गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त सरोज भक्त सरोजहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है भक्तों की कहानियाँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
निवेदन
यह भक्त-चरितमाला का बारहवाँ पुष्प है। इसमें दस भक्तों की बड़ी अच्छी
उपदेशयुक्त और भक्ति बढ़ाने वाली कथाएँ है। ये सभी भक्त बड़े विश्वासी और
श्रद्धासम्पन्न थे। आशा है इन कथाओं से पाठकों को यथेष्ट लाभ होगा।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
।।श्रीहरि:।।
भक्त-सरोज
भक्त गंगाधरदास
उत्कुल देश पुरुषोत्तम क्षेत्र अर्थात् जगदीश में राजा प्रतापरुद्र के समय
में गोविन्दपुर ग्राम एक प्रधान तीर्थस्थल था। उसी गोविन्दपुर में हमारे
चरितनायक परमपूज्य भक्त श्रीगंगाधरदासजी का निवास स्थान था। उनकी स्त्री
का नाम था श्रियाजी। ये परम सती और साध्वी थीं, स्वामी को बहुत प्रिय थी;
पर इनके कोई सन्तान न थी। ये जाति के बनिये थे। सन्तान न होने पर भी इनको
कोई सोच न था। भक्त गंगाधरजी ‘पसरा’ बेचकर अर्थात्
साधारण
वाणिज्य-व्यापार करके जीविका-निर्वाह करते हुए श्रियाजी सहित भगवद्भजन में
ही अपना जीवन बिताते रहे। संतसेवा करते हुए बहुत दिन बीत गये, वृद्धावस्था
आ गयी।
एक दिन की बात है कि ग्रामवासियों के तानों से चित्त खिन्न हो जाने से साध्वी स्त्री ने अपने पति से कहा कि जहाँ-तहाँ घर-बाहर गाँव की स्त्रियाँ मुझे ताना मारा करती हैं और ‘अंठकुडी’ (अर्थात् जिसका मुँह न देखना चाहिये, मनहूस) कहा करती हैं। कोई-कोई तो मेरे सामने भी नहीं आतीं। कोई-कोई सामने भी यदि आ गयीं तो बोलती नहीं और कोई-कोई कह उठती हैं कि ‘इसका मुँह देख लिया, आज न जाने क्या अमंगल होगा, इत्यादि-इत्यादि। पर हमारे भाग्य में तो सन्तान है ही नहीं, चाह करने पर भी कैसे मिल सकती है। हाँ, एक बात सम्भव है, वह यह कि आप किसी एक ब्राह्मण बालक का यज्ञोपवीत करा दीजिये, विवाह कर दीजिये तथा किसी दरिद्रकुल का कोई लड़का मोल लेकर उसको पुत्र मानकर पालिये, उसी को गोद ले लीजिये।’
पत्नी ने शोक भरे वचनों को सुनकर गंगाधरजी ने उसे ढाढ़स दिया और बोले कि हम निश्चय ही आज ही एक लड़का ले आवेंगे, तुम उसे पुत्रवत् पालन करना और यह कहते हुए कुछ रुपये लेकर वे वहाँ को चले जहाँ अर्चाविग्रह निर्माण होते थे। कुछ धन देकर वे श्रीकृष्णजी की सर्वलक्षण सम्पन्न एक प्रतिमा लेकर घर आये और श्रियाजी को वह विग्रह देकर कहा कि ‘इसकी अच्छी तरह सेवा शुश्रूषा करती रहो, इससे इस लोक में निर्वाह, लोकापवाद से मुक्ति और परलोक में भव बन्धन से मुक्ति मिलेगी। देखो, प्रिये ! इन्हीं कृष्ण से यशोदा माई मे पुत्रभाव रखकर अपना उद्धार कर लिया। ब्रह्मादि देवता भी इन्हीं का भजन करते हैं, इन प्रभु को छोड़कर जीवका उद्धार करने वाला दूसरा कोई नहीं है, तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले ये श्रीकृष्ण हैं।’
