कविता संग्रह >> धार पर हम (दो) धार पर हम (दो)वीरेन्द्र आस्तिक
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यह दस्तावेजी कृति विवादास्पद हो सकती है, प्रतिरोधात्मक भी हो सकती है, पर किसी भी कीमत पर केवल अलमारी की शोभा नहीं बन सकती
‘धार पर हम’ की श्रृंखला का अगला कदम है - ‘धार पर हम (दो)’। दस वर्षों के बाद मैं पुनः गीत की अदालत में हाजिर हुआ हूँ। विगत वर्षों में गीत की अस्मिता का संकट जैसे वाक्य एक मुहावरे की तरह प्रयोग में लाए जाते रहे हैं और धुंध में गीत अपने ताप से कुछ ज्यादा ही तपता रहा है। निश्चित रूप से एक समय ऐसा रहा था जब गीत की अस्मिता पर संकट था, वैसा संकट का अंधकार साहित्य-पटल पर मुझे आज दिख नहीं रहा है। आज गीत पर लगाई गई न तो वे तोहमतें हैं और न वे फतवे। गीत की सुगबुगाहट आलोचना के क्षेत्र में भी बढ़ती जा रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो गीत की ताकत का, उसकी पोटेंसी का अधिकाधिक समाजीकरण हुआ है। पत्रिकाओं में गीत को स्थान मिलने लगा है, लेकिन गीत का संकट अभी टला नहीं है। आज भी शैक्षिक जगत में गीत के स्वीकार का संकट है। आज भी वहां कविता के बरक्स गीत की मान्यता दोयम दर्जे की है, अर्थात् हमें एक बार फिर यात्रा में पड़ाव, पद-चिन्हों को परखना होगा। गीत अभी भी विमर्श की हद से बाहर नहीं हुआ है।
चलो, बंजर भूमि में
चलो
बंजर भूमि में
कुछ बूंद जल हम भी चढ़ायें
वह नदी जो आंख में उमड़ी
उसे जिंदा रखें हम
नेह का है एक अमृतफल
चलो उसको चखें हम
आग जो जलती यहाँ
हर गाँव-टोले
चलो, उसको कुछ बुझायें
कथा पुरखों से सुनी
यह काम आयेगी हमारे
कहीं बरखा हुई है
आओ, उसे हम लायें द्वारे
और बच्चों को नदी की सांझ-बेला
आरती की धुन सुनायें
उर्वरा यह भूमि
जल से होएगी जिंदा दुबारा
बीज-अक्षर सुनें
जो था कभी ब्रह्मा ने उचारा
हिमशिखर पर
उसी बरखा-मंत्र से हैं
गूँजती सारी गुफाएं।
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