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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सुखी बनो

सुखी बनो

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 874
आईएसबीएन :81-293-0545-3

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प्रस्तुत है सुखी बनने के लिए लिखे गये पत्र...

Sukhi Bano a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - सुखी बनो - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय निवेदन

‘सुखी  बनो’-पुस्तक परमेश्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दोर के कुछ पत्रों का संग्रह है। इनमें से कुछ पत्र ‘काम के पत्र’ शीर्षक से समय-समयपर ‘कल्याण’ में प्रकाशित हुए है; कुछ उनके व्यक्तिगत पत्र भी जो अबतक कहीं प्रकाशित नहीं हुए थे, इसमें सम्मिलित कर लिये गये हैं।
 
(श्रीभाईजीका जीवन वैविध्यपूर्ण था। वे आदर्श पिता थे, आदर्श पुत्र थे, आदर्श पति थे, आदर्श मित्र थे, आदर्श बन्धु थे, आदर्श सेवक थे, आदर्श स्वामी थे, आदर्श आत्मीय थे, आदर्श स्नेही थे, आदर्श सुहृद् थे, आदर्श शिष्य थे, आदर्श गुरु थे, आदर्श लेखक थे, आदर्श सम्पादक थे, आदर्श साधक थे, आदर्श सिद्ध थे, आदर्श प्रेमी थे, आदर्श कर्मयोगी थे, आदर्श ज्ञानी थे। इस प्रकार उन्हें लौकिक एवं पारलौकिक सभी विषयों का सम्यक्- रूप से ज्ञान था, अनुभव था और यही हेतु है कि वे व्यवहार और परमार्थ की जटिल-से-जटिल समस्याओंका समाधान बड़े ही सुन्दर और मान्यरूप में कर पाते थे।

व्यक्तिके जीवन का प्रभाव सर्वोपरि होता है और वह अमोद्य होता है। श्रीभाईजी अध्यात्म-साधना की उस परमोच्च स्थिति में पहुँच गये थे, जहाँ पहुँचे हुए व्यक्ति के जीवन, अस्तित्व, उनके श्वास-प्रश्वास, उनके दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषण-यहाँ तक कि उनके शरीर से स्पर्श की हुई वायु से जगत् का, परमार्थ के पथपर बढ़ते हुए जिज्ञासुओं एवं साधकों का मंगल होता है।
हमारा विश्वास है कि जो व्यक्ति इन पत्रोंको मनपूर्वक पढ़ेंगे, इनमें कही हुई बातों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे, उनको निश्चय ही इस जीवन में तथा जीवन के उस पार, वास्तविक सुख और शान्ति की उपलब्धि होगी।


सुखी बनो



सबमें एक ईश्वर या आत्माको देखने पर ही दुःखनाश
प्रिय महोदय ! सादर हरिस्मरण । कृपापत्र मिला। आपने लिखा सो ठीक है । पर वास्तव में सारे दुःख तथा बन्धनों का कारण है- शरीर और नाममें ‘अहंता’ तथा प्राणिपदार्थों में ‘ममता’। शरीर तथा नाम दोनों ही ‘मैं’ नहीं हैं, पर इनमें मिथ्या ‘मैं’ पर इतना  गाढ़ा हो गया है कि उसको लेकर यह मेरा देश, यह मेरी जाति, यह मेरा मजहब, यह मेरा मत, यह मेरी पार्टी, यह मेरा घर यह मेरा धन यह मेरा अधिकार आदि के रूप में इतने मिथ्या ममता के बंधन हो गये हैं और उनमें इतना अधिक ‘राग’ हो गया है कि रात-रात उन्हीं की चिन्ता में ग्रस्त रहना पड़ता है। इस मिथ्या महत्त्वको लेकर हमारा ‘स्व’ स्वाभाविक ही संकुचित होते-होते केवल एक व्यक्ति में शरीर तथा नाममें आकर केंद्रित हो जाता है। यही कारण है कि आज हम जीव-जगत्, विश्व, देश और जनता के हितको ही नहीं, अपने परिवार के अन्यान्य सदस्यों के हितको भी भूलकर केवल व्यक्तिगत- अपने शरीर’ तथा नाम’ का ही हित-साधन करने में लगे हैं।

