उपन्यास >> न भेज्यो विदेस न भेज्यो विदेससुदर्शन प्रियदर्शिनी
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प्रवासी लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी की नवीनतम औपन्यासिक कृति
लेखिका का परिचय स्वयं उनके शब्दों मे।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
एक अनाम हस्ताक्षर हूँ। पिछले अनगणित सालों से अपने आपको ढूँढने की तलाश जारी है। अभी अपनी कोई पहचान नहीं बन पायी। परिचय के योग्य कुछ विशेष नहीं है। छिटपुट छपने से जो पहचान बन सकती है वही बन सकी है।
लिखती क्यों हूँ?
अंदर बाहर के द्वंदों को झेलते-झेलते स्वयं ही कलम उठने लगती है। मालूम नहीं पड़ता क्या लिख पाती हूँ और क्या छूट जाता है? अभी तक सब अधूरा लगता है। कभी-कभी चाहने लगती हूँ कि कोई दैवी शक्ति हो जो मेरी कलम में समा जाये और वह सब कुछ उलीच-उलीच कर बाहर निकाल दे जो मुझे अन्दर ही अन्दर सालता रहता है।
जन्म स्थान: लाहौर (अविभाजित भारत)।
शिक्षा : एम.ए. एवं हिन्दी में पी-एच.डी.। अनेक वर्षों तक भारत में शिक्षण कार्य किया।
अमरीका में 1982 में आई तब से लेखन लगभग बंद रहा। अब पिछले तीन-चार सालों से भारत की पत्रिकाओं में छपने लगी हूँ। अमरीका में रहकर भारतीय संस्कृति पर आधारित लगभग दस साल तक पत्रिका निकाली। टी.वी. प्रोग्राम एवं रेडियो प्रसारण भी किया। अब केवल स्वतंत्र लेखन।
पुरस्कार
महादेवी पुरस्कार: हिन्दी परिषद टोरेंटो कनाडा
महानता पुरस्कार: फेडरेशन आफ इंडिया ओहायो
गर्वनेस मीडिया पुरस्कार ओहायो यू. एस. ए.
प्रकाशित रचनाएँ
उपन्यास
1. रेत के घर
2. जलाक
3. सूरज नहीं उगेगा
4. न भेज्यो बिदेस
कविता संग्रह
1. शिखंडी युग
2. बराह
3. यह युग रावण है (प्रकाशाधीन)
4. मैं कौण हाँ (पंजाबी)
कहानी संग्रह
उत्तरायण
सुबह उठी तो मन उचाट सा था । एक बेसुरी-सी धुन उन सफेद पहाड़ों की बर्फ में अंदर तक दहला गई । प्रकृति की भी अपनी एक भाषा होती हे जो कभी-कभी अनजाने ही परोक्ष में अपनी बात कह जाती है ।
अप्रैल के महीने में भी जाड़ा अपनी चौकड़ी जमा कर बैठा था । बाहर-भीतर कोहरा जम गया था । दरख्तों पर कफन की सी सफेदी एक-एक टहनी को पकड़ कर बैठ गई थी और लटकते आइस्किल बार-बार नई आकृतियाँ बनाते हवा में झूल रहे थे । आँख-खुलते ही एक बोझ सा कंधों पर सबार हो गया था । एक अजीब किस्म की अनकही-बेचैनी अंदर-बाहर दबोच रही थी । एकाएक फोन की घंटी किसी अपशकुनि कौवे सी बज उठी । मेरी उदासी किसी अनहोनी-आशंका से कपकपाने लगी ।
प्रीतम का फोन था । उसकी बात सुनते ही फोन हाथ में लटक गया... और मैं किसी अतीत में... ।
तुम जानती हो । तुम कितनी सुंदर हो-मैंने फुसफुसा कर एक दिन उसके कान के पपीटे के निकट होकर कहा था-जब वह हाथ में रेस्टारेंट का मेन्यू लिए हमें बिठाने जा रही थी । मैंने इशारे से कोने वाली टेबिल पर बैठने की इच्छा व्यक्त की-तो वह हमें उधर ही ले गई ।
उदास संध्या सी फैली उसके चेहरे की उदासी क्षण-भर के लिए मुस्करा कर सिंदूरी हो गई थी बाद में फिर वही झख सफेद रंग... ।
तुम कभी हँसती भी हो। वह जबरन मुस्का दी । तुम्हारी मुस्कान कैसी दूध-घुली चाँदनी सी छिटकती है मैंने मन ही मन सोचा यों मुझे उसके चेहरे के अंदर छिपे भाव-विभाव को शब्दों में उतारने का शऊर नहीं है । मेरे विचार में तो उसे बस एक ...
