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			 कविता संग्रह >> दिन क्या बुरे थे दिन क्या बुरे थेवीरेन्द्र आस्तिक
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गीत के सफर में एक सवाल अक्सर किया गया कि मैं क्यों लिखता हूँ और किसके लिए लिखता हूँ
गीत के सफर में एक सवाल अक्सर किया गया कि मैं क्यों लिखता हूँ और किसके लिए लिखता हूँ। लेकिन इन प्रश्नों पर मैंने कभी विचार ही नहीं किया। मैं आज भी अच्छी तरह से नहीं जानता इन सवालों के उत्तर। मैं उन रचनाकारों में भी नहीं हूँ जो बाकायदा ट्रेनिंग लेकर रचना के क्षेत्र में उतरते हैं। मुझे नहीं पता कि साहित्य में ऐसे प्रश्न किसने उठाए। मुझे नहीं लगता कि ऐसे प्रश्न तुलसी, कबीर और निराला आदि से किए गये होंगे। बावजूद इसके वे लोग मानव हित में रचना करते रहे। वे अनैतिक होते हुये मानव को सावधान करते रहे।
जरूर कोई गहरा संबंध होगा, लेखन-कला का मस्तिष्क की संरचना से। मस्तिष्क की संरचना को समझने का एक आसान-सा तरीका यह भी हो सकता है कि मैं अपने बचपन की कारगुजारियों में जाऊँ, जहाँ पर भावी जीवन की जमीन तैयार हो रही थी। शायद वही जमीन मेरे वर्तमान को भी प्रासंगिक बना ही है। बचपन के कारनामे मेरे जेहन में हैं, जिनमें इस बात के संकेत मिलते हैं कि मेरी प्रकृति एक अनवेषक की रही है। खोजी प्रवृत्ति रचना की जन्मदात्री होती है। रचना चाहे शब्दों में हो या रंगों के माध्यम से अथवा बदैर्थों के द्वारा, सभी के मूल में ज्ञात से अज्ञात को जानना होता है।
जरूर कोई गहरा संबंध होगा, लेखन-कला का मस्तिष्क की संरचना से। मस्तिष्क की संरचना को समझने का एक आसान-सा तरीका यह भी हो सकता है कि मैं अपने बचपन की कारगुजारियों में जाऊँ, जहाँ पर भावी जीवन की जमीन तैयार हो रही थी। शायद वही जमीन मेरे वर्तमान को भी प्रासंगिक बना ही है। बचपन के कारनामे मेरे जेहन में हैं, जिनमें इस बात के संकेत मिलते हैं कि मेरी प्रकृति एक अनवेषक की रही है। खोजी प्रवृत्ति रचना की जन्मदात्री होती है। रचना चाहे शब्दों में हो या रंगों के माध्यम से अथवा बदैर्थों के द्वारा, सभी के मूल में ज्ञात से अज्ञात को जानना होता है।
अभिव्यक्ति
परिभाषाओं के
सब सम्मोहन
तोड़ दिए
भाषा की मुक्ति के लिए
भाषण, प्रवचन के महलों में
हम रह सके नहीं
वे मठ, झण्डे और शिविर
हम को छल सके नहीं
जूझते रहे हम
अनुभूति और शब्दों से
दोनों की सन्धि के लिए
किस भाषा में गूँगे शब्दों के
आशय खोलें
अमृत-सत्य को
रुग्ण-शिराओं में
कैसे घोलें
कर्मों की तंग कसी
लगाम को खींच रहे
पैनी अभिव्यक्ति के लिए
			
		  			
			सब सम्मोहन
तोड़ दिए
भाषा की मुक्ति के लिए
भाषण, प्रवचन के महलों में
हम रह सके नहीं
वे मठ, झण्डे और शिविर
हम को छल सके नहीं
जूझते रहे हम
अनुभूति और शब्दों से
दोनों की सन्धि के लिए
किस भाषा में गूँगे शब्दों के
आशय खोलें
अमृत-सत्य को
रुग्ण-शिराओं में
कैसे घोलें
कर्मों की तंग कसी
लगाम को खींच रहे
पैनी अभिव्यक्ति के लिए
						
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