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मेरे पापा की शादी

आबिद सुरती

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8583
आईएसबीएन :81-7016-663-2

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व्यंग्य उपन्यास ‘मेरे पापा की शादी’ का केवल एक ही मकसद है, आपके होठों पर मुस्कराहट की लकीर खींचना।

Mere Papa ki Shadi (Abid Surti)

बुद्ध ने कहा है – जन्म दुःख है। मृत्यु दुःख है। इन दो अंतिमों के बीच भी दुःख ही दुःख है। तब क्यों न थोड़ा हँस लिया जाए ?
व्यंग्य उपन्यास ‘मेरे पापा की शादी’ का केवल एक ही मकसद है, आपके होठों पर मुस्कराहट की लकीर खींचना।

इस दौर में हँसी कितनी दुर्लभ है, इसकी एक मिसाल दूँगा। एक आदमी डॉक्टर से मिला और बताया कि जीवन में वह कभी भी हँसा नहीं है। यदि कोई उसे खिलखिलाकर हँसा दे तो वह अपनी सारी दौलत देने को तैयार है।

डॉक्टर ने मुस्कराकर कहा, ‘यह तो बड़ा आसान है। तुम जानते होगे, हमारे गाँव में एक सर्कस आया है। सुना है, उस सर्कस का विदूषक ऐसे-ऐसे खेल दिखाता है कि लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं।’

उस आदमी ने बताया, ‘वह विदूषक मैं ही हूँ।’ डॉक्टर सोच में पड़ गया। उसके पास दूसरा कोई इलाज नहीं था, क्योंकि तब यह पुस्तक नहीं छपी थी।

आबिद सुरती


सेठ फोकटलाल मारे ख़ुशी के पगलाकर झूम रहे थे। ऐसा सुखद अनुभव आज से पहले कभी महसूस नहीं किया था। इसकी शुरुआत बाथरूम के नल से हुई थी। नल शायद अधखुला रह गया होगा। टपाक-टपाक उसमें से पानी टपक रहा था।

नल बंद करने के लिए वह बाथरूम में गए, तो उनकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। नल में से टपाक-टपाक पानी की बूँदें नहीं, खननन-खननन सिक्के टपक रहे थे। संगमरमर के फ़र्श पर सिक्के गिरते और लुढ़कते चले जाते।

उन्हें भरोसा नहीं हुआ। यह कैसे मुमकिन है ? नल में से पानी के बजाए सिक्के टपकें ? इस बात की तसल्ली करने के लिए उन्होंने नल के नीचे हाथ धरा। टपाक से एक सिक्का उनकी हथेली पर आ गिरा और उन्हें एक विचार आया। पैसों से स्नान करने का उन्होंने तय कर लिया। नया तौलिया लेने के लिए वह बाथरूम से निकलकर बेडरूम में आए और आलमारी खोली।

यह क्या...?
जैसे बाढ़ आई हो, ऐसे आलमारी में से उन पर प्रचंड वेग से नोट गिरे। वह दो क़दम पीछे हट गए। नोट सौ-सौ और पाँच-पाँच सौ के थे। उनके पाँवों में बिखरे पड़े थे। उन्हें लगा, वह पागल हो जाएँगे।

वह खिड़की के पास आए और उनका दिल हिचकोले खाने लगा। बाहर नोटों की बारिश हो रही थी। आकाश फटा हुआ था। मूसलाधार नोट बरस रहे थे। वह फटी आँखों से देखते रह गए।

‘‘अब तो खटिया छोड़ो !’’
शब्द उनके कानों से टकराए, मगर उन्होंने आँखें नहीं खोलीं, ‘‘उठिए न, पापा !’’ उनकी बेटी उन्हें झँझोड़कर जगा रही थी, ‘‘पूजा का समय निकला जा रहा है।’’
हड़बड़ाकर वह खड़े हो गए। पल-भर के लिए अपनी जवान बेटी को देखते रहे, फिर मुँह बिचकाकर बोले, ‘‘तेरी माँ ने तेरा नाम लक्ष्मी रखा, लेकिन तेरे क़दम पड़ने पर सपने में से भी लक्ष्मी ग़ायब हो जाती है।’’

‘‘ओह, तो आप सपना देख रहे थे।’’
‘‘मैं तो उठते-बैठते, सोते-जागते, सुबह-शाम, दिन-रात सपने ही देखता हूँ। आहाहा-हा...कितना बेशक़ीमती सपना था ! कम से कम एक करोड़ रुपयों का होगा और तुमने आकर उसका सर्वनाश कर डाला। सवेरे-सवेरे मुझे एक करोड़ का घाटा हो गया।’’

‘‘लेकिन वह सपना था, पापा !’’

आबिद सुरती का जीवन परिचय


जन्म : 1935, राजुला (गुजरात)।
शिक्षा : एस.एस.सी., जी.डी. आर्टस् (ललित कला), मुंबई।
संक्षिप्त जानकारी : चित्रकार, कथाकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, नाट्यकार, निर्देशक। अब तक सोलह चित्र प्रदर्शनियाँ भारत तथा विदेशों में आयोजित। प्रयोगशील शैली ‘मिरर कोलाज’ के लिए चर्चित। भारत सरकार के फ़िल्म-प्रभाग ने ‘आबिद’ शीर्षक रंगीन लघु फ़िल्म कला-प्रयोगों पर बनाई (1971), जिसके निर्देशक प्रमोद पती थे। कहानी-संकलन ‘तीसरी आँख’ को राष्ट्रीय पुरस्कार (1993)। पिछले 45 साल से गुजराती तथा हिंदी की विभिन्न पत्रिकाओं और अख़बारों में लेखन। उपन्यासों के अनुवाद कन्नड़, मराठी, मलयालम, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेज़ी में हो चुके हैं।
साहित्य : अब तक 80 पुस्तकें प्रकाशित – पचास उपन्यास, दस कहानी-संकलन, सात नाटक, दस बच्चों की पुस्तकें, एक यात्रा-वृत्तांत, एक ग़ज़ल-संकलन, एक संस्मरण तथा ढेर सारे कॉमिक्स।
टी. वी. : डी. डी., जी. तथा अन्य चैनलों के लिए कथा, पटकथा, संवाद लेखन।
फिल्म : ‘नक़ाब’ (राज खोसला फ़िल्म), ‘सोलह सतरह’ (राजकिरन फ़िल्म) ‘आज का मसीहा’ (ट्रायड फ़िल्म)।
लेखन-निर्देशन : ‘राधे राधे हम सब आधे’ (त्रिअंकीय कॉमेडी नाटक)। पचास से अधिक प्रयोग मुंबई में हुए।
लेखन-चित्रांकन : ‘ढब्बूजी’ व्यंग्य चित्रकथा तीस साल तक निरंतर साप्ताहिक धर्मयुग में प्रकाशित। ‘बहादुर’, ‘शूजा’, ‘इंस. आज़ाद’, ‘इंस. विक्रम’ आदि कॉमिक्स के भारतीय पात्रों का निर्माण।


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