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गीतांजलि

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8725
आईएसबीएन :9788170287698

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गीतांजलि

Geetanjali (Ravindranath Tagore)

विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी मातृभाषा बंगला में अनगिनत गीत लिखे थे। उनका संग्रह ‘नैवेद्य’, ‘गीतांजलि’ आदि पुस्तकों में किया गया था। बाद में श्री एण्ड्रूज़ की प्रेरणा से कवि ने स्वयं 203 गीतों का संकलन किया और उनका अंग्रेजी भाषा में रूपान्तर करके नोबेल प्राइज़ कमेटी को भेज दिया। अंग्रेजी की ‘गीतांजलि’ उन्हीं 203 गीतों का संग्रह है। इसी संग्रह पर कवि को ‘नोबेल प्राइज़’ मिला। इस पुरस्कार के बाद ही विश्व को रवीन्द्र का परिचय मिला। उनके गीतों ने मानव समाज को मोह लिया। रवीन्द्र केवल भारत के कवि न होकर विश्ववन्द्य हो गये।

विश्वकवि की रचनाओं का अनुवाद संसार की प्रायः सभी भाषाओं में हो चुका है। उनका प्रचलन भी कल्पनातीत हुआ। अंग्रेजी की गीतांजलि का प्रथम संस्करण 1912 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद उसके दर्जनों संस्करण निकल चुके हैं। यह लेकप्रियता कम होने के स्थान पर प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

मैंने प्रस्तुत पुस्तक में रवीन्द्रनाथ की मौलिक गीतांजलि के सब गीतों का समावेश करके साथ-साथ उन गीतों का भी समावेश कर लिया है जिनका चुनाव रवीन्द्र ने अंग्रेजी की गीतांजलि के लिए दो गीत-संग्रहों – खेया और नैवेद्य – से किया था। जहाँ तक मुझे मालूम है रवीन्द्र की मूल गीतांजलि का हिंदी रूपान्तर अभी तक नहीं हुआ है। अतएव इस दिशा में इस पुस्तक को प्रथम प्रयास कहा जा सकता है।

रवीन्द्र के गीत अन्य संसारी कवियों के गीतों की तरह हदय की निर्बलताओं का रंगीन चित्रण नहीं हैं; उनमें विरह, विषाद, विक्षेपग्रस्त मन का क्रन्दन नहीं है; बल्कि उनमें अलौकिक आशा, आह्लाद और आलोक की अमित आभा है। वे गीत मनुष्य की आत्मा को आवेशों की लहरों में डूबने के लिए संसार की भंवरों में नहीं छोड़ देते बल्कि उसे उन लहरों से पार उतरने की शक्ति देते हैं।

रवीन्द्र के 203 में से 50 के लगभग ऐसे हैं जिनमें विश्वात्मा से वियुक्त आत्मा की अपने पुरातन विराट् रूप से एकाकार होने की उत्कट आकांक्षा है। रवीन्द्र कहते हैं :

‘प्रभु ! अपने गीतों के पंखों से ही मैं तेरे चरणों का स्पर्श कर पाता हूँ।... प्रभु ! ऐसा वरदान दे कि एक ही प्रणाम में मेरी सारी देह तेरे चरणों का स्पर्श कर ले !...मानसरोवर की ओर जाने वाले हंस जिस तरह दिन-रात बिना रुके एक ही उड़ान में उड़ जाते हैं, उसी तरह महामृत्यु के पथ पर मेरे प्राण एक ही नमस्कार में उड़ चलें !’

 

वन्दना

(आमार माथा नत करे दाओ)

मेरा माथा अपनी चरण-धूलि कर झुका दे !
प्रभु ! मेरे समस्त अहंकार को आंखों के पानी में डुबा दे !

अपने झूठे महत्त्व की रक्षा करते हुए मैं केवल अपनी लघुता दिखाता हूँ।
अपनी ही परिक्रमा करते-करते मैं प्रतिक्षण क्षीण-जर्जर होता जाता हूँ !

मेरे समस्त अहंकार को आंखों के पानी में डुबा दे !

मैं अपने सांसारिक कार्यों में अपने को व्यक्त नहीं कर पाता !
प्रभु ! मेरे जीवन-कार्यों में तू अपनी ही इच्छा पूरी कर।

मैं तुझसे चरम शान्ति की भिक्षा मांगने आया हूं।
मेरे जीवन में अपनी उज्जवल कांति भर दे !
मेरे हृदय-कमल की ओट में तू खड़ा रह !
प्रभु ! मेरे समस्त अहंकार को आंखों के पानी में डुबा दे !


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