आलोचना >> साथ साथ साथ साथनामवर सिंह
|
2 पाठकों को प्रिय 16 पाठक हैं |
नामवर सिंह के परिसंवादों का संकलन
Sath Sath (Namvar Singh)
‘साथ साथ’ मुख्यतः परिसंवादों का संकलन है। इन परिसंवादों में नामवर सिंह एक पक्ष के रूप में शामिल हुए हैं। परिसंवाद उपनिषदों और संगीतियों की परम्परा का ही आधुनिक रूप है। संवाद का सर्वाधिक लोकतान्त्रिक रूप। इसमें वक्ता को वार्ताकारों के अन्य पक्षों के साथ अपनी बात कहनी होती है। यह एक तरह ही बहुपक्षी जुगलबन्दी है।
पुस्तक में चार परिचर्चाएँ हैं। इनसे गुज़रते हुए हम सहज ही देख पाते हैं कि आलोचक के रूप में नामवर सिंह ‘संवाद’ को कितना महत्व देते हैं। साथी वार्ताकारों के व्यक्तित्व और विचारों को पूरी विनम्रता के साथ सुनना, उनकी उपस्थिति को स्वीकारना और उनके विचारों को ‘लोकतान्त्रिक’ जगह के भीतर ही तर्क-वितर्क की परिधि में लाना-उनके संवादी व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। सभी संवादों को एक साथ देखने पर हम पाते हैं किसी एक विषय से बँधे नहीं हैं। बातचीत का समय भी दूर तक फैला हुआ है। इस अर्थ में यह पुस्तक एक राग-माला की तरह है। हिन्दी आलोचना के अनेक पक्षों के बीच नामवर जी की पक्षधरताएँ यहाँ स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई हैं।
पुस्तक में विशेष महत्व दो साक्षात्कार सम्मिलित हैं। पहला साक्षात्कार रामविलास शर्मा से लिया गया है। रामविलास शर्मा ने दूसरी बातचीत एक परिचर्चा है। पहली बातचीत के क्रम में इसे पढ़ने पर अनेक ऐतिहासिक बहसों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की वैचारिक स्थिति स्पष्ट होती है। इस बातचीत से वामपंथी बुद्धीजीवियों के बीच मौजूद स्वस्थ लोकतान्त्रिकता और ईमानदार बहस-धर्मिता सामने आती है। स्पष्ट होता है कि हमारे समय में क्षीण हो रहे इस निर्भय आलोचनात्मक विवेक के बगैर वामपंथी विचार परम्परा का विकास नहीं हो सकता है।
पुस्तक में चार परिचर्चाएँ हैं। इनसे गुज़रते हुए हम सहज ही देख पाते हैं कि आलोचक के रूप में नामवर सिंह ‘संवाद’ को कितना महत्व देते हैं। साथी वार्ताकारों के व्यक्तित्व और विचारों को पूरी विनम्रता के साथ सुनना, उनकी उपस्थिति को स्वीकारना और उनके विचारों को ‘लोकतान्त्रिक’ जगह के भीतर ही तर्क-वितर्क की परिधि में लाना-उनके संवादी व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। सभी संवादों को एक साथ देखने पर हम पाते हैं किसी एक विषय से बँधे नहीं हैं। बातचीत का समय भी दूर तक फैला हुआ है। इस अर्थ में यह पुस्तक एक राग-माला की तरह है। हिन्दी आलोचना के अनेक पक्षों के बीच नामवर जी की पक्षधरताएँ यहाँ स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई हैं।
पुस्तक में विशेष महत्व दो साक्षात्कार सम्मिलित हैं। पहला साक्षात्कार रामविलास शर्मा से लिया गया है। रामविलास शर्मा ने दूसरी बातचीत एक परिचर्चा है। पहली बातचीत के क्रम में इसे पढ़ने पर अनेक ऐतिहासिक बहसों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की वैचारिक स्थिति स्पष्ट होती है। इस बातचीत से वामपंथी बुद्धीजीवियों के बीच मौजूद स्वस्थ लोकतान्त्रिकता और ईमानदार बहस-धर्मिता सामने आती है। स्पष्ट होता है कि हमारे समय में क्षीण हो रहे इस निर्भय आलोचनात्मक विवेक के बगैर वामपंथी विचार परम्परा का विकास नहीं हो सकता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book