 यह निश्चित है कि जितना ही ‘स्व’ सीमित होगा, उतना ही ‘स्वार्थ’ निम्न स्तर का होगा। सीमित ‘स्व’ वाला  व्यक्ति दूसरों का हित न देखकर ही नहीं उनका अहित करके भी अपना हित-साधन करना चाहेगा। और यों अब सभी लोग या अधिकांश लोग दूसरों का अहित करके अपने हित में लगेंगे। तब किसी का भी हित न होकर सभी का अहित होगा; कलह, संघर्ष, उपद्रव, क्रोध, वैर, हिंसा स्वाभाविक कार्य हो जायँगे। आज सर्वत्र यही हो रहा है। इसीसे आज देश-देश में, धर्म-धर्म में, प्रान्त-प्रान्त में, जाति-जाति में, पार्टी-पार्टी में, पड़ोसी-पड़ोसी में, घर-घरमें और व्यक्ति-व्यक्ति में लड़ाई है तथा मानवता मरी जा रही है। यह पाप उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। पापका फल अशान्ति तथा दुःख तो निश्चित होगा ही। अतएव इससे यदि बचना है तो उसका एक ही उपाय है- ‘स्व’ को अत्यन्त विस्तृत कर देना। एक ही आत्मा को सबमें तथा सबको एक ही आत्मा में देखना-


‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।’


(गीता 6 । 29)


यह होनेपर सहज ही सबके हितमें अपना हित और सबके अहित में अपना अहित दिखायी देगा। वर्ग, वर्ण, कार्य अलग-अलग रहेंगे। जिस प्रकार एक ही शरीर में सिर, पैर, आँख, कान आदि अंगों के विभिन्न नाम-रूप हैं तथा सबके कार्य अलग-अलग हैं। पर सभी एक ही शरीर के विभिन्न अंग हैं- सभी ‘मैं हूँ’ ऐसी हमारी धारणा है, इसलिये सभी अंग सहज ही अंगों की पुष्टि तथा सहायता करते हैं। सबके हितमें ही सब अपना हित समझते हैं, कोई किसी को दुःख पहुँचना या किसी का अहित करना नहीं चाहता, वरन सभी सबको दुःख से बचाते रहते हैं। इसी प्रकार जब यह निश्चय हो जायगा कि एक ही भगवान् या एक ही आत्मा सबमें है और सब उसी में है तो स्वाभाविक ही सबके द्वारा सबका हित होगा। फिर द्वेष, क्रोध, कलह, वैर, हिंसा का कहीं स्थान ही नहीं रह जायगा। सब सबका स्वाभाविक ही सुख-हित –साधन करेंगे।

‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।’
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‘अब हौं कासों बैर करौं।
कहत पुकारत प्रभु निज मुख सों घट-घट हौं बिहरों।।’
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‘सबमें मैं ही रम रहा, सब ही मेरे अंग।
सब ही ‘मैं’ फिर, कौन-सा करूँ अंग मैं भंग ?।।
किसी अंग पर लगेगी चोट बड़ी या अल्प।
निश्चय ही वह लगेगी मुझको बिना बिकल्प।।
तब फिर कैसे करूँ मैं किस परका अपकार ?
कैसे किसको दुःख दूँ, कैसे करूँ प्रहार ?।।
नाम-रूप हैं देहके कल्पित असत् विभिन्न।
सबमें अन्तर्निहित हैं ईश्वर एक अभिन्न।।’
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इस परम सत्य को भूलकर ही आज हम सब परस्पर एक-दूसरे की मानस-शारीरिक हिंसा करते हुए वास्तव में अपनी ही हिंसा कर रहे हैं। स्वार्थ-साधनके भ्रम में अपने ही स्वार्थ का नाश कर रहे हैं। भगवान् हम सबको सदबुद्धि दें। शेष भगवत्कृपा।


प्रकृति की लीला के द्रष्टा बनिये



प्रिय महोदय ! सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। उत्तर में निवेदन है कि आत्मा-पुरुष सुख-दुःख, जन्म-मरणादि द्वन्द्वों से रहित नित्य शुद्ध-बुद्ध है। परंतु ‘प्रकृतिस्थ’ होने के कारण प्रकृति में होनेवाले परिवर्तन और विकार पुरुष में दिखायी देते हैं। और भी वह भी ऐसा ही अनुभव करके सुख-दुःख भोगता तथा जन्म-मरण एवं अच्छी-बुरी योनियों के चक्रमें पड़ा रहता है-


पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान्।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।


(गीता 13 । 21)


‘प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही उसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है।’
प्रकृति की चञ्चलतामयी लीलामें जब पुरुष स्वयं जाकर मिल जाता है। तभी यह सब होता है। इससे छूटनेका उपाय है- वह ‘स्व-स्थ’ (आत्मस्थ) होकर प्रकृतिकी लीलाका द्रष्टा बन जाय और प्रकृति के समस्त कार्यों को दृश्य बनाकर देखने लगे। जहाँ कर्ता-भोक्ता न रहकर द्रष्टा बना कि चटुला प्रकृति-नटीका ताण्डव नृत्य अपने-आप बंद हो जायगा। द्रष्टा के आसनपर विराजमान आत्मस्थ अप्रलुब्ध भावसे देखने वाले पुरुष के सामने प्रकृति दृश्य बनकर लीला नहीं कर सकती; उसकी लीला बंद हो जाती है।
फिर प्रकृतिके द्वन्द्वों का द्रष्टा पुरुषपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता,

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