धर्म एवं दर्शन >> ज्ञान प्रवाह ज्ञान प्रवाहस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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ज्ञान का अर्थ जानकारी मात्र नहीं है। इस दृष्टि से जानकार होना और ज्ञानी होना अलग-अलग स्थितियां हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
ज्ञान का अर्थ जानकारी मात्र नहीं है। इस दृष्टि से जानकार होना और ज्ञानी होना अलग-अलग स्थितियां हैं। वेदांत ग्रंथों में जानकारी को ’परोक्षज्ञान’ कहा गया है। यह इस बात का संकेत है कि जिसकी जानकारी है, उसे अभी तक देखा नहीं है। किसी देखने वाले द्वारा बताए गए को याद कर लिया है बस ! ज्ञान को ये ग्रंथ अपरोक्ष ज्ञान या अपरोक्षानुभूति कहते हैं। जो जानकारी अपनी हो जाए, स्वयं की हो जाए, वह है ज्ञान-अर्थात् जिसके बारे में जाना था, उसे स्वयं अपनी खुली आंखों से देख लिया, आंखें मूंदने के बाद भी अब उसका बोध होता है।
लेकिन जन्मजन्मांतरों के संस्कारों को काट फेंकने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। आंखों से देखने के बाद भी वह सत्य हृदय में नहीं उतरता। वर्षों से जिसे सच्चा माना, उसकी अस्वीकृति इस रूप में कि वह झूठा है, दिखावा है, प्रतीति है, एकाएक गले नहीं उतरती। ऐसी स्वीकृति का अर्थ है अपनी मूर्खता का स्वयं प्रमाणपत्र देना। इसीलिए उपनिषदों में अपरोक्षानुभूति की दृढ़ता का भी निर्वचन किया गया है। अर्थात् अब अनुभव किए गए के प्रति किसी प्रकार की शंका नहीं है। ऐसी आश्चर्य की स्थिति का वर्णन श्रीकृष्ण ने गीता में ’आश्चर्यवत्पश्यति-कश्चिदेनमू’ इस रूप में किया है। यही सच्चे अर्थों में ज्ञान है, तत्त्वज्ञान है। इसके द्वारा ही जीव के बंधनों का क्षय होता।
पूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों में ज्ञान के इन्हीं आयामों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। इसमें शास्त्रज्ञान की चर्चा है, साधना के विभिन्न पहलुओं का विवेचन है और उस अपरोक्षानुभूति का वर्णन है, जिसे श्रुतियां मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य कहती हैं। इस पुस्तक में आध्यात्मिक उपलब्धि के पश्चात् उसके व्यावहारिक जीवन पर पड़नेवाले प्रभाव के बारे में भी बताया गया है ताकि साधना और सिद्धि के संदर्भ में किसी प्रकार का संशय न रहे। जिज्ञासु साधकों के लिए अत्यंत उपयोगी है यह पुस्तक।
लेकिन जन्मजन्मांतरों के संस्कारों को काट फेंकने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। आंखों से देखने के बाद भी वह सत्य हृदय में नहीं उतरता। वर्षों से जिसे सच्चा माना, उसकी अस्वीकृति इस रूप में कि वह झूठा है, दिखावा है, प्रतीति है, एकाएक गले नहीं उतरती। ऐसी स्वीकृति का अर्थ है अपनी मूर्खता का स्वयं प्रमाणपत्र देना। इसीलिए उपनिषदों में अपरोक्षानुभूति की दृढ़ता का भी निर्वचन किया गया है। अर्थात् अब अनुभव किए गए के प्रति किसी प्रकार की शंका नहीं है। ऐसी आश्चर्य की स्थिति का वर्णन श्रीकृष्ण ने गीता में ’आश्चर्यवत्पश्यति-कश्चिदेनमू’ इस रूप में किया है। यही सच्चे अर्थों में ज्ञान है, तत्त्वज्ञान है। इसके द्वारा ही जीव के बंधनों का क्षय होता।
पूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों में ज्ञान के इन्हीं आयामों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। इसमें शास्त्रज्ञान की चर्चा है, साधना के विभिन्न पहलुओं का विवेचन है और उस अपरोक्षानुभूति का वर्णन है, जिसे श्रुतियां मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य कहती हैं। इस पुस्तक में आध्यात्मिक उपलब्धि के पश्चात् उसके व्यावहारिक जीवन पर पड़नेवाले प्रभाव के बारे में भी बताया गया है ताकि साधना और सिद्धि के संदर्भ में किसी प्रकार का संशय न रहे। जिज्ञासु साधकों के लिए अत्यंत उपयोगी है यह पुस्तक।
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