गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त नारी भक्त नारीहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत पुस्तक में भक्त नारियों का वर्णन है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
यह भक्त-चरितमाला का दूसरा पुष्प है, इसमें भी पाँच भक्त देवियों के
उपदेशप्रद चरित्र हैं। इनमें शबरी और जनाबाई के चरित्र तो अन्य लेखकों के
लिखे हुए हैं, शेष मीराबाई, करमैतीबाई और रबिया के चरित्रों में पहला
भक्तमाल आदि अनेक ग्रन्थों और खास जानकार लोगों के द्वारा सुनी हुई बातों
के आधार पर, दूसरा भक्तमाल के आधार पर और तीसरा एक बंगला पुस्तक के आधार
से लिखा गया है। पाठक-पाठिका इन सब चरित्रों से लाभ उठावें यही प्रार्थना
है।
-सम्पादक
भक्त नारी
शबरी
त्रेतायुग का समय है, वर्णाश्रम-धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनों में
स्थान-स्थान पर ऋषियों के पवित्र आश्रम बने हुए हैं। तपोधन ऋषियों के
यज्ञधूम से दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनि से आकाश मुखरित हो रहा है। ऐसे
समय दण्कारण्य में एक पति-पुत्र-विहीना, भक्ति-श्रद्धा-सम्पन्ना भीलनी
रहती थी; जिसका नाम था शबरी।
शबरी ने एक बार मतंग ऋषि के दर्शन किये। संत—दर्शन से उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओं की सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है। परंतु साथ ही उसे इस बात का भी ध्यान आया कि मुझ नीच कुल में उत्पन्न अधम नारी की सेवा ये स्वीकार कैसे करेंगे ? अन्त में उसने निश्चय किया कि यदि प्रकटरूप से मेरी सेवा स्वीकार नहीं होती तो न सही, मैं इनकी सेवा अप्रकटरूप से अवश्य करूँगी। यह सोचकर उसने ऋषियों के आश्रमों से थोड़ी दूर पर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली और कंद-मूल फल से अपना उदर-पोषण करती हुई वह अप्रकट रूप से सेवा करने लगी। जिस मार्ग से ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उषाकाल के पूर्व ही उसको झाड़ बुहार कर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता। इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातःकाल के पहले-पहले ईंधन के सूखे ढेर लगा देती। शबरी को विश्वास था कि मेरे इस कार्य से दयालु महात्माओं की कृपा मुझपर अवश्य होगी।
कँकरीले और कँटीले रास्ते को निष्कण्टक और कंकड़ों से रहित देखकर तथा द्वार पर समिधा का संग्रह देख कर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगाने की आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन कामों को कौन कर जाता है ? आज्ञाकारी शिष्य रात को पहरा देने लगे और उसी रात के पिछले पहर शबरी ईंधन का बोझा रखती हुई पकड़ी गयी। शबरी बहुत ही डर गयी। शिष्यगण उसे मतंग मुनि के सामने ले गये और उन्होंने मुनि से कहा ‘महाराज’ ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जानेवाले चोर को आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।’ शिष्यों की बात को सुनकर भयकातरा शबरी से मुनि ने पूछा ‘तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लाने का काम करती है ?’ भक्तिमती शबरी ने काँपते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा नाथ ! मेरा नाम शबरी है, मद्न भाग्य से मेरा जन्म नीच कुल में हुआ है, मैं इसी वन में रहती हूँ और आप-जैसे तपोधन मुनियों के दर्शन से अपने को पवित्र करती हूँ। अन्य किसी प्रकार की सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है। भगवान् ! मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं। कृपा-पूर्वक मेरे अपराध को क्षमा करें।’ शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंग ने दयापरवश अपने शिष्यों से कहा कि यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो और इसके लिये अन्नादि का उचित प्रबन्ध कर दो।’