पति देव की आज्ञा मानकर श्रिया भगवान् श्रीकृष्ण के अर्चाविग्रह का मार्जन-स्नान कराके उन्हें सिंहासन पर पधारकर उत्तम-उत्तम भोग लगाती है। वह मन-ही-मन विचार करके कि बहुत दिन पर हमें पुत्र मिला है, हम लोग इन्हें देखकर सुखपूर्वक रहेंगे और शरीरपात होने पर इनकी कृपा से हमें मुक्ति भी मिल जायगी, सेवा में बहुत ही आनन्दित होती। जैसे माता को अपने बच्चे का लाड़-प्यार-दुलार अत्यन्त भाता है, वैसे ही इन अर्चा-विग्रह रूप शिशु के दुलार-प्यार-सेवा में श्रिया का नित्य नया चाव बढ़ता ही जाता था। वह तेल-सेवा में श्रिया का नित्य नया चाव बढ़ता ही जाता था। वह तेल-फुलेल-कुंकुम आदि लगाकर मंजन-स्नान कराती, कपूर-चन्दन लेपकर नाना प्रकार के अलंकारों से अपने प्रिय पुत्र को विभूषित करती, गरज कि माता जैसा लाडले शिशु की सेवा करती है ठीक उसी प्रकार वह प्यारे शिशु कृष्ण की सेवा करती।
एक दिन की बात है कि ग्रामवासियों के तानों से चित्त खिन्न हो जाने से साध्वी स्त्री ने अपने पति से कहा कि जहाँ-तहाँ घर-बाहर गाँव की स्त्रियाँ मुझे ताना मारा करती हैं और ‘अंठकुडी’ (अर्थात् जिसका मुँह न देखना चाहिये, मनहूस) कहा करती हैं। कोई-कोई तो मेरे सामने भी नहीं आतीं। कोई-कोई सामने भी यदि आ गयीं तो बोलती नहीं और कोई-कोई कह उठती हैं कि ‘इसका मुँह देख लिया, आज न जाने क्या अमंगल होगा, इत्यादि-इत्यादि। पर हमारे भाग्य में तो सन्तान है ही नहीं, चाह करने पर भी कैसे मिल सकती है। हाँ, एक बात सम्भव है, वह यह कि आप किसी एक ब्राह्मण बालक का यज्ञोपवीत करा दीजिये, विवाह कर दीजिये तथा किसी दरिद्रकुल का कोई लड़का मोल लेकर उसको पुत्र मानकर पालिये, उसी को गोद ले लीजिये।’
पत्नी ने शोक भरे वचनों को सुनकर गंगाधरजी ने उसे ढाढ़स दिया और बोले कि हम निश्चय ही आज ही एक लड़का ले आवेंगे, तुम उसे पुत्रवत् पालन करना और यह कहते हुए कुछ रुपये लेकर वे वहाँ को चले जहाँ अर्चाविग्रह निर्माण होते थे। कुछ धन देकर वे श्रीकृष्णजी की सर्वलक्षण सम्पन्न एक प्रतिमा लेकर घर आये और श्रियाजी को वह विग्रह देकर कहा कि ‘इसकी अच्छी तरह सेवा शुश्रूषा करती रहो, इससे इस लोक में निर्वाह, लोकापवाद से मुक्ति और परलोक में भव बन्धन से मुक्ति मिलेगी। देखो, प्रिये ! इन्हीं कृष्ण से यशोदा माई मे पुत्रभाव रखकर अपना उद्धार कर लिया। ब्रह्मादि देवता भी इन्हीं का भजन करते हैं, इन प्रभु को छोड़कर जीवका उद्धार करने वाला दूसरा कोई नहीं है, तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले ये श्रीकृष्ण हैं।’
पति देव की आज्ञा मानकर श्रिया भगवान् श्रीकृष्ण के अर्चाविग्रह का मार्जन-स्नान कराके उन्हें सिंहासन पर पधारकर उत्तम-उत्तम भोग लगाती है। वह मन-ही-मन विचार करके कि बहुत दिन पर हमें पुत्र मिला है, हम लोग इन्हें देखकर सुखपूर्वक रहेंगे और शरीरपात होने पर इनकी कृपा से हमें मुक्ति भी मिल जायगी, सेवा में बहुत ही आनन्दित होती। जैसे माता को अपने बच्चे का लाड़-प्यार-दुलार अत्यन्त भाता है, वैसे ही इन अर्चा-विग्रह रूप शिशु के दुलार-प्यार-सेवा में श्रिया का नित्य नया चाव बढ़ता ही जाता था। वह तेल-सेवा में श्रिया का नित्य नया चाव बढ़ता ही जाता था। वह तेल-फुलेल-कुंकुम आदि लगाकर मंजन-स्नान कराती, कपूर-चन्दन लेपकर नाना प्रकार के अलंकारों से अपने प्रिय पुत्र को विभूषित करती, गरज कि माता जैसा लाडले शिशु की सेवा करती है ठीक उसी प्रकार वह प्यारे शिशु कृष्ण की सेवा करती।
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।।
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै।।
प्रेम मगन कौसल्या निस दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै।।
प्रेम मगन कौसल्या निस दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।
ठीक यही दशा भक्तिमती श्रीश्रियाजी की हो रही है। जो द्रव्य प्राप्त होता
उसे पहले पुत्र को निवेदन करती, तब भक्त दम्पती भोजन करते। बिना अर्पित जल
तक छूते न थे; पीने की कौन कहे। भक्त गंगाधरजी भी वात्सल्य श्रियाजी से
किसी भाँति कम न था। कोई भी ऐसी वस्तु ग्राम में बिकने आती, जो बच्चों को
प्रिय लगती और जिसको बच्चे माँ से हठ करके लिया करते हैं, गंगाधर स्वयं
ला-लाकर श्रीबालगोपाल को भोग लगाते। हाट से मीठे-मीठे पदार्थ तुरंत पुत्र
के पास लाकर निवेदन करते। माता निरन्तर बच्चे को गोद में रखती, एक क्षण भी
अलग करना न चाहती। पुत्र के लिए रसोई बनाने के समय भी उसका चित्त पुत्र
में ही लगा रहता, क्षण-क्षण पर रसोई छोड़कर पुत्र को देखने चली जाती, फिर
आती, कभी-कभी आकर गोद में जोर से चिपटाकर कहती ‘मैं बड़ी
अभागिनी
हूँ। तुझे अकेला छोड़कर चली जाती हूँ।’ यह कहकर माता श्रीकृष्ण
का
मुख चूम लेती, उनका सिर सूँघती। पुत्र स्नेह छोड़कर दम्पती का सांसारिक
पदार्थों में भूलकर भी चित्त न जाता था। पुत्र पर पिता का भाव माता से
अधिक था।
इस तरह वात्सल्यभाव में पगे हुए दम्पती को बहुत काल बीत गया। एक दिन गंगाधरजी ने स्त्री से कहा- ‘मैं हाट जाता हूँ, मेरे कृष्ण की देखभाल करती रहना, इसकी सेवा-सँभाल तेरे जिम्मे है। देख, एक क्षण भी इसे अकेला छोड़कर कहीं जाना नहीं’-ऐसा कहकर उन्होंने पुत्र से भी किसी प्रकार वात्सल्य भरे स्नेहपगे वचन कहे और उसके चरणों में चित्त देखकर वाणिज्य के लिये गये। थोड़े ही दिन बीते थे कि पुत्र वियोग में उनका चित्त अत्यन्त व्याकुल होने लगा, एक-एक क्षण कल्प-समान बीतने लगा, उसके वियोग से चित्त अत्यन्त क्षुब्ध रहता। अतएव उन्होंने बहुत शीघ्रता की और कुछ अपूर्व फल, मिष्टान, पक्वान्न, जो गोविन्दपुर में नहीं मिलते थे, लेकर घर लौट चले। पुत्रदर्शन की लालसा में वृद्ध गंगाधर सुध-बुध खोये उतावली में चले जा रहे हैं। मन-ही-मन अनेक मनोरथ उठ रहे हैं-घर पहुँचकर पुत्र के दर्शन करूँगा, उसको यह-यह पदार्थ एक-एक करके निवेदन करूँगा, कभी गोद में लेकर चुम्बन करूँगा, कभी उस पर सर्वस्व निछावर करूँगा, राई-नोन उतारूँगा, मिष्टान अपने हाथ से पवाऊँगा, बारम्बार उसकी बलैया लूँगा इत्यादि।
इस प्रकार वात्सल्य भाव में छके हुए रास्ते में चले जा रहे थे कि ग्राम में प्रवेश करते ही एकाएक ठोकर लगने से पैर लड़ खड़ाया और आप जमीन पर गिर पड़े तथा उसी क्षण शक्ति रूपी पिंजडे से प्राणपखेरू उड़ा गया। प्राण निकलते समय विरहाग्नि उनके हृदय में धधक रही थी। सहसा उनके मुख से यह वचन निकल पड़े-‘हा बेटा कृष्ण ! मैं तुझे देख न पाया। मैं बड़ा ही पापी हूँ।’ कृष्ण-कृष्ण कहते हुए उनका शरीर छूट गया। ग्रामवासियों ने श्रीश्रियाजी को खबर दी। वह सती उस समय पुत्र के लिये भोजन बना रही थी। पति का शोक-समाचार सुन भारतीय होकर शोक से आतुर वह पुत्र के पास पहुँचती और यों पुकार करने लगी-अरे मेरे कृष्ण !! तू तो अरक्षित का भाई है, दीनों का मित्र है; वंशीधर है, जगत् को मोहित करने वाला है। अरे ! तेरा पिता राह में मर गया, मैं क्या करूँ। अरे ! पुत्र ! तुझसे पूछती हूँ, तू मुझे बता मैं क्या करूँ ? चक्रधर, विश्वम्भर, वैकुण्ठनिवास, अन्तर्यामी, सबके हृदय में बसने वाले, सबके जी की जानने वाले भक्तवत्सल भगवान् माता के वचन सुनकर उनकी भक्ति के वश होकर उनके पुत्रभाव को पूर्ण करने के लिये कहने लगे-‘माता ! तुम निश्चिन्त रहो, क्यों चिन्ता करती हो ? मेरे पिता मरे नहीं हैं। वे श्रान्त होकर पत्थर पर रास्ते में सो गये हैं,
इस तरह वात्सल्यभाव में पगे हुए दम्पती को बहुत काल बीत गया। एक दिन गंगाधरजी ने स्त्री से कहा- ‘मैं हाट जाता हूँ, मेरे कृष्ण की देखभाल करती रहना, इसकी सेवा-सँभाल तेरे जिम्मे है। देख, एक क्षण भी इसे अकेला छोड़कर कहीं जाना नहीं’-ऐसा कहकर उन्होंने पुत्र से भी किसी प्रकार वात्सल्य भरे स्नेहपगे वचन कहे और उसके चरणों में चित्त देखकर वाणिज्य के लिये गये। थोड़े ही दिन बीते थे कि पुत्र वियोग में उनका चित्त अत्यन्त व्याकुल होने लगा, एक-एक क्षण कल्प-समान बीतने लगा, उसके वियोग से चित्त अत्यन्त क्षुब्ध रहता। अतएव उन्होंने बहुत शीघ्रता की और कुछ अपूर्व फल, मिष्टान, पक्वान्न, जो गोविन्दपुर में नहीं मिलते थे, लेकर घर लौट चले। पुत्रदर्शन की लालसा में वृद्ध गंगाधर सुध-बुध खोये उतावली में चले जा रहे हैं। मन-ही-मन अनेक मनोरथ उठ रहे हैं-घर पहुँचकर पुत्र के दर्शन करूँगा, उसको यह-यह पदार्थ एक-एक करके निवेदन करूँगा, कभी गोद में लेकर चुम्बन करूँगा, कभी उस पर सर्वस्व निछावर करूँगा, राई-नोन उतारूँगा, मिष्टान अपने हाथ से पवाऊँगा, बारम्बार उसकी बलैया लूँगा इत्यादि।
इस प्रकार वात्सल्य भाव में छके हुए रास्ते में चले जा रहे थे कि ग्राम में प्रवेश करते ही एकाएक ठोकर लगने से पैर लड़ खड़ाया और आप जमीन पर गिर पड़े तथा उसी क्षण शक्ति रूपी पिंजडे से प्राणपखेरू उड़ा गया। प्राण निकलते समय विरहाग्नि उनके हृदय में धधक रही थी। सहसा उनके मुख से यह वचन निकल पड़े-‘हा बेटा कृष्ण ! मैं तुझे देख न पाया। मैं बड़ा ही पापी हूँ।’ कृष्ण-कृष्ण कहते हुए उनका शरीर छूट गया। ग्रामवासियों ने श्रीश्रियाजी को खबर दी। वह सती उस समय पुत्र के लिये भोजन बना रही थी। पति का शोक-समाचार सुन भारतीय होकर शोक से आतुर वह पुत्र के पास पहुँचती और यों पुकार करने लगी-अरे मेरे कृष्ण !! तू तो अरक्षित का भाई है, दीनों का मित्र है; वंशीधर है, जगत् को मोहित करने वाला है। अरे ! तेरा पिता राह में मर गया, मैं क्या करूँ। अरे ! पुत्र ! तुझसे पूछती हूँ, तू मुझे बता मैं क्या करूँ ? चक्रधर, विश्वम्भर, वैकुण्ठनिवास, अन्तर्यामी, सबके हृदय में बसने वाले, सबके जी की जानने वाले भक्तवत्सल भगवान् माता के वचन सुनकर उनकी भक्ति के वश होकर उनके पुत्रभाव को पूर्ण करने के लिये कहने लगे-‘माता ! तुम निश्चिन्त रहो, क्यों चिन्ता करती हो ? मेरे पिता मरे नहीं हैं। वे श्रान्त होकर पत्थर पर रास्ते में सो गये हैं,
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