है, वह मृत्यु पर्यंत बना रहता है-यह बात मेरे सुनने में आई है।"

"राजन, महर्षि मैत्रेय वन में पांडवों से मिलकर आ रहे हैं। वे निश्चय ही सत्सम्मति प्रदान करेंगे। उनकी आज्ञा मान लेने में ही कौरव-कुल का हित है।'' यह कहकर व्यास जी चले गए। दुर्योधन ने महर्षि मैत्रेय की उपेक्षा की, इस कारण उन्होंने उसे अत्यंत अनिष्टकर शाप दे दिया।

अरण्यवास के समय एक बार जब युधिष्ठिर अत्यंत चिंतित थे, उसी समय त्रिकालदर्शी व्यास जी उनके पास पहुंचे और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाया, "भरतश्रेष्ठ! अब तुम्हारे कल्याण का सर्वश्रेष्ठ अवसर उपस्थित हो चला है। तुम चिंता मत करो। तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही पराजित हो जाएंगे।"

इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर को आश्वस्त करते हुए सर्वसमर्थ व्यास जी ने उन्हें मूर्तिमयी सिद्धितुल्य प्रतिस्मृति' नामक विद्या प्रदान की जिसके द्वारा उन्हें देवताओं के दर्शन की क्षमता प्राप्त हो गई। इतना ही नहीं, व्यास जी ने पांडवों के हित के लिए अन्य अनेक शुभ सम्मतियां भी प्रदान की।

भगवान व्यास ने संजय को भी दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी, जिससे उन्होंने महाभारत युद्ध ही नहीं देखा, अपितु भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से नि:सृत 'श्रीमद्भगवद् गीता' का भी श्रवण कर लिया, जिसे महाभागा पार्थ के अलावा अन्य कोई भी नहीं सुन पाया था। इतना ही नहीं, उक्त दिव्य दृष्टि के प्रभाव से संजय ने श्री भगवान के विश्वरूप का भी अत्यंत दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिया।

पराशर-नंदन व्यास कृपा की मूर्ति थे। एक बार उन्होंने मार्ग में आते हुए रथ के कर्कश स्वर को सुनकर प्राणभय से भागते एक क्षुद्र कीट को देखा। कीट से उन्होंने वार्तालाप किया तथा अपने तपोबल से उसे अनेक योनियों से निकालकर शीघ्र ही मनुष्य-योनि प्राप्त करा दी। फिर क्रमशः क्षत्रिय-कुल एवं ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होकर उस भूतपूर्व कीट ने दयामय व्यास जी के अनुग्रह से अत्यंत दुर्लभ सनातन ‘ब्रह्मपद' प्राप्त कर लिया।

महर्षि व्यास की शक्ति अलौकिक थी। एक बार जब वे वन में धृतराष्ट्र और गांधारी से मिलने गए, तब सपरिवार युधिष्ठिर भी वहां उपस्थित थे। धृतराष्ट्र और गांधारी पुत्रशोक से दुखी थे। धृतराष्ट्र ने अपने कुटुंबियों और स्वजनों को देखने की इच्छा व्यक्त की। रात्रि में महर्षि व्यास के आदेशानुसार धृतराष्ट्र आदि गंगा-तट पर पहुंचे। व्यास जी ने गंगाजल में प्रवेश किया और दिवंगत योद्धाओं को पकारा। शीघ्र ही जल में युद्धकाल के समान कोलाहल सुनाई देने लगा। साथ ही पांडव एवं कौरव-दोनों पक्षों के योद्धा और राजकुमार भीष्म तथा द्रोण के पीछे निकल आए। उन सबकी वेश-भूषा, शस्त्र सज्जा, वाहन और ध्वजाएं पूर्ववत थीं। सभी ईर्ष्या-द्वेषशून्य एवं दिव्य-देहधारी दिख रहे थे। वे रात्रि में अपने स्नेही संबंधियों से मिले और सूर्योदय के पूर्व भगवती भागीरथी में प्रवेश कर अपने-अपने लोकों के लिए चले गए।

"जो स्त्रियां पतिलोक जाना चाहें, वे इस समय गंगा जी में डुबकी लगा लें।'' व्यास जी के वचन सुनकर जिन वीरगति प्राप्त योद्धाओं की पत्नियों ने गंगा जी में प्रवेश किया, वे दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर विमान में बैठीं और सबके देखते-देखते अभीष्ट लोक के लिए प्रयाण कर गईं।

नागयज्ञ की समाप्ति पर जब यह कथा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने महर्षि वैशंपायन से सुनी, तब उन्हें इस अद्भुत घटना पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने इस पर शंका व्यक्त की। वैशंपायन ने उसका बड़ा युक्तिपूर्ण आध्यात्मिक समाधान किया। लेकिन वे इस पर भी नहीं माने और कहा, "यदि भगवान व्यास मेरे पिताजी को भी उसी वयोरूप में ला दें तो मैं विश्वास कर सकता हूं।"

भगवान व्यास वहीं उपस्थित थे और उन्होंने जनमेजय पर पूर्ण कृपा की। फलतः शृंगी, शमीक एवं मंत्री आदि के साथ राजा परीक्षित वहां उसी रूप वय में प्रकट हो गए। वे सब अवभृथ (यज्ञांत) स्नान में सम्मिलित भी हुए और फिर वहीं अंतर्धान हो गए।

महर्षि व्यास मूर्तिमान धर्म थे। आद्यशंकराचार्य तथा अन्य कितने ही महापुरुषों ने उनका दर्शनलाभ किया है। श्रद्धा-भक्ति संपन्न अधिकारी महात्मा अब भी उनके दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। दया, धर्म, ज्ञान एवं तप की परमोज्ज्वल मूर्ति उन महामहिम व्यास जी के चरण-कमलों में बार-बार प्रणाम।


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