ऋषि के दयापूर्ण वचन सुनकर शबरी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, कृपानाथ ! मैं तो कंद-मूलादि से ही अपना उदर-पोषण कर लिया करती हूँ आपका अन्न-प्रसाद तो मुझे इसलिए इच्छित है कि इससे मुझ पर आपकी वास्तविक कृपा होगी जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी। मुझे न तो वैभव की इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। ‘दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी सद्गति हो।’ विनयावनत श्रद्धालु शबरी के ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंग ने कुछ देर सोच-विचार कर प्रेम पूर्वक उससे कहा—‘हे कल्याणि तू निर्भय होकर यहाँ रह और भगवान् के नाम का जप किया कर !’ ऋषिकी कृपा से शबरी जटा-चीर-धारिणी होकर भगवद्भजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने मतंग ऋषि से कह दिया कि आपने नीच जाति शबरी को आश्रम में स्थान दिया है, इससे हमलोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते। भक्तितत्त्व के मर्मज्ञ मतंग ने इन शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बात को जानते थे कि ये सब भ्रम में हैं। शबरी के स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्तिपरायण उच्च आत्मा है, ऐसा कौन बुद्धिमान है जो हीन वर्ण में उत्पन्न भगवत्परायण भक्त का आदर न करता हो ? जिस शबरी के हृदय में राम का रमण होने लगा था, उससे ऋषि मतंग कैसे घृणा कर सकते थे ? उन्होंने इस अवहेलना का कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरी की भक्ति बढ़ाते रहे।
इस प्रकार भगवद्गुण-स्मरण और गान करते-करते बहुत समय बीत गया। मतंग ऋषिने शरीर छोड़ने की इच्छा की, यह जानकर शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेश के कारण क्रन्दन करने लगी। गुरुदेव का परमधा में पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली, ‘नाथ ! आप अकेले ही न जायँ, यह किंकरी भी आपके साथ जाने को तैयार है, विषण्णवदना कृताञ्जलिदीना शबरी को सम्मुख देखकर मतंग ऋषिने कहा—‘हे सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे; भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूट में हैं। वे यहाँ अवश्य पधारेंगे। उन्हें तू इन्हीं चर्म-चझुओं से प्रत्यक्ष कर सकेगी, वे साक्षात् नारायण हैं। उनके दर्शन से तेरा कल्याण हो जायगा। भक्तवत्सल भगवान् जब तेरे आश्रममें पधारे, तब उनका भलीभाँति आतिथ्य कर अपने जीवन को सफल करना, तबतक तू श्रीराम-नाम का जप करती हुई यहीं निवास कर।’
शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्य लोक को चले गये। इधर शबरी ने श्रीराम-नाममें ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बात का ध्यान ही नहीं रहा। शबरी कंद-मूल-फलों पर अपना जीवन-निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीराम के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं त्यों-ही-त्यों शबरी की राम-दर्शन-लालसा प्रबल होती जाती है जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरता के साथ प्रत्येक वृक्ष, लता-पत्र, पुष्प और फलों से तथा पशु-पक्षियों से पूछती है कि अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे ?’ प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज संध्या को आवेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सबेरे तो अवश्य पधारेंगे। कभी घर के बाहर जाती है कभी भीतर आती है।
शबरी ने एक बार मतंग ऋषि के दर्शन किये। संत—दर्शन से उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओं की सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है। परंतु साथ ही उसे इस बात का भी ध्यान आया कि मुझ नीच कुल में उत्पन्न अधम नारी की सेवा ये स्वीकार कैसे करेंगे ? अन्त में उसने निश्चय किया कि यदि प्रकटरूप से मेरी सेवा स्वीकार नहीं होती तो न सही, मैं इनकी सेवा अप्रकटरूप से अवश्य करूँगी। यह सोचकर उसने ऋषियों के आश्रमों से थोड़ी दूर पर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली और कंद-मूल फल से अपना उदर-पोषण करती हुई वह अप्रकट रूप से सेवा करने लगी। जिस मार्ग से ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उषाकाल के पूर्व ही उसको झाड़ बुहार कर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता। इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातःकाल के पहले-पहले ईंधन के सूखे ढेर लगा देती। शबरी को विश्वास था कि मेरे इस कार्य से दयालु महात्माओं की कृपा मुझपर अवश्य होगी।
