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उपन्यास >> मन माटी

मन माटी

असगर वजाहत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8724
आईएसबीएन :9788126719822

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उपन्यास में तटस्थ तरीके से बंटवारे की जमीन पर अपनी पहचान तलाशते पात्रों की गाथा है।

Man-Maati (Asgar Wazahat)

पते की बात सीधी-सच्ची होती है। उसे बताने के लिए न तो चतुराई की जरूरत पड़ती है और न सौ तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सीधी-सच्ची बात दिल को लगती है और अपना असर करती है। मैं यहां इन पन्नों में आपके सामने कुछ सच्ची बातें रखने जा रहा हूं। ये बातें गढ़ी हुई नहीं हैं आपकी और हमारी दुनिया में ऐसा हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। कुछ आपबीती है और कुछ जगबीती है।

एक वक्त की बात है। कलकत्ता के पार्क स्ट्रीट इलाके में एक पादरी सफेद लंबा कोट पहने, टोपी लगाये, हाथ में पाक खिताब लिये जोशीली आवाज में कुछ कह रहा था। लोग उसे घेरे खड़े थे। सुन रहे थे।

अकरम को कलकत्ता आये तीन-चार दिन ही हुए थे। उसके बड़े भाई मिस्टर जैक्सन के अर्दली थे। अकरम की उम्र सोलह-सत्तरह साल थी। वह अपने पुश्तैनी गांव अरौली से आया था और आने का मकसद यह था कि बड़े भाई ने उसकी नौकरी लगवा देने का पक्का परोसा दिलाया था।

दो दिन से पड़ा सो रहा है, उठाओ उसे। अकरम जब से आया है सो रहा है। खाना-वाना खाता है, फिर सो जाता है।

उठ अकरम...उठ। अकरम की भाभी ने उसे झिंझोड़ दिया। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके बड़े भाई असलम की कड़ी और खरखराती आवाज आई, क्यों? सोने आया है यहां...चल उठ जाके बाजार से दही ले आ, तो तेरी भाभी खाना पका ले।

अकरम हाथ में पतीली लेकर बाहर आया, गली से निकलकर सड़क पर आ गया। यहां से उसे उल्टे हाथ जाना था लेकिन सामने भीड़ लगी थी। पादरी का चेहरा धूप में लाल हो रहा था। अकरम ने इससे पहले कभी कोई गोरा नहीं देखा था। वह डर गया, लेकिन फिर भीड़ में पीछे छिपकर तमाशा देखने लगा। गोरे पादरी का चोगा पसीने से भीग गया था। उसकी घनेरी दाढ़ी हवा में लहरा रही थी। सीने पर पड़ा हार इधर-उधर झूल रहा था। अकरम उसे एकटक देखने लगा। उसकी बड़ी-बड़ी नीली आंखें इधर-उधर घूम रहीं थीं। वह जहन्नुम में दी जानेवाली तकलीफों के बारे में बात कर रहा था। उसकी आंखें और खौफनाक हो गईं थी। वह तेजी से घूम-घूमकर चारों तरफ जमा लोगों से कह रहा था, सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा? पादरी की आवाज में कड़क थी, गरज थी, ईमानदारी थी, लालच था। वह सबको घूरकर देख रहा था।

अचानक पादरी की आंखें अकरम की आंखों से टकराईं। पादरी ने गरजकर फिर अपना सवाल दोहराया, सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा?

अकरम को लगा कलेजा उसके मुंह से आकर लग गया है। उसका गला सूखने लगा। जबान पर लगा कांटे उग गये हैं। वह टकटकी लगाये पादरी को देख रहा था। पादरी बार-बार अपना सवाल दोहरा रहा था। हर बार सवाल के बाद अकरम की हालत खराब हो जाती थी। ऊपर आसमान में सूरज चिलचिला रहा था। भीड़ में कुछ अजीब आवाज उठ रही थी। अकरम को लगा उसे अपने ऊपर काबू ही नहीं है।

वह बोल उठा, मैं।

अकरम के चेहरे पर एक अजीब तरह का भाव था। वह गर्मी से झुलस रहा था। आंखें फटी जा रही थीं। पूरे मजमे ने अकरम की तरफ देखा। पादरी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वह आगे बढ़ा और अकरम के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, फिर धीरे-धीरे अकरम का हाथ पादरी के हाथ में चला गया।

अकरम के भाई ने उसे कलकत्ता की हर गली में खोजा, आसपास के गांवों में गया। पुलिस दारोगा से पूछा। अस्पताल, मुर्दाघर, कब्रिस्तान हर जगह जाकर पता लगाया, लेकिन अकरम का कहीं पता नहीं चला। थक-हारकर घर चिट्ठी लिख दी। घर यानी यू.पी. के मेरठ जिले की सरधना तहसील के अरौली गांव। अकरम के बूढ़े बाप और मां को यह खबर मिली तो मां ने रो-रो के जान दे दी। छोटे भाई हैरत में पड़े रहे। बाप ने तौबा कर ली कि अब किसी औलाद को कलकत्ता नहीं भेजेंगे।

अरौली गांव में सब-कुछ वैसे ही होता रहा-जैसा होता आया था। अकरम के लापता हो जाने की बात सब भूलते चले गये।

पाठकों, समय बीतता गया और बीतता गया। दस लाख नौ हजार पांच सौ बार सूरज निकला और डूबा। खेतों में गेहूं लहलहाया और कुंदन की तरह लाल हुआ। नदी में नीला पानी बहता रहा, हवा चलती रही, पत्ते हिलते रहे। मौसम पर मौसम बदलते रहे। बदलते समय के साथ चेहरे भी बदलते रहे। अकरम के वालिद गुजर गये। कलकत्ता में असलम का इंतकाल हो गया। अकरम के छोटे भाई वहीद हैजे से मरे। उनके दोनों बेटों, तक्कू और आबिद ने हल-बैल संभाल लिया।

चैत का महीना है, गेहूं कट चुका है, लगता है पृथ्वी का मुंडन कर दिया गया है। इधर-उधर आम के बागों में कोयलें कूकती फिर रही हैं। आवारा लौंडों के गिरोह सीकल बटोरने की ताक में इधर-उधर घूम रहे हैं। घने पेड़ों के नीचे बुजुर्ग चारपाइयों पर आराम कर रहे हैं। खलिहानों में मढ़ाई चल रही है।


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