संस्मरण >> मेरा हमदम मेरा दोस्त मेरा हमदम मेरा दोस्तकमलेश्वर
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मेरा हमदम मेरा दोस्त (संस्मरण)
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘मेरा हमदम मेरा दोस्त’ में बारह भारतीय रचनाकारों के जीवन के बेहद निजी शब्द-चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। अपने समय की उत्कृष्ट स्तंभ-ऋंखला के अन्तर्गत प्रकाशित इन चर्चित साहित्यकारों के जीवन और कर्म का मार्मिक तथा यथार्थ चित्रण, पाठक इन संस्मरणों में पायेंगे।
वस्तुतः रचनाकार पाठकों की अदालत के कटघरे में खड़े रहने वाला एक अभिशप्त जीव है। उसके अंतरतम जीवन और प्रकाशित लेखनादर्शों का आमना-सामना भी प्रायः कराया जाता रहा है। पाठक अपेक्षा रखते हैं कि जीवन में उदात्तता को भर देने वाले चरित्रों का यह जनक भी नितांत मैल-गर्द मुक्त हो। जबकि क्रूर सत्य यह है कि लेखक अंततः मनुष्य है बल्कि कहें कि आदमी के समक्ष कहीं ज्यादा आम आदमी है जो दूसरों की व्यथा को अपनी (जीवन) कथा में जोड़ने और भोगने को विवश है। अपने श्रम से वह दूसरों का स्वेद बहाता है और अपनी आँख में, वंचित के नेत्र-मल को मणि की तरह संरक्षित करना चाहता है। इस दोहरे संघर्ष और जीवन की नियमित अनिवार्यताओं को पूरा कर पाने की महातड़प में लेखक के व्यक्तित्व में प्रायः फाड़ आ जाती है और स्वभावतः वह ‘सामान्य’ व्यक्ति नहीं रह पाता। यह एक लेखक की जिन्दगी का ‘कुदृश्य’ है जो वर्षों तक स्फटिक बनकर साहित्य के शीर्ष पर कौंधा करता है। यह किताब रचनाकार के ऐसे ही जीवन-संसार का प्रत्यक्ष अवलोकन है। और सबसे सर्जनात्मक तथ्य यह कि इन शब्द-चित्रों में लेखक तथा मूल विषय (हमदम, दोस्त) के बीच तिरछी चितवन भी है, टकटकी, त्योरी, आँखमारी भी है और साथ ही परिदर्शन, निगहबानी और कई स्थलों पर अनवलोकन अर्थात् नज़रअंदाजी भी। वास्तव में ये लेख साहित्यिक मित्रता के साहस, दुस्साहस, धैर्य, मनोबल, अभय तथा खुलेपन के अनुपम उदाहरण हैं।
मित्रता के स्तर पर साहित्यिक दुनिया के समकालीन ‘सांप्रदायिक’ माहौल में यह किताब एक ऐसी तूलिका की भूमिका निभा सकती है जो किसी रचनाधर्मी के पोर्टेट, लैंडस्केप, फ़ोक पेटिंग, कार्टून सभी कुछ को दक्षता के साथ एक ही कैनवस पर उतार सकती है। ऐसी साहित्यिक मित्रताओं को शायद ही कहीं कोई अन्य वर्णमाला मिली हो। इस दृष्टि से यह किताब योगदान नहीं वरदान है।
वस्तुतः रचनाकार पाठकों की अदालत के कटघरे में खड़े रहने वाला एक अभिशप्त जीव है। उसके अंतरतम जीवन और प्रकाशित लेखनादर्शों का आमना-सामना भी प्रायः कराया जाता रहा है। पाठक अपेक्षा रखते हैं कि जीवन में उदात्तता को भर देने वाले चरित्रों का यह जनक भी नितांत मैल-गर्द मुक्त हो। जबकि क्रूर सत्य यह है कि लेखक अंततः मनुष्य है बल्कि कहें कि आदमी के समक्ष कहीं ज्यादा आम आदमी है जो दूसरों की व्यथा को अपनी (जीवन) कथा में जोड़ने और भोगने को विवश है। अपने श्रम से वह दूसरों का स्वेद बहाता है और अपनी आँख में, वंचित के नेत्र-मल को मणि की तरह संरक्षित करना चाहता है। इस दोहरे संघर्ष और जीवन की नियमित अनिवार्यताओं को पूरा कर पाने की महातड़प में लेखक के व्यक्तित्व में प्रायः फाड़ आ जाती है और स्वभावतः वह ‘सामान्य’ व्यक्ति नहीं रह पाता। यह एक लेखक की जिन्दगी का ‘कुदृश्य’ है जो वर्षों तक स्फटिक बनकर साहित्य के शीर्ष पर कौंधा करता है। यह किताब रचनाकार के ऐसे ही जीवन-संसार का प्रत्यक्ष अवलोकन है। और सबसे सर्जनात्मक तथ्य यह कि इन शब्द-चित्रों में लेखक तथा मूल विषय (हमदम, दोस्त) के बीच तिरछी चितवन भी है, टकटकी, त्योरी, आँखमारी भी है और साथ ही परिदर्शन, निगहबानी और कई स्थलों पर अनवलोकन अर्थात् नज़रअंदाजी भी। वास्तव में ये लेख साहित्यिक मित्रता के साहस, दुस्साहस, धैर्य, मनोबल, अभय तथा खुलेपन के अनुपम उदाहरण हैं।
मित्रता के स्तर पर साहित्यिक दुनिया के समकालीन ‘सांप्रदायिक’ माहौल में यह किताब एक ऐसी तूलिका की भूमिका निभा सकती है जो किसी रचनाधर्मी के पोर्टेट, लैंडस्केप, फ़ोक पेटिंग, कार्टून सभी कुछ को दक्षता के साथ एक ही कैनवस पर उतार सकती है। ऐसी साहित्यिक मित्रताओं को शायद ही कहीं कोई अन्य वर्णमाला मिली हो। इस दृष्टि से यह किताब योगदान नहीं वरदान है।
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