कँकरीले और कँटीले रास्ते को निष्कण्टक और कंकड़ों से रहित देखकर तथा द्वार पर समिधा का संग्रह देख कर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगाने की आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन कामों को कौन कर जाता है ? आज्ञाकारी शिष्य रात को पहरा देने लगे और उसी रात के पिछले पहर शबरी ईंधन का बोझा रखती हुई पकड़ी गयी। शबरी बहुत ही डर गयी। शिष्यगण उसे मतंग मुनि के सामने ले गये और उन्होंने मुनि से कहा ‘महाराज’ ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जानेवाले चोर को आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।’ शिष्यों की बात को सुनकर भयकातरा शबरी से मुनि ने पूछा ‘तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लाने का काम करती है ?’ भक्तिमती शबरी ने काँपते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा नाथ ! मेरा नाम शबरी है, मद्न भाग्य से मेरा जन्म नीच कुल में हुआ है, मैं इसी वन में रहती हूँ और आप-जैसे तपोधन मुनियों के दर्शन से अपने को पवित्र करती हूँ। अन्य किसी प्रकार की सेवा में अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकार की सेवा में ही मन लगाया है। भगवान् ! मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं। कृपा-पूर्वक मेरे अपराध को क्षमा करें।’ शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंग ने दयापरवश अपने शिष्यों से कहा कि यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो और इसके लिये अन्नादि का उचित प्रबन्ध कर दो।’
ऋषि के दयापूर्ण वचन सुनकर शबरी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, कृपानाथ ! मैं तो कंद-मूलादि से ही अपना उदर-पोषण कर लिया करती हूँ आपका अन्न-प्रसाद तो मुझे इसलिए इच्छित है कि इससे मुझ पर आपकी वास्तविक कृपा होगी जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी। मुझे न तो वैभव की इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। ‘दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी सद्गति हो।’ विनयावनत श्रद्धालु शबरी के ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंग ने कुछ देर सोच-विचार कर प्रेम पूर्वक उससे कहा—‘हे कल्याणि तू निर्भय होकर यहाँ रह और भगवान् के नाम का जप किया कर !’ ऋषिकी कृपा से शबरी जटा-चीर-धारिणी होकर भगवद्भजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने मतंग ऋषि से कह दिया कि आपने नीच जाति शबरी को आश्रम में स्थान दिया है, इससे हमलोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते। भक्तितत्त्व के मर्मज्ञ मतंग ने इन शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बात को जानते थे कि ये सब भ्रम में हैं। शबरी के स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्तिपरायण उच्च आत्मा है, ऐसा कौन बुद्धिमान है जो हीन वर्ण में उत्पन्न भगवत्परायण भक्त का आदर न करता हो ? जिस शबरी के हृदय में राम का रमण होने लगा था, उससे ऋषि मतंग कैसे घृणा कर सकते थे ? उन्होंने इस अवहेलना का कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरी की भक्ति बढ़ाते रहे।
इस प्रकार भगवद्गुण-स्मरण और गान करते-करते बहुत समय बीत गया। मतंग ऋषिने शरीर छोड़ने की इच्छा की, यह जानकर शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेश के कारण क्रन्दन करने लगी। गुरुदेव का परमधा में पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली, ‘नाथ ! आप अकेले ही न जायँ, यह किंकरी भी आपके साथ जाने को तैयार है, विषण्णवदना कृताञ्जलिदीना शबरी को सम्मुख देखकर मतंग ऋषिने कहा—‘हे सुव्रते ! तू यह विषाद छोड़ दे; भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूट में हैं। वे यहाँ अवश्य पधारेंगे। उन्हें तू इन्हीं चर्म-चझुओं से प्रत्यक्ष कर सकेगी, वे साक्षात् नारायण हैं। उनके दर्शन से तेरा कल्याण हो जायगा। भक्तवत्सल भगवान् जब तेरे आश्रममें पधारे, तब उनका भलीभाँति आतिथ्य कर अपने जीवन को सफल करना, तबतक तू श्रीराम-नाम का जप करती हुई यहीं निवास कर।’
शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्य लोक को चले गये। इधर शबरी ने श्रीराम-नाममें ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बात का ध्यान ही नहीं रहा। शबरी कंद-मूल-फलों पर अपना जीवन-निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीराम के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं त्यों-ही-त्यों शबरी की राम-दर्शन-लालसा प्रबल होती जाती है जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरता के साथ प्रत्येक वृक्ष, लता-पत्र, पुष्प और फलों से तथा पशु-पक्षियों से पूछती है कि अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे ?’ प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज संध्या को आवेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सबेरे तो अवश्य पधारेंगे। कभी घर के बाहर जाती है कभी भीतर आती है।
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