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उन्मादिनी

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8664
आईएसबीएन :0

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उन्मादिनी पुस्तक का आई पैड संस्करण

Unmadini - A Hindi EBook By Subhadra Kumari Chauhan

आई पैड संस्करण


लोग मुझे उन्मादिनी कहते हैं। क्यों कहते हैं, यह तो कहने वाले ही जानें, किन्तु मैंने आज तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिसमें उन्माद के लक्षण हों। मैं अपने सभी काम नियम-पूर्वक करती हूँ। क्या एक भी दिन मैं उस समाधि पर फूल चढ़ाना भूली हूँ? क्या ऐसी कोई भी संध्या गयी है जब मैंने वहाँ दीपक नहीं जलाया है? कौन सा ऐसा सबेरा हुआ है जब ओस से धुली हुई नयी-नयी कलियों से मैंने उस समाधि को नहीं ढँक दिया? फिर भी मैं उन्मादिनी हूँ! यदि अपने किसी आत्मीय के सच्चे और निःस्वार्थ प्रेम को समझने और उसके मूल्य करने को ही उन्माद कहते हैं, तो ईश्वर ऐसा उन्माद सभी को दे। क्या कहा–वह मेरा कौन था? यह तो मैं भी नहीं कह सकती, पर कोई था अवश्य, और ऐसा था, मेरे इतने निकट था कि आज वह समाधि में सोया है और मैं बावली की तरह उसके आस-पास फेरी देती हूँ। उसकी और मेरी कहानी भिन्न-भिन्न तो नहीं है। जो कुछ है यही है। सुनो– बचपन से ही मुझे कहानी सुनने का शौक था। मैं बहुत–सी कहानियाँ सुना करती और मुझे उनका वह भाग बहुत ही प्रिय लगता, जहाँ किसी युवक की वीरता का वर्णन होता। मैंने वीरता की परिभाषा अपनी अलग ही बना ली थी। यदि कोई युवक किसी शेर को भी मार डाले, तो मुझे वह वीर न मालूम होता, मेरा हृदय सुनकर उछलने न लगता। किन्तु यदि किसी युवती को बचाने के लिए वह किसी कुत्ते की टाँग ही क्यों न तोड़ दे तो मुझे बड़ा बहादुर मालूम होता, मेरा हृदय प्रसन्नत्रा से उछलने लगता। पहिले उदाहरण में स्वार्थ था, क्रूरता थी, और थी नीरसता। उसके विपरीत दूसरे उदाहरण में एक तरफ थी भयत्रस्त हरिणी की तरह दो आँखें और हृदय से उठने वाली अमोघ प्रार्थना और दूसरी ओर थी रक्षा करने की स्फूर्ति, वीर प्रमाणित होने की पवित्र आकांक्षा, और विजय की लालसा। इन सबके ऊपर स्नेह का मधुर आवरण था जो इस चित्र को और भी सुन्दर बना रहा था। कहानी-प्रेम ने मेरे हृदय को एक काल्पनिक कहानी की नायिका बनने की आतुरता में उड़ना सिखला दिया था।
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