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कविता संग्रह >> चौकड़िया सागर

चौकड़िया सागर

प्रेमनारायण पाठक अरुण

प्रकाशक : हैप्पी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8782
आईएसबीएन :00000000

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यों तो बुन्देली जनमानस चौकड़ियों में रचा-बसा रहता है, हर व्यक्ति को सौ-पचास चौकड़ियां तो कण्ठस्थ होती ही हैं....

Ek Break Ke Baad

चौकड़िया लेखन की परम्परा कविवर ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्यालीराम से प्रारंभ होकर ऐसी फली-फूली कि गाँव-गाँव, नगर-नगर इस जनप्रिय काव्य-विधा में अच्छे रचनाकारों के फड़ जमने लगे, सम्पूर्ण रात्रि भर जलने वाले राई फाग, गायन, वादन, नृत्य के समारोहों की बाढ़ सी आ गई।

कवि अरुण जी के चौकड़िया-सागर में जन-जन के मन को मोह लेने नाला मोहनियाँ मन्त्र व्याप्त है, मोहने की क्षमता है। देवी-देवताओं के विभिन्न स्वरूपों का सादर स्मरण करते हुए इसमें श्रृंगार, वीर, करुणा आदि रसों की सफल अभिव्यक्तियाँ हैं, विषय-विस्तार है, कल्पना-कौशल है, यदि अतीत की भरपूरता है तो यथार्थ भरा वर्तमान भी है। पुन्देली की रसमाधुरी है, उसकी लचकदार व ठसकदार चाल भी है।

गणपति लम्बोदर मनभावन - धूम्रवर्ण अति पावन।
भालचन्द्र व वक्रतुण्ड शुभ - कृष्ण पिंगाक्ष गजानन।
एकदन्त गजवक्त्र विनायक - विघ्न राजेन्द्र सुहावन।
अरुण नाम द्वादश फलदायी - विकटमेव सरसावन

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मैया शैलसुता कल्याणी - ब्रह्मचारिणी ध्यानी।
चन्द्रघण्टा कूष्माण्डा - माँ स्कन्द भवानी।
कात्यायिनी कालरात्रि है - महागौरि वरदानी।
अरुण जगत में हैं नवदुर्गा - सिद्धिदात्री महारानी।

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तुम हौ सज्जन ज्ञानी ध्यानी - मैं मूरख अज्ञानी।
पिंगल काव्य कछू ना जानो - कविता कर ना जानी।
जो कछु लिखो काव्य में हमने - सुन संतन की बानी।
अरुण शरण में मरण होत ना - ऐसी वेद बखानी।

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