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गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रमुख ऋषि मुनि

प्रमुख ऋषि मुनि

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 847
आईएसबीएन :00000

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भारत के प्रमुख ऋषियों मुनियों का वर्णन...

Pramukh Rishimuni A hindi book by Gitapress - प्रमुख ऋषि मुनि - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देवर्षि नारद

देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्माजी की सभा मे सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गये। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्माजी ने इन्हें शूद्र होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से नारद जी का जन्म एक शूद्र कुल में हुआ। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगी। एक दिन इनके गाँव में कुछ महात्मा में आये और चातुर्मास्य बिताने के लिये वहीं ठहर गये। नारदजी बचपन से ही अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो ये तन्मय होकर सुना करते थे।

संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दे देते थे।
साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करनेवाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गये। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नामका जप एवं भगवान् के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया। एक दिन साँप के काटने से इनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग की भी भगवान् का परम अनुद्र मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान् के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान् प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान् का दुबारा दर्शन करने के लिये नारदजी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी।

वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान् के ध्यान का प्रयास करने लगे, किन्तु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई- ‘हे दासीपुत्र ! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’

समय आने पर नारदजी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ब्रह्माजी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए देवर्षि नारद भगवान् के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे भगवान् की भक्ति और महात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान् का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों में अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।

महर्षि वाल्मीकि


महर्षि वाल्मीकि का पहले का नाम रत्नाकर था। इनका जन्म पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था, किन्तु डाकुओं के संसर्ग में रहने के कारण लूट-पाट और हत्याएँ करने लगे और यही इनकी अजीविका का साधन बन गया। इन्हें जो भी मार्ग में मिल जाता, ये उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारद जी से कहा कि ‘तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकालकर रखे दो ! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।’

देवर्षि नारद ने कहा- ‘मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या ? तुम लेना चाहों तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो ? देवर्षि कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा- भगवन् ! मेरी अजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ।’ देवर्षि बोले- ‘तुम जाकर पहले अपने परिवारवालों से पूछ आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सा बटायेंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जायेंगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बाँध दो।’ देवर्षि को पेड़ से बाँधकर ये अपने घर गये। इन्होंने बारी-बारी से कुटुम्बियों से पूछा कि ‘तुमलोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझसे केवल भरण-पोषण ही चाहते हो।’ सभी ने एक स्वर में कहा ‘हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्त्तव्य है। तुम कैसे धन लाते हो, यह तुम्हारे सोचने का विषय है। हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे।’

अपने कुटुम्बियों की बात सुनकर वाल्मीकि के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञाननेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बन्धन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में पड़े गये। नारद जी ने उन्हें धैर्य बँधाया और राम-नाम के जप का उपदेश दिया, किन्तु पूर्वकृत भयंकर पापों के कारण उनसे राम-नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तदन्तर नारदजी ने सोच-समझकर उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा।

भगवन्नाम का निरन्तर जप करते-करते वाल्मीकि अब ऋषि हो गये। उनके पहले की क्रूरता अब प्राणिमात्र के प्रति दया में बदल गयी। एक दिन इनके सामने एक व्याध ने पक्षी के एक जोड़े में से एक को मार दिया, तब दयालु ऋषि के मुखे से व्याध को शाप देते हुए एक श्लोक निकला। वह संस्कृत भाषा में लौकिक छन्दों में प्रथम अनुष्टुप् छन्द का श्लोक था। उसी छन्द के कारण वाल्मीकि आदि कवि हुए। इन्होंने ही रामायणरूपी आदिकाव्य की रचना की। वनवास के समय भगवान् श्रीराम ने स्वयं इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीताजी ने अपने वनवास का अन्तिम काल इनके आश्रम पर व्यतीत किया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम-जप और सत्संग के प्रभाव से वाल्मीकि डाकू से ब्रह्मर्षि हो गये।

महर्षि दधीचि


लोक-कल्याण के लिये आत्मत्याग करनेवालों में दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। इनकी माता का नाम शान्ति तथा पिता का नाम अथर्वा ऋषि था। ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज से तीनों लोक आलोकित हो गये और इन्द्र का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्रपद छीनना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। कामदेव और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।

एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे। उसी समय देवगुरु बृहस्पति आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।



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