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गुलजार के किस्सों का नया गुलदस्ता
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
कहानियों के कई रुख़ होते हैं। ऐसी गोल नहीं होतीं कि हर तरफ़ से एक ही सी नज़र आएँ। सामने, सर उठाये खड़ी पहाड़ी की तरह हैं, जिस पर कई लोग चढ़े हैं और बेशुमार पगडंडियाँ बनाते हुए गुज़रे हैं। अगर आप पहले से बनी पगडंडियों पर नहीं चल रहे हैं, तो कहानी का कोई नया रुख़ देख रहे होंगे। हो सकता है आप किसी चोटी तक पहुँच जाएँ।
कहानियाँ घड़ी नहीं जातीं। वो घटती रहती हैं, वाक़्य होती हैं, आपके चारों तरफ़। कुछ साफ़ नज़र आ जाती हैं। कुछ आँख से ओझल होती हैं। ऊपर की सतह को ज़रा सा छील दो तो बिलबिला कर ऊपर आ जाती हैं।
सब कुछ अपना तजुर्बा तो नहीं होता, लेकिन किसी और के मुशाहिदे और वजूद से भी गुजरो तो वो तजृबा अपना हो जाता है।
बोसीदा दीवार से जैसे अस्तर और चूना गिरता रहता है। अख़बारों से हर रोज़ बोसीदा ख़बरों का पलास्तर गिरता है।
जिसे हम हर रोज़ पढ़ते हैं और लपेट कर रद्दी में रख देते हैं। कभी-कभी उन ख़बरों के किर्दार, सड़े फल के कीड़ों की तरह उन अख़बारों से बाहर आने लगते हैं। कोने खुदरे ढूँढ़ते हैं। कहीं कोई नमी मिल जाए तो पनपने लगते हैं। इस मजमुये में कुछ कहानियाँ उनकी भी हैं।
मैने बेवजह एक कोशिश की है, इन कहानियों को कुछ हिस्सों में तरतीब देने की। वो ना भी करता तो आप खुद अपने-अपने तजृबों के हिसाब से उन्हें तरतीब दे देते।
इनमें कोई भी एक कहानी ऐसी नहीं थी कि मैं उसे मजमुये का मर्कज़ वना कर, मजमुये का नाम दे देता। ड्योढ़ी में बैठा जैसे ‘पिंजारा’ रूई धुनता है। मैं कहानियाँ धुनता रहा। जिसका जी चाहे अपने तकिये, तलाईयाँ भर ले।
कुछ घुनी हुई कहानियाँ ‘सलीम आरिफ़’ के ड्रामों में नज़र आती हैं।
कहानियाँ घड़ी नहीं जातीं। वो घटती रहती हैं, वाक़्य होती हैं, आपके चारों तरफ़। कुछ साफ़ नज़र आ जाती हैं। कुछ आँख से ओझल होती हैं। ऊपर की सतह को ज़रा सा छील दो तो बिलबिला कर ऊपर आ जाती हैं।
सब कुछ अपना तजुर्बा तो नहीं होता, लेकिन किसी और के मुशाहिदे और वजूद से भी गुजरो तो वो तजृबा अपना हो जाता है।
बोसीदा दीवार से जैसे अस्तर और चूना गिरता रहता है। अख़बारों से हर रोज़ बोसीदा ख़बरों का पलास्तर गिरता है।
जिसे हम हर रोज़ पढ़ते हैं और लपेट कर रद्दी में रख देते हैं। कभी-कभी उन ख़बरों के किर्दार, सड़े फल के कीड़ों की तरह उन अख़बारों से बाहर आने लगते हैं। कोने खुदरे ढूँढ़ते हैं। कहीं कोई नमी मिल जाए तो पनपने लगते हैं। इस मजमुये में कुछ कहानियाँ उनकी भी हैं।
मैने बेवजह एक कोशिश की है, इन कहानियों को कुछ हिस्सों में तरतीब देने की। वो ना भी करता तो आप खुद अपने-अपने तजृबों के हिसाब से उन्हें तरतीब दे देते।
इनमें कोई भी एक कहानी ऐसी नहीं थी कि मैं उसे मजमुये का मर्कज़ वना कर, मजमुये का नाम दे देता। ड्योढ़ी में बैठा जैसे ‘पिंजारा’ रूई धुनता है। मैं कहानियाँ धुनता रहा। जिसका जी चाहे अपने तकिये, तलाईयाँ भर ले।
कुछ घुनी हुई कहानियाँ ‘सलीम आरिफ़’ के ड्रामों में नज़र आती हैं।
- गुलज़ार
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