लिखती क्यों हूँ?
अंदर बाहर के द्वंदों को झेलते-झेलते स्वयं ही कलम उठने लगती है। मालूम नहीं पड़ता क्या लिख पाती हूँ और क्या छूट जाता है? अभी तक सब अधूरा लगता है। कभी-कभी चाहने लगती हूँ कि कोई दैवी शक्ति हो जो मेरी कलम में समा जाये और वह सब कुछ उलीच-उलीच कर बाहर निकाल दे जो मुझे अन्दर ही अन्दर सालता रहता है।
जन्म स्थान: लाहौर (अविभाजित भारत)।
शिक्षा : एम.ए. एवं हिन्दी में पी-एच.डी.। अनेक वर्षों तक भारत में शिक्षण कार्य किया।
अमरीका में 1982 में आई तब से लेखन लगभग बंद रहा। अब पिछले तीन-चार सालों से भारत की पत्रिकाओं में छपने लगी हूँ। अमरीका में रहकर भारतीय संस्कृति पर आधारित लगभग दस साल तक पत्रिका निकाली। टी.वी. प्रोग्राम एवं रेडियो प्रसारण भी किया। अब केवल स्वतंत्र लेखन।
पुरस्कार
महादेवी पुरस्कार: हिन्दी परिषद टोरेंटो कनाडा
महानता पुरस्कार: फेडरेशन आफ इंडिया ओहायो
गर्वनेस मीडिया पुरस्कार ओहायो यू. एस. ए.
प्रकाशित रचनाएँ
उपन्यास
1. रेत के घर
2. जलाक
3. सूरज नहीं उगेगा
4. न भेज्यो बिदेस
कविता संग्रह
1. शिखंडी युग
2. बराह
3. यह युग रावण है (प्रकाशाधीन)
4. मैं कौण हाँ (पंजाबी)
कहानी संग्रह
उत्तरायण
न भेज्यो बिदेस
सुबह उठी तो मन उचाट सा था । एक बेसुरी-सी धुन उन सफेद पहाड़ों की बर्फ में अंदर तक दहला गई । प्रकृति की भी अपनी एक भाषा होती हे जो कभी-कभी अनजाने ही परोक्ष में अपनी बात कह जाती है ।
अप्रैल के महीने में भी जाड़ा अपनी चौकड़ी जमा कर बैठा था । बाहर-भीतर कोहरा जम गया था । दरख्तों पर कफन की सी सफेदी एक-एक टहनी को पकड़ कर बैठ गई थी और लटकते आइस्किल बार-बार नई आकृतियाँ बनाते हवा में झूल रहे थे । आँख-खुलते ही एक बोझ सा कंधों पर सबार हो गया था । एक अजीब किस्म की अनकही-बेचैनी अंदर-बाहर दबोच रही थी । एकाएक फोन की घंटी किसी अपशकुनि कौवे सी बज उठी । मेरी उदासी किसी अनहोनी-आशंका से कपकपाने लगी ।
प्रीतम का फोन था । उसकी बात सुनते ही फोन हाथ में लटक गया... और मैं किसी अतीत में... ।
तुम जानती हो । तुम कितनी सुंदर हो-मैंने फुसफुसा कर एक दिन उसके कान के पपीटे के निकट होकर कहा था-जब वह हाथ में रेस्टारेंट का मेन्यू लिए हमें बिठाने जा रही थी । मैंने इशारे से कोने वाली टेबिल पर बैठने की इच्छा व्यक्त की-तो वह हमें उधर ही ले गई ।
उदास संध्या सी फैली उसके चेहरे की उदासी क्षण-भर के लिए मुस्करा कर सिंदूरी हो गई थी बाद में फिर वही झख सफेद रंग... ।
तुम कभी हँसती भी हो। वह जबरन मुस्का दी । तुम्हारी मुस्कान कैसी दूध-घुली चाँदनी सी छिटकती है मैंने मन ही मन सोचा यों मुझे उसके चेहरे के अंदर छिपे भाव-विभाव को शब्दों में उतारने का शऊर नहीं है । मेरे विचार में तो उसे बस एक